
भूकंप की भीषण त्रासदी से कैसे बचा जाए
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भूकंप अर्थात् चरमराते-ढहते हुए मकान, टूटते हुए बाँध एवं पुल, बिखरती हुई सड़कें, धँसती हुई धरती, खंडहरों में बदलते गाँव एवं नगर, मलबे में दबे-मरे-अधमरे बदकिस्मत इनसान। निःसंदेह भूकंप समस्त प्राकृतिक आपदाओं में सबसे भीषण एवं भयावह है। यह ऊर्जा के तीव्र उत्सर्जन द्वारा उत्पन्न पृथ्वी का कंपन है। विज्ञानसेवा पृथ्वी में प्लेटो की असमान गतिशीलता, वृक्षों का असाधारण रूप से काटे जाना व प्राकृतिक असंतुलन को भूकंप का कारण मानते हैं। जो कुछ भी हो, पर इसकी वजह से अपार धन-जन की हानि होती है। इस शताब्दी में जिस क्रूरता से धरती का दोहन एवं शोषण किया गया है, उससे लगता है कि प्रकृति अपने भूकंप रूपी कालदण्ड से मनुष्य को अंतिम चेतावनी दे रही है।
प्राचीन भारतीय कालगणना के आधार पर पृथ्वी 1,17,21,41,100 वर्ष पुरानी मानी जाती है, जबकि भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार पृथ्वी की आयु लगभग 450 करोड़ वर्ष आँकी गई है। वैज्ञानिक निष्कर्षों के अनुसार भूकंपों का इतिहास भी इतना ही पुराना है। अर्थात् पृथ्वी के उद्गम के साथ ही भूकंप का अस्तित्व सामने आया। भूकंप का प्रथम प्रामाणिक उल्लेख 373 ई॰ पूर्व ग्रीस से मिलता है। भारत में भूकंपों का सूचीबद्ध इतिहास 800 ई. के बाद से प्राप्त होता है। विश्व का अब तक का भीषणतम भूकंप 23 जनवरी 1556 ई॰ में चीन में आया था। इस त्रासदी में साढ़े चार लाख लोगों की जाने गई थी। भारत का भीषणतम भूकंप सन् 1937 में बंगाल में आया था।, जिसमें लगभग तीन लाख मनुष्य मौत के मुख में चले गये। वर्तमान शताब्दी का सबसे बड़ा भूकम्प भी चीन में ही 28 जुलाई 1976 में आया था। इसमें सात लाख से अधिक मौतें हुई थी।
मोटे तौर पर भूकंप दो तरह के होते है। एक वे जो धरती के अंदर ही टकराहट से उत्पन्न होते हैं और दूसरे धरती के अंदर गर्मी बढ़ जाने के कारण हुए विस्फोट से। अभी तक के स्थापित आधुनिकतम भूकंप सिद्धांतों में ‘प्लेट टेक्टोनिक’ को ही प्रामाणिक माना गया है। भूकंप समस्त प्राकृतिक प्रकोपों में सबसे भयावह आपदा है। जिसकी रोकथाम मानव द्वारा सम्भव नहीं। प्रतिवर्ष सैकड़ों भूकंपों के अलावा धरती एक दर्जन में अधिक बड़े और विनाशकारी भूकंपों द्वारा प्रकंपित होती है। इससे न केवल भू-दरारें उत्पन्न होती हैं। बल्कि भू-सतहें भी नष्ट हो जाती है महासागरों में उत्पन्न होने वाले भूचाल विशाल ज्वारीय तरंगें उत्पन्न करते हैं। जिसे भूकंपीसिंधु के नाम से जाना जाता है। ये तरंगें तीव्र गति से चलती हैं और निचले तटीय क्षेत्रों में बाढ़ की सी स्थिति उत्पन्न करती है।
