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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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ज्ञान ही जाता है आत्मा के साथ

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शारीरिक परिपक्वता की आयु सीमा निर्धारित है। प्रायः बीस वर्ष की आयु तक हर व्यक्ति वयस्क हो जाता है। पच्चीस से तीस की आयु वालों को शारीरिक दृष्टि से परिपक्व माना जाता है। प्रौढ़ता की अवधि इसके बाद शुरू होती है तथा लगभग चालीस तक चलती है। आयुष्य से जुड़े शारीरिक संबंधों का यह मोटा विभाजन है, पर मानसिक दृष्टि से कितनी उम्र वालों को परिपक्व माना जाये निर्धारण में कठिनाई यहाँ आती है। कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो लम्बी वय के बाद भी बचकानी हरकतें करते रहते हैं। कितनों का बचपन जीवन पर्यन्त नहीं समाप्त होता तथा ऐसे आचरण प्रस्तुत करते रहते हैं। जिनमें उनकी नादानी ही झलकती है, जबकि कुछ ऐसे भी देखे जा सकते हैं, अद्भुत सूझबूझ का परिचय देते तथा बड़े दायित्व निभाते पाये गये हैं। बुद्धिमत्ता, योग्यता एवं प्रतिभा का भी सुनिश्चित एवं सीधा संबंध उम्र से नहीं दिखाई पड़ता। मनःशास्त्रियों द्वारा निर्धारित पैमाने भी संबंधित विषय पर स्पष्ट तथा विस्तृत व्याख्या नहीं कर पाते।

मानसिक परिपक्वता जाँच के लिए प्रचलित तरीका बुद्धिलब्धि परीक्षण है। परीक्षण पद्धति के अनुसार बालक की मानसिक आयु में उसकी वास्तविक उम्र से भाग तथा प्राप्त अंक को १.. से गुणा कर दिया जाता है। इस तरह यदि किसी बच्चे की मानसिक आयु ८ हो तो बुद्धिलब्धि १.. होगी। औसत बुद्धिलब्धि भी १.. मानी गई है। अपनी उम्र से अधिक प्रतिभा का परिचय देने वाले बच्चे की मानसिक आयु अधिक होती है। यदि बालक की शारीरिक आयु १. वर्ष तथा मानसिक आयु १५ वर्ष हो तो उसकी आई. क्यू. १५. होगी। मनःशास्त्रियों ने जो सर्वेक्षण और परीक्षण किये हैं, उसका निष्कर्ष है कि कुल जनसंख्या में दो प्रतिशत लोगों की बुद्धिलब्धि इस स्तर की होती है। अपवाद के रूप में थोड़े से व्यक्ति ऐसे पाये गये है, जिनकी बुद्धिलब्धि २.. तक थी। सामान्य वयस्क १.. से १५. बुद्धिलब्धि सीमा के भीतर आते हैं। १.. से कम को मानसिक दृष्टि से अविकसित तथा १५. से अधिक को ‘सुपर’ माना जाता है।

मनःशास्त्र द्वारा बौद्धिक क्षमता मापने का यह मोटा निर्धारण है, जिसके आधार पर लोगों की प्रतिभा मालूम की जाती है। पर बौद्धिक क्षमता मापने का यह सिद्धान्त अपूर्ण है। ऐसे अगणित प्रमाण भी मिले है, जिनमें मानसिक प्रखरता की उपर्युक्त कसौटियों पर अनेकों व्यक्ति खरे नहीं उतरे, पर गंभीरता से अध्ययन करने पर वे असाधारण प्रतिभा के धनी निकले। मूर्धन्य वैज्ञानिक सापेक्षवाद के आविष्कारक आइन्स्टीन विद्यार्थी जीवन में मन्द बुद्धि वाले माने जाते थे। एक दिन उन्हें विद्यालय से निष्कासित भी कर दिया गया था, कारण था- क्लास में हाजिरजवाबी का अभाव। विषयों प्रश्नों की गहराई में वे तुरंत उत्तर नहीं सूझता था। अध्यापक तथा विद्यार्थीगण इसी कारण उनकी क्षमता का मूल्याँकन नहीं कर पाते थे, पर सभी जानते हैं कि आरम्भ में मंदबुद्धि समझा जाने वाला यह बालक इतिहास प्रसिद्ध वैज्ञानिक बना जिसकी बुद्धि का लोहा सभी मानते हैं।

विलक्षण प्रतिभा के ऐसे अगणित प्रमाण मिले हैं, जिनका कोई सीधा संबन्ध बुद्धिलब्धि से नहीं है। वह मान्यता भी पुरानी पड़ती जा रही है। कि प्रतिभा प्रदत्त एक स्थायी जन्मजात अनुदान है। ‘इण्टेलिजेन्स कैन बी टाॅट’ पुस्तक की लेखिका आर्थरलिण्डा के अनुसार कई व्यक्तियों में उनके जीवन के दौरान आई. क्यू. स्तर बढ़ता देखा गया है, जबकि स्कूल में आई. क्यू. (बुद्धिलब्धि) परीक्षण के आधार पर अति मेधावी घोषित छात्र आगे चलकर निष्फल सिद्ध हुए हैं। प्रतिभा के मनोवैज्ञानिक परीक्षणों को चुनौती देने वाले एक उदाहरण भी है, जो बताते हैं कि यह पद्धति कितनी अपूर्ण और एकाँगी है। घोषित मंदबुद्धि पर अद्भुत मेधासम्पन्न व्यक्तियों के प्रमाण इस क्षेत्र में नये सिरे से सोचने तथा अनुसंधान करने की प्रेरणा देते हैं।

