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Magazine - Year 1998 - Version 2

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गोरस बेचन हरि मिलन - एक पंथ दो काज

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First 29 31 Last
यह भारतीय अध्यात्म की विशेषता है कि उसमें यथा - उपाख्यानों के माध्यम से मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समस्याओं के समाधान बड़ी कुशलतापूर्वक पिरो दिये गये हैं। दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रतिपादन हर किसी के गले नहीं उतरते। कथानकों में यह विशेषता है कि वे बाल-वृद्ध नर-नारी शिक्षित-अशिक्षित सभी की समझ में आ जाते हैं और उनके आधार पर किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता हैं यह लोकरंजन के साथ लोकमंगल का एक सर्वसुलभ मार्ग है।

ऋषियों का प्रयास सही रहा है कि यदि समाज विद्यालय तक न पहुँच सके तो विद्यालय को समाज तक पहुँचना चाहिए। समूचा समाज शिक्षार्थी बने और सारी धरती पाठशाला, इसी स्वरूप को विकसित करने के लिए सरल सुगम शैली में भागवत, रामायण, सत्यनारायण, देवीभागवत कथा आदि का विधान बनाया गया। वेदों के दर्शनसूत्र सर्वसाधारण भी सोच-समझकर तद्नुरूप जी सके, विचार के इसी उद्गम बिन्दु से पुराणों की धारा बह निकली। अठारह पुराणों और इक्कीस उपपुराणों के साथ रामायण महाभारत का महत्व कम नहीं है। कथा - साहित्य का यह विशाल भण्डार कलेवर की दृष्टि से वेदों व दर्शनों की तुलना में कई गुना बैठता है। ऋषियों की प्रेरणाओं का संचार करने वाले कथा-कीर्तनों में कला के रहस्य के साथ लोकचेतना का मनोविज्ञान भी संजोया हुआ है। मानव की आस्थाओं एवं उसके आचरण दोनों के साथ-साथ उत्कृष्ट बनाए रखने की प्रेरणाओं के साथ-कथा -संकीर्तनों का विधान हमारी संस्कृति में किया गया है।

भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक अनूठी विशेषता यह है कि यहाँ कथा को एक धर्मानुष्ठान का रूप दे दिया गया है। श्रोता और वाचक दोनों को कुछ खास कर्मकाण्डों को पूरा करके अपनी मनोभूमि का निर्माण करना होता है। उसमें मानव के क्रिया-कौशल एवं भावनाशीलता दोनों को ही सद्गुणों के समुच्चय रूपी इष्ट की ओर मोड़ देना ऋषियों का लक्ष्य रहा है। नैमिषारण्य कभी इसी तरह के धर्मानुष्ठान का केन्द्र था, जहाँ से सूत-शौनिक परम्पराएँ गाँव -गाँव तक पहुँच सकी। आज भी इसके चिन्ह रामकथा के नौ दिवसीय एवं भागवत् कथा के सात दिवसीय समारोह के रूप में मिलते हैं। कथानकों से जुड़े प्रतिपादनों से निश्चित ही भावनाओं का स्पन्दन-विकास व जीवन में उतारने का प्रेरणा का स्फुरण होता है, इसमें काई सन्देह नहीं है।

कथा - समारोहों साथ कीर्तन की भी महत्ता है। कीर्तन में नृत्य और संगीत दोनों की समावेश है। समूचे जनप्रवाह का उल्लासमय कर देना ही संकीर्तन का लक्ष्य होता है। एवं इसे कथा के साथ जोड़कर ऋषिगणों ने सोने में सुहागे की तरह सुन्दर बना दिया है। आज के युग में जहाँ व्यक्ति मनोव्यथाओं की टूटन -दरार से पीड़ित है, घुटन–सिसकन ही आज के औसत व्यक्ति के पल्ले पड़ती दिखाई देती है- संवेदनाओं के नर्तन और भावनाओं के उफान से कथा - संकीर्तनों द्वारा वह चिकित्सा की जा सकती हैं जो और किसी पद्धति से की जाने पर संभवतः सफल न होती। कीर्तन की दो शैलियाँ प्रख्यात हैं- नारदीय एवं वैयासकीय। जहाँ नारदीय पद्धति में वाद्यों के साथ अथवा बिना वाद्य के बैठे हुए अथवा खड़े होकर भगवन्नाम की संकीर्तन किया जाता है। वहाँ बीच-बीच में नाम ध्वनि -पद कीर्तन और भगवद्भक्तों की कथा- तथा साथ-साथ प्रतिपादन, यही वैयासकीय पद्धति है।