इस भयावह प्राकृतिक आपदा के बारे में वैज्ञानिकों के विभिन्न मत हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलूर के दो खगोलविदों के अनुसार पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति धीरे-धीरे चुक रही है। ब्रह्मांडीय प्रसार के कारण इस शक्ति में हास हो रहा है। विज्ञान वेत्ताओं ने बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से स्पष्ट किया है कि ज्यों-ज्यों पृथ्वी की उम्र बढ़ती गयी, नाभिकीय बल तो स्थिर रहा, मगर गुरुत्वाकर्षण बल निरंतर क्षीण होता चला गया। इससे धरती में कँपकँपाहट आने लगी है। इस परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी नौ सेना वेधशाला के समय विभाग के अध्यक्ष डॉ. गेरनार विकलर ने उल्लेख किया है कि पिछले 25 वर्षों में पहली बार धरती की घूर्णन गति में तेजी आयी है। इस तीव्रता को सबसे पहले वर्ष 1955 में पाया गया। सन् 1999 एवं 2000 में इसकी तीव्रता में वृद्धि होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। इससे भूकंप की आशंका को बल मिला है।
विश्वस्तर पर वैज्ञानिकों की अवधारणा है कि धरती के साथ हो रही छेड़-छाड़ के कारण भी भूकंप की स्थिति आ रही है। वृक्षों की अंधाधुन्ध कटाई, भारी मात्रा में भूगर्भीय दोहन और जनसंख्या का बढ़ता दबाव धरती को अस्थिर एवं असंतुलित कर रहा है। भारत के 80 प्रतिशत सघन जंगल अब 8 प्रतिशत के अवशेष के रूप में अंतिम साँसें गिन रहे हैं। हटती हरी चादर से उधड़ी-नंगी होती धरती कराह उठी है। इसी कराह के परिणामस्वरूप भूकंप का परिदृश्य सामने है। इस संदर्भ में वाडिया भू-संस्थान के निदेशक डॉ. बी.सी. ठाकुर का कहना है कि अब तो हिमालयन भू-गर्भ क्षेत्र में भूकंप की घटनाएँ सामान्य बातें हो गयी है। भारतीय प्रायद्वीप के प्रतिवर्ष 5 सेंटीमीटर तिब्बत की ओर बढ़ने से भूकंप की संभावनाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। हिमालय पर्वत अति संवेदनशील हो उठा है, इसमें भी दो पट्टियाँ प्रमुख है, उत्तर की पट्टी-ग्रेट हिमालय एवं लोअर हिमालय। सक्रिय थ्रस्ट की वजह से भी हिमालय में भूकंप की स्थिति में तीव्रता आयी है।
वैज्ञानिकों के अनुसार चमोली में पिछले दिनों मार्च के अंत में आया भूकंप भारतीय प्लेट के तिब्बतीय प्लेट से टकराने से हुआ। ज्ञात हो कि अकेले बीसवीं सदी में हिमालय का यह क्षेत्र 8 विनाशकारी भूकंपों को झेल चुका है। भारतीय क्षेत्र की गतिशील प्लेट जब भी तिब्बत की प्लेट से टकराती है। या इसके नीचे घुसती है, तो संपूर्ण हिमालय क्षेत्र थरथरा उठता है। इस सिद्धांतानुसार धरती की बाहरी सात प्रमुख और कुछ छोटी प्लेट्स में बँटी हुई है। प्लेट्स 50 से 100 किलोमीटर मोटाई की होती है। ये प्लेट्स इतनी कठोर होती है कि न तो मुड़ सकती हैं और न ही टूटती हैं। ये तो बस टकराकर भूकंप को जन्म देती हैं।