‘इडियट जीनियस’ नामक पुस्तक में मनःशास्त्री एरिक पैटर्सन ने एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि दो दशक पूर्ण न्यूयार्क में रोजलिन नामक महिला के गर्भ से जुड़वा बच्चे पैदा हुए। उनका जन्म निश्चित अवधि से तीन माह पूर्व ही हो गया था। नाम रखा गया चार्ल्स और जॉर्ज। तीन वर्ष की आयु में उनकी बुद्धि की जाँच की गयी। परीक्षण कर्ताओं ने उन्हें मंदगति घोषित किया। उनकी आई. क्यू. ६. से ७. के बीच थी, जो सामान्य से भी कम थी। ‘न्यूयार्क स्टेच साइकियेटिक इंस्टीट्यूट’ के डॉ. विलियम हार्विज ने पिछले दिनों इस युग्म का पुनः परीक्षण किया। इनमें उन्हें विलक्षणता का आभास मिला। उन्होंने जॉर्ज से एक जन्मतिथि बताकर उस पर पड़े दिन तथा उस क्रम में आगे पड़ने वाले विभिन्न तारीखों तथा दिनों का ब्यौरा पूछा। कुछ ही सेकेण्ड में उसने सही-सही विवरण प्रस्तुत कर दिया। सैकड़ों वर्ष पूर्व अमुक दिन कौन-सी तारीख तथा माह था, पूछे जाने पर अधिक समय लगाये चार्ल्स तथा जॉर्ज दोनों ही बता देते थे। आने वाले सैकड़ों वर्ष बाद की जानकारियाँ भी शत प्रतिशत सही देते थे, जबकि उन्हें कैलेण्डर के नियमों का कुछ भी ज्ञान नहीं था। लम्बे समय तक डॉ. हार्विज कारणों की खोज करते रहे, पर विलक्षणता का रहस्योद्घाटन न हो सका। अन्ततः वे यह कहकर चुप हो गये कि प्रतिभा के अविज्ञान स्रोत मानव मस्तिष्क में विद्यमान हैं, जिसकी कोई जानकारी विज्ञान एवं मनोविज्ञान को नहीं है।

इंग्लैण्ड का जेडेदिया बक्सन नामक व्यक्ति भी जार्ल्स और जॉर्ज की तरह ही अद्भुत मेधा का धनी था। बचपन में वह इतना मूर्ख समझा जाता था कि उसके माता पिता ने पढ़ाना ही उचित नहीं समझा। अक्षरज्ञान की भी उसे शिक्षा नहीं मिली, किन्तु आश्चर्य यह है कि कुछ ही वर्षा बाद वह गणित के कठिन प्रश्नों को हल करने लगा। उसकी स्मृति विलक्षण थी। एक बार वह थियेटर में ड्रामा देख रहा था। वहाँ भी उसने संवादों को यथावत दुहराकर सबको चकित कर दिया।

यद्यपि अधिकांश मस्तिष्कीय विलक्षणताएँ एवं प्रतिभाएँ जटिल गणनाओं एवं तरह तरह की गणितीय समस्याओं के क्षेत्र में ही दिखाई पड़ती है पर ऐसे भी अनेक उदाहरण है, जिनमें कई लोगों ने दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी ही श्रेष्ठता साबित की। ऐसे ही एक व्यक्ति थे १९ वीं सदी के जीनियस जे. एच. पुलेन। उन्हें जीनियस ऑफ अर्ल्सिवुड एसिनम के नाम से भी जाना जाता है। उनने ‘द् ग्रेट इर्स्टन’ नाम से विख्यात जलयान का अत्यन्त जटिल डिजाइन तैयार किया था। वह मॉडल उनने तीन वर्ष के लगातार श्रम के उपरान्त बनाया। उसे देखकर विशेषज्ञ यही कहते पाये गये कि यह किसी साधारण मेधा की उपज नहीं हो सकती है। उसमें जिस प्रकार की जटिलता का समावेश है, वह प्रणेता की दिमागी वरिष्ठता को ही सिद्ध करता है।

सन् १९१. में डेविड एस. विस्काट नामक मनोवैज्ञानिक ने बोस्टन की एक महिला हैरियट का अध्ययन किया। वह विलक्षण प्रतिभा की धनी निकली। मोजार्ट, वीथोवन, स्क्यूवर्ट, डेबूसी, प्रोकोफियेव जैसे विश्वविख्यात संगीतज्ञ के समकक्ष उन्हीं जैसी धुनें निकाल लेती थी। आश्चर्य की बात यह है कि उसने संगीत का कभी अभ्यास नहीं किया, न ही उसे लय, ताल, स्वर, रागिनियों का ही कुछ ज्ञान था।