परमपूज्य गुरुदेव ने समय की विषमता को समझते हुए तद्नुरूप ही उपचारों की बात सोची। आज परिवर्तनशील समय में मनुष्य की परिस्थितियाँ मान्यताएँ-प्रथाएँ-समस्याएँ एवं आवश्यकताएँ भी तेजी से बदली हैं। बदलते समय के साथ समाधान खोजकर उन्हें धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया गूंथने का कार्य एक अवतारी स्तर की सत्ता ही सोच सकती है। इस शाश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए प्रज्ञापुराण रूपी युगसाहित्य का सृजन युगऋषियों ने किया। इसका उद्देश्य एक ही था कि प्रस्तुत प्रसंगों से समयानुकूल प्रकाश एवं मार्गदर्शन सभी को मिल सके। अनेकानेक मनः स्थिति वालों के लिए परिस्थिति के अनुरूप समाधान दे सकने की दृष्टि से उन्नीसवें पुराण के रूप में प्रज्ञा- पुराण की रचना हुई, जिसके प्रज्ञोपनिषद के रूप में एक पूरा खण्ड वांग्मय में संकलित है तथा चार खण्डों को पुराण कथा-उपाख्यानों के साथ सरल बोधमय शैली में प्रस्तुत किया गया है।

प्रज्ञापुराण की महत्ता जितनी बतायी जाए कम है। इसके उपलब्ध चारों खण्डों के प्रकाशन से अब तक अगणित आवृत्तियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इन खण्डों में समग्र मानव धर्म के अंतर्गत मान्यता प्राप्त इतिहास पुराणों की कथाएँ हैं- प्रेरणाप्रद दृष्टान्त हैं, किन से नीरस-सा लगने वाला दार्शनिक विवेचन भी सरस, प्राणवान् हृदयंगम करने योग्य बन जाता है। इनमें अन्य धर्मावलम्बियों के क्षेत्रों में उचित कथाओं का भी समावेश है। है तो उनका अंश थोड़ा ही, पर उससे इस युगपुराण की सार्वभौमिकता का परिचय मिलता है। कथा-आयोजन को यदि एक सामूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में संपन्न किया जाए तो उससे उपस्थित समुदाय को अच्छा-खासा लोकशिक्षण मिलता है। विवेचनों - प्रसंगों के साथ कथानकों का समन्वय तथा साधनात्मक परामर्श न केवल दर्शकों को बाँधे रखता है, समूह चेतना (कलेक्टिव कांशसनेश) को जगाकर एक विलक्षण वातावरण का निर्माण करता है। व्यक्तिगत स्वाध्याय के अलावा भी सामूहिक आयोजनों की दृष्टि से प्रज्ञापुराण कथा के आयोजन बड़े उपयोगी व प्रभावी सिद्ध हुए हैं।

प्रज्ञापुराण के अभी तक प्रकाशित चार खण्डों में से पहले खण्ड में युग-समस्याओं के कारण का मूल आस्था-संकट बताया गया है। इससे ऊबकर प्रज्ञायुग लाने का तत्पर अवतारी सत्ता द्वारा प्रणीत संदेश भी इसमें हैं। भ्रष्ट-चिन्तन एवं दुष्ट आचरण से जूझने हेतु अध्यात्म दर्शन को किस तरह व्यावहारिक रूप में अपनाया जाना चाहिए, उसके लिए विस्तृत व्याख्या के साथ अंत में महाप्रज्ञा के अवलम्बन से संभावित सतयुगी परिस्थितियों की झाँकी दी गयी है। दूसरा खण्ड महामानव खण्ड है। इसमें धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों के रूप में प्रचलित।