इन प्लेटो में तरंगें होती हैं। धरती की सतह के नीचे या उसके आस-पास ऊर्जा के मुक्त होने से वह स्थान विशेष अथवा उसकी परतें तेजी से घड़ी के पेंडुलम की तरह दोलन करने लगती हैं। यही दोलन भूकंप का कारण है। कठोर चट्टानों में ये तरंगें तीव्रता से प्रवाहित होती हैं, परन्तु तरल चट्टानों में यह दर कम होती है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर पूर्वी भारत में धरती की परत हर साल 5 सेंटीमीटर खिसक रही है। यह स्थिति भूकंप की संवेदनशीलता एवं संभावना को बढ़ाती है। तिब्बत जैसी स्थिर प्लेट को फुट और भारतीय चलायमान प्लेट को हैगिंग कहा जाता है। हैगिंग प्लेट पर लगातार दबाव पड़ता रहता है। यहाँ तक कि वह रबड़ की तरह मुड़ भी जाती हैं। कई दशकों के पश्चात् यह टूट भी जाती हैं। इसी के साथ सालों की एकत्रित ऊर्जा का बड़ा भाग तापीय क्रिया में बदलकर चट्टानों को गला डालता है। इस प्रकार ये प्लेटें चटकती, दरकती एवं टूटती रहती हैं। जिन स्थानों में ये प्लेटें जल्दी चटकती है, वहाँ हल्के भूकंप आते हैं। प्लेट्स के टूटन की दर तेजी से होना भयंकर एवं विप्लवी भूकंप को आमंत्रित करता है।
इस दिशा में नवीनतम अन्वेषण एवं अनुसंधान बताते हैं कि हिमालय की ऊपरी अग्रिम पंक्तियों की सतह में भू-चुम्बकीय तरंगें बेहद अनियमित हैं। दिल्ली हरिद्वार का पश्चिमी भाग अत्यंत विद्युत सुचालक है। तरंगों की अनियमितता भूकंप के प्रति तीव्र संवेदी है। इसी आधार पर हिमालय के महोदधि एवं रामनगर के बीच डेढ़ सौ किमी. दूरी पर तेरह केन्द्र चुने गए हैं। उत्तरी हिमालय के अंदर गुरुत्वाकर्षण दृश्यों का विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि या तो पूर्व-पश्चिम में तरंगों की असमानता है या फिर दिल्ली-हरिद्वार के आर-पार चट्टानों की संरचना में बदलाव है। इसी प्रकार शिवालिक पर्वतमाला से लेकर कुमाऊं हिमालय का क्षेत्र नियमित रूप से भीषण भूकंप की चपेट में है।
उत्तराखण्ड में पिछले दो सौ वर्षों में आए भूकंपों का इतिहास देखे तो सबसे अधिक तीव्रता वाला भूकंप 2 अक्टूबर, 1937 को देहरादून में तथा सबसे कम तीव्रता वाला 25 जुलाई, 1969 को नैनीताल में दर्ज किया गया। तीव्रता के आधार पर उत्तराखण्ड में आए भूकंपों का विवरण इस तरह है- 22 मई 1803 में उत्तरकाशी में आए भूकंप की तीव्रता रिएक्टर स्केल पर छह थी। 25 मई, 1916 में गंगोत्री में इसका परिमाण 7 था। लोहाघाट में 1831 से 35 के बीच चार भूकंप आए। वहाँ इसकी तीव्रता क्रमशः 25 दिसंबर 1931 को 5 रिएक्टर, 2 जुलाई 1832 में 6 रिएक्टर, 30 मई 1833 में 6 रिएक्टर तथा 14 मई 1835 में 7 थी। 14 फरवरी, 1851 में नैनीताल में आए भूकंप की तीव्रता 5 थी, जबकि वहीं पर 25 जुलाई, 1869 में इसकी तीव्रता 6 मापी गयी। 28 अक्टूबर 1916 में धारचूला में 7.5 स्केल का पहला भूकंप दर्ज किया गया। यही पर दूसरी बार छह तीव्रता का भूकंप 5 मार्च, 1935 को रिकार्ड हुआ। 2 अक्टूबर 1937 को यह केन्द्र फिर से एक बार देहरादून था, जहाँ इसका परिमाण 8 था।