जॉन न्यूमैन को उन्नीसवीं सदी के मूर्धन्य गणितज्ञ की पदवी मिली थी। वह कठिन गणित के प्रश्नों का उत्तर बिना गुणा भाग किये बिना किसी यंत्र का प्रयोग किये देने के लिए प्रख्यात था। यूरोपीय विद्वान समय समय पर उनसे गणित की समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए आया करते थे।

वैज्ञानिक क्षेत्र मं मस्तिष्क की विलक्षणताओं के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की अटकलें लगायी जा रही हैं। कुछ वैज्ञानिक इसका सम्बन्ध मस्तिष्क के प्रोटीन रसायन से जोड़ते हैं। कुछ का मत है कि मस्तिष्क के अन्तराल में कम्प्यूटर जैसी कोई अविज्ञान प्रणाली कार्यरत है। कइयों का मानना है कि मस्तिष्क की कॉर्टिकल पर्त इसके लिए जिम्मेदार है, जबकि अन्य अनेक इसके मूल में बीजकोशों की भूमिका स्वीकारने से नहीं चूकते। दूसरी ओर पेलो अल्टो स्कूल ऑफ प्रोफेशनल साइकोलॉजी के डॉ. टी. एल. ने प्रतिभा का सम्बन्ध मस्तिष्क के वाम भाग से जोड़ते हुए कहा है कि यह क्षेत्र असीम संभावनाओं का छुपा भण्डार है, जिसका अध्ययन गम्भीरतापूर्वक किया जाना चाहिए।

वैज्ञानिकों की अटकलों तथा मनोवैज्ञानिक क्षेत्र के प्रयोग-परीक्षणों से निकले निष्कर्षों के आधार पर मानसिक प्रतिभा के कारणों की स्पष्ट व्याख्या कर सना मुश्किल है। बुद्धि-विश्लेषण एवं प्रखरता के निर्धारण के लिए बनाये गये। बुद्धिलब्धि जैसे मापदण्ड अत्यन्त बौने साबित होते हैं। इंटेलीजेन्स का वह पहलू जो महान तथा महत्वपूर्ण आविष्कारों का जन्मदाता है, किसी भी तरह इन परीक्षणों की सीमा में नहीं आ पाता। सशक्त कल्पनाओं, प्रखर विचारों का इनमें परिचय नहीं प्राप्त किया जा सकता। हिमनदों में बर्फ के शिलाखण्डों का तीन चौथाई हिस्सा पानी के भीतर डूबा रहता है। प्रतिभा की भी लगभग ऐसी ही स्थिति होती है। एक मोटा और अत्यन्त छोटा पक्ष ही बुद्धि का व्यक्त रूप में सामने आता है। उसी को लेकर मनुष्य अपने दैनन्दिन जीवन के क्रिया–कलापों को गतिशील रखता है। अधिकांश भाग तो प्रसुप्त स्थिति में दबा पड़ा रहता तथा उपयोग में नहीं आ पाता है।

जन्मजात प्रतिभा एवं बौद्धिक विलक्षणता का कुछ सुनिश्चित कारण मनोवेत्ता तथा तंत्रिकाशास्त्री नहीं बता पाते। आनुवांशिकी से जोड़े जाने वाले तीर-तुक्कों की भी अब सटीक संगति नहीं बैठती। आनुवांशिकी के नियमों को झुठलाने वाले विपरीत तथ्य एवं प्रमाण भी देखे जाते हैं। मूर्ख माता-पिता मेधावी तथा मेधावी के मूर्ख पैदा होने के उदाहरण भी समय-समय पर मिलते हैं। सबसे अधिक रहस्यमय तथा चौंकाने वाली वे घटनाएँ होती हैं, जिनमें बिना शिक्षण प्राप्त किये विशिष्ट स्तर की प्रतिभा किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में अकस्मात् उभरती दिखाई पड़ती है।

आध्यात्मवादी इनका सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों से जोड़ते हुए कहते हैं कि अनायास प्रतिभा के रूप में दिखाई पड़ने वाली विशेषता पूर्व जन्मों की उपार्जित होती है। शरीर का मरण होते हुए भी कृत्यों के संस्कार सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं और ये नये जन्म के साथ प्रकट होते हैं। संभव है कि इस जीवन में उस प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को कोई शिक्षण न मिला हो, न ही उसने किसी प्रकार का प्रयास किया हो, पर उसको मिला यह अनुदान पूर्व जन्म के संचित ज्ञान की ही अभिव्यक्ति हो।

उपर्युक्त मान्यता को स्वीकार लेने से यह गुत्थी सुलझ जाती है कि क्यों कोई बालक अल्पायु में ही विलक्षण मेधा का मालिक बन जाता है, जबकि उसके दूसरे साथी बालसुलभ बुद्धि का ही परिचय दे पाते है? इस आधार पर उक्त निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि प्रतिभा उम्र की अनुगामिनी कम, संस्कारों की सहचरी ज्यादा है।

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