पाँच दिवसीय पावन प्रज्ञापुराण कथा-आयोजनों की रूपरेखा

शान्तिकुञ्ज के तत्वाधान में होने वाले ये कार्यक्रम पाँच दिवसीय होंगे। बारह सदस्यीय केन्द्रीय टोली प्रायः एक दिन पूर्व निर्धारित स्थान पर पहुँच जाएगी। टोली के सदस्य पहुँचते ही आयोजकों के परामर्श करके प्रदर्शनी सहित सभी व्यवस्थाओं की अंतिम रूप देने में सहयोग करेंगे।

प्रथम दिन - प्रातः ९ से १. बजे कलश यात्रा- जिसमें मात्र २४ कलश रहेंगे। इसके साथ- साथ प्रज्ञापुराण ग्रंथों की विशेष यात्रा। ऐसे व्यक्तियों को वरणी के रूप में तैयार किया जाय जो जोड़े सहित श्रद्धापूर्वक पाँचों दिन कथा-श्रवण कर सकें और जिनके घरों में प्रज्ञापुराण ग्रंथ की स्थापना की जा सके। ऐसे सभी परिजन जिनके यहाँ पहले से प्रज्ञापुराण ग्रंथ है, वे भी अपने ग्रंथ को सिर पर रखकर साथ चलेंगे। शोभायात्रा कलश प्रधान न होकर ग्रंथ प्रधान होगी। पाठ किये जाने वाले पुराण को किसी खुले पर देवचित्रों के साथ सज्जा सहित रखें और यात्रा के समय पूजन आदि की व्यवस्था उसी झाँकी पर बनावें।

यात्रा के समापन के समय विधिवत् व्यासपीठ पर मुख्य ग्रंथ की तथा वरणी श्रोताओं के ग्रंथों की स्थापना की जाएगी। संक्षिप्त के ग्रंथों की स्थापन की जाएगी। संक्षिप्त पूजन- आरती आदि के पश्चात कार्यक्रम समाप्त किया जा सकता है। अथवा यदि स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उचित समझें तो उसी समय कथा प्रारंभ करके प्रथम दिन की भूमिकापरक कथा कहकर समाप्त करने की व्यवस्था बनायी जा सकती है। यदि इस समय कथा करना संभव नहीं हो तो मध्याह्न अथवा सायं कथा प्रारंभ कथा होने की घोषणा करके कार्यक्रम समाप्त कर लें।

सायं ६ से ७ बजे से संगीत प्रवचन (प्रबुद्ध वर्ग गोष्ठी) आदि कार्यक्रम रखें। इस सभा के लिए प्रतिदिन बौद्धिक विषयों का निर्धारण एवं विषय-सामग्री यहाँ से तैयार की जाएगी। यदि किसी विशेष वर्ग के प्रबुद्ध लोगों को बुलाया गया हो तो उनके लिए भी उद्बोधन इसी सभा में होगा।

नोट:- जहाँ कथा रात्रि में होगी, वहाँ यह गोष्ठियाँ मध्याह्न काल में रखें।

द्वितीय दिन - प्रातः योग-व्यायाम ६.३. से ८... बजे तक। यह कार्यक्रम शिव-संकल्प पाठ एवं वंदना -गीत आदि के साथ प्रारंभ होगा। ५ से १. मिनट की संक्षिप्त भूमिका के पश्चात् १५-२. मिनट का ध्यान। इसके बाद योगासन, प्राणायाम, बंधमुद्रा आदि का सामूहिक अभ्यास। इसे पुरुष एवं महिलाएँ साथ-साथ करेगी। महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए महिला स्वयंसेवक रहेंगी। संचालन एक स्थान से होगा। पूरा स्थान कनातों से घिरा होगा, ताकि बाहरी लोग खड़े होकर न देखें।

टोली के लोग योगाभ्यास के समय स्थिति सुधारने के लिए महिला एवं पुरुष स्वयंसेवकों की टोली बनाकर इनका प्रशिक्षण कर देंगे। यह कार्य पूर्व संध्या कर लेते हैं।