हिमालय में आए भूकंपों के इस क्रम में 4 जून, 1945 में अल्मोड़ा में 6.5 रिएक्टर के भूकंप ने यहाँ दरारें पैदा कर दी। पुनः इसका केन्द्र धारचूला हो गया। यहाँ क्रमशः 28 दिसंबर 1956 में में 7.5, 24 दिसंबर, 1961 में 5.7, 26 सितंबर, 1964 में 5.8 तथा 6 अक्टूबर, 1964 में 5.3 परिमाण का आँका गया था। 27 जुलाई 1966 में कप कोट में 6.3 तीव्रता के भूकंप के पश्चात् प्रकृति ने फिर धारचूला की धरती को हिलाने का मन बनाया। वहाँ पर इसकी तीव्रता 28 अगस्त 1968 को 7 व 21 जुलाई 1980 को 6.5 परिमाण थी। 20 अक्टूबर, 1999 में उत्तरकाशी में 6.6 तीव्रता वाले भूकंप की दहशत को अभी तक भुलाया नहीं जा सका है।
अभी हाल ही में 27 मार्च 1999 में चमोली में मध्य रात्रि में आए विनाशकारी भूकंप से गढ़वाल क्षेत्र में मरने वालों की संख्या सैकड़ों को पार कर गयी। उत्तरकाशी में इनकी संख्या डेढ़ हजार के आस-पास थी। चमोली में आए भूकंप का असर 6.8 रहा और इसका केन्द्र धरती के अंदर 33 किलोमीटर था। उत्तरकाशी में आए भूकंप के केन्द्र 18 किलोमीटर अंदर था, इसीलिए वही तबाही अधिक हुई थी। हिमालय में औसतन 25 वर्षों में परिमाण 8 या अधिक का भूकंप आता है तथा प्रत्येक दो-तीन वर्षों में 6 से अधिक किंतु 8 से कम परिमाण का बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है।
स्थिर कटिबंधीय क्षेत्र जैसे भारतीय प्रायद्वीप में भूकंपीय संभावनाएँ मानी जाती रही हैं। किन्तु 1897 से 1997 क बीच रिएक्टर पैमाने पर 6 से 8.7 तीव्रता के 20 बड़े भूकंपों का भारत में दुरागमन हो चुका है। न्यूनतम संभावना वाले क्षेत्र महाराष्ट्र के कोयना क्षेत्र में सन् 1937 में तथा लातूर खंड में 1993 में आए विनाशकारी भूकंपों और इसी प्रकार 1997 में जबलपुर के भूकंप ने अनेकों प्रश्नों को जन्म दे दिया है। मुम्बई भी भूकंप से अछूता नहीं रहा। यहाँ मध्यम तीव्रता का सबसे बड़ा भूकंप सन् 1618 में आया था। इसमें लगभग दो हजार जाने गई। हाँ केवल बस्तर का क्षेत्र भूकंप शून्य क्षेत्र गिना जाता है। इस तरह भारत में मध्यम श्रेणी के भूकंप कही भी कभी भी तबाही मचा सकते हैं। भूकंप से बड़ी मात्रा में जन-धन की हानि होती है। एक भयंकर भूकंप में लगभग 200 किमी0 लम्बाई में भ्रंश फटता है। इससे 50 से 100 किमी0 तक तो बहुत क्षति होती है, लेकिन 400 किमी0 दूरी तक के भवन व दीवारें गिर सकती हैं। तरंगों की गति बढ़ने से भी दीवारें गिर जाती है। एक प्रतिशत गतिवर्द्धन से झटके महसूस होते हैं, जबकि 1999 में उत्तरकाशी के भूकंप में 30 गतिवर्द्धन था।
भूकंप की पूर्व सूचना दे पाना अभी भी संभव नहीं हो पाया है। परंतु इसकी पूर्व सूचना जानवरों और पशु-पक्षियों के व्यवहारों को देखकर जानी जा सकती है। इसका आभास जीव जगत को प्राप्त हो जाता है। भूकंप आने के तीन-चार दिन पहले दिल्ली सहित भूकंप से प्रभावित क्षेत्रों के मुर्गी फार्मों की मुर्गियों ने यकायक अंडे देने कम कर दिये थे। विशेषज्ञों के अनुसार भूकंप के हर झटके के पहले फार्म में अंडों के उत्पादन में अचानक कमी आने के रिकार्ड हैं। दिल्ली सरकार के पशुपालन विभाग के पूर्व निदेशक डॉ. एस.एस. दहिया ने इस तथ्य की पुष्टि की है। उनके मतानुसार मुर्गियों सहित अन्य जानवरों को भी बहुत पहले भूकंप आने का अंदेशा रहता है। यह उसी का प्रभाव है कि मुर्गियाँ कम अंडे देने लगती हैं।
अब तो पश्चिमी विज्ञानवेत्ता भी मानने लगे हैं कि पशु-पक्षी भूकंप के मामले में मशीन से भी ज्यादा संवेदनशील होते हैं। अमेरिका के वैज्ञानिक डेविड ब्राउन ने अपने नवीनतम लेख ‘अनयूजुअल एनिमल बिहैवियर एण्ड अर्थक्वेक प्रेडिक्शन्स’ को इंटरनेट में प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने भूकंप आने से पूर्व जीव-जंतुओं के व्यवहारों पर विस्तृत शोध के अनुसार भूकंप आने से पूर्व मधुमक्खी कुत्ता, कौए, कबूतर, मुर्गियाँ, कुछ नस्ल के साँप, मछलियों आदि पर ये प्रभाव परिलक्षित होते हैं। चिड़ियाघरों में घोड़ों, गाय, हिरण, भेड़, बकरी, चूहे आदि के व्यवहारों में भी असामान्यता देखी गयी है। इस अन्वेषण के आधार पर पता चला है कि मधुमक्खियाँ शहद के छत्ते छोड़कर भाग जाती हैं। समुद्र में गहरे तैरने वाली मछलियाँ किराने पर आ जाती हैं। साँप बिल से निकल आते हैं। भूकंप से पहले चुहिया इस सीमा तक आतंकित हो जाती है कि उसे आसानी से पकड़ा जा सकता है। पालतू कबूतर भूकंप की आशंका में अपने घोंसले में देर से पहुँचने लगते हैं। एक चिड़िया तो अपने बच्चों को गला घोटकर मार देती है। कौए भूकंप से पूर्व कबूतर की तरह समूह में काफी ऊँचे उड़ने लगते हैं। कौओं के व्यवहार पर किए गए अपने शोध के लिए बहुचर्चित नवीन खन्ना के अनुसार हर भूकंप से पहले कौए एक स्थान से दूसरे स्थान तक झटके में उड़ते हैं। भूकंप से पूर्व सुअर एक दूसरे को काटने दौड़ते हैं। अमेरिका एवं अन्य देशों के वैज्ञानिकों के मतानुसार पशु-पक्षी भूकंप की भविष्यवाणी करने में मानव निर्मित मशीनों से अधिक संवेदनशील होते हैं। अतः उनका प्रयोग इस प्राकृतिक आपदा से बचाव हेतु किया जा सकता है।
विवेकी इनसान भी ऐसी आपदाओं से स्वयं को बचा सकता है, यदि वह फिर से धरती को माता के समान पूजनीय मानकर - माता पृथ्वी ‘पुत्रोण्हं पृथिव्याँ’ की वैदिक रीति-नीति अपना ले। उसे समुचित संरक्षण एवं सहयोग प्रदान करें तो संभव है कि धरती माता अपने बच्चों की भूकंप रूपी प्रकोप से रक्षा करें। इसके लिए जरूरी है- प्रकृति एवं पर्यावरण को उचित संरक्षण प्रदान करना एवं धरती को फिर से हरियाली की चादर समर्पित करना। इसी मानवी प्रयास से इनसान भूकंप की भीषण त्रासदी से स्वयं को बचा सकता है।