मध्याह्न- प्रथम दिन की भाँति कथा अथवा प्रबुद्ध वर्ग गोष्ठी संगीत प्रवचन।

सायं - प्रथम दिन की भाँति कथा अथवा प्रबुद्ध वर्ग गोष्ठी, संगीत, प्रवचन।

तृतीय एवं चतुर्थ दिन - द्वितीय दिन की भाँति।

पंचम दिन प्रातः - योग - व्यायाम के स्थान पर विविध संस्कारों का क्रम चलेगा। संस्कारों से पूर्व प्रतीकात्मक यज्ञ के लिए नौ कुण्ड स्थापित कर लिया जाएँगे।

अपराह्न - कथा का समापन एवं दीपयज्ञ।

अंतिम दिन अनिवार्य रूप से कथा प्रारंभ करने का ऐसा समय रखा जाए कि सूर्यास्त होते-होते समाप्त हो और उसी के साथ संक्षिप्त कर्मकाण्ड कराकर दीपयज्ञ सम्पन्न किया जाए।

कथा एवं दीपयज्ञ के समापन पर वरणी परिजनों के यहाँ प्रज्ञा-पुराण ग्रंथ की स्थापना का संकल्प कराया जाए। पश्चात समापन।

विशेष - पूरे आयोजन के लिए एक ही पण्डाल एवं एक ही मंच बनाएँ। योग -व्यायाम तथा कथा- प्रवचन आदि। सभी कार्यक्रम उसी मंच से किये जाएँगे। समापन के दिन मंच के निकट नौ कुण्डीय यज्ञशाला बनाएँ। कुण्ड स्थाई या अस्थायी कैसे भी हो सकते हैं। दीपयज्ञ के समय यज्ञशाला क्षेत्र का उपयोग दीपसज्जा के लिए किया जा सकता है।

उन गुणों का विस्तार में वर्णन है, जिन्हें अपनाकर महामानव बना जाता है। सत्य-विवेक संयम -कर्तव्यशील, अनुशासन- अनुबन्ध, सौजन्य-पराक्रम एवं सहकार परमार्थ रूपी पाँच गुण युग्मों का कथा-शैली में बड़ा ही सुन्दर प्रतिपादन है। तृतीय खण्ड परिवार खण्ड है। आत्मनिर्माण हो भी जाए तो परिवार -निर्माण के बाद गृहस्थ संस्था चलेगी कैसे? इसलिए पूज्यवर ने गृहस्थजीवन सहजीवन, पारिवारिकता की धुरी पर विनिर्मित विश्वपरिवार जैसे विषयों के द्वारा वसुधैव कुटुम्बकम् के दर्शन को इसमें स्पष्ट किया है। परिवारों में संस्कार संवर्धन, शिशुनिर्माण, वृद्धजन माहात्म्य एवं नारी माहात्म्य जैसे प्रकरण इसमें है। चौथा खण्ड देव-संस्कृति के विभिन्न पक्षों यथा-वर्णाश्रम धर्म, पर्व-संस्कार, तीर्थाटन-प्रव्रज्या-मरणोत्तर जीवन, आस्था-संकट व प्रज्ञावतार के विषय में लिखा गया है। इस खण्ड में उद्धृत उदाहरणों में ने केवल वैज्ञानिकता का समावेश है, वरन् सरस भावसंवेदना भी है। अंत में युग कैसे बदलेगा। यह मार्गदर्शन भी है।

प्रज्ञापुराण कथा आज की इस संधिकाल की वेला में सद्ज्ञान विस्तार के पुण्य कार्य के निमित्त ऐसा धर्मानुष्ठान है, जिसका पुण्य दोनों को मिलता है- आयोजित करने वाले को भी इसके लिए पुरुषार्थ करने वाले सृजन सैनिकों को भी तथा लाभान्वित होने वाले श्रोतागणों को भी। ऋतम्भरा -प्रज्ञा ही युग-शक्ति गायत्री के रूप में दूरदर्शी विवेकशीलता की स्थापना के रूप में इस संधिकाल में सबको पार लगा सकती है। प्रज्ञापुराण प्रधान कथा आयोजनों का महत्व इस संधिवेला में और भी बढ़ जाता है।

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