
मृत्युशय्या पर भी जिसने दान-धर्म न छोड़ा
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कौरव शिविर में भारी उदासी छायी हुई थी, जबकि पाँडव शिविर में आनंदोत्सव की तरंगें उमंग रही थी। आज अर्जुन ने कर्ण को पराजित किया था। रक्त और धूल से लथपथ वह महान योद्धा कुरुक्षेत्र में अपनी अंतिम साँसें गिन रहा था और अर्जुन विजयोल्लास के अतिरेक में सोच रहे थे कि आज यदि केशव का आग्रह न रहता तो कर्ण को इतनी आसानी से आहत नहीं किया जा सकता था। सोचते - सोचते एक बार उनका मन ग्लानि से भर उठा। उनकी स्मृति में कुरुक्षेत्र का वह दृश्य सजीव हो उठा।
कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धँस गया था, अतः वह प्रत्यंचा पर चढ़ा हुआ बाण उतारकर रथ से कूद पड़ा। अर्जुन ने यह देखकर कि वह भूमि से पहिया निकालने के प्रयास में मेरी ओर से निश्चित है, अपना बाण तुणीरगत कर लिया था। भला आपदग्रस्त निःशस्त्र शत्रु को कैसे करते वह?
क्यों, रुक क्यों गए? सहसा केशव की तीक्ष्ण दृष्टि उनकी ओर घूमी और वे उनके गंभीर स्वर का मर्म समझकर कुंठित हो रहे।
श्रीकृष्ण ने अश्वों की वल्गा कसकर अपने विशाल वक्ष तक खींच ली, फिर अर्जुन की ओर मुड़कर सभिप्राय स्थिर दृष्टि से ताकने लगे कि वह क्या कहते हैं?
यह तो धरती में धँसा रथ का पहिया निकाल रहा है, कैसे प्रहार करूं?
अर्जुन के इन शब्दों में एक निरीह विवशता थी।
सखे, यही तो अवसर है........ गाण्डीव उठाओ! श्रीकृष्ण व्यस्त भाव से बोले।
अवसर? मधुसूदन! यह तो अधर्म होगा ............... धर्मयुद्ध नहीं, पातक लगेगा? अर्जुन ने कहा ही अंततः।
कैसा पातक? कैसा अधर्म? अर्जुन! यह महाभारत इन दुर्योधनों दुःशासनों के संहार के लिए ही तो चल रहा है। इसमें उनके सहायक-समर्थक कर्ण जैसे योद्धा भी जूझेंगें ही, द्रोण जैसे आचार्य भी नहीं बचे और न भीष्म प्रभृति ऊर्ध्ववर्ती महात्मा- क्योंकि वे सब पापात्मा दुर्योधन के अन्न की दुहाई देते हैं और किसी न किसी रूप में उसके पक्ष में लिपटे रहना चाहते है और जब तक ये सब जीवित हैं, दुर्योधन को कौन मारेगा? अतः अर्जुन तुम इस समय कर्ण का पहिया न देखो, शर संधान करो।
परंतु माधव! मेरा मन नहीं मानता..................।
नहीं मानता? वाह रे ममतालू! आज तुम धर्माधर्म की मीमांसा में बाण उतार बैठे हो परंतु विचार तो करो कि उस दिन जब पाँचाली भरी सभा में नग्न की जा रही थी, तब इस कर्ण का धर्म कहाँ खो गया था।? और जब अकेले अभिमन्यु को छल से निःशस्त्र कर सात-सात महारथी एक साथ प्रहार कर रहे थे तब इसका धर्मविचार कहाँ चला गया था, क्योंकि उस दिन तेरे पुत्रहंताओं में एक यह कर्ण भी तो था?
केशव के शब्दों की धार से अर्जुन का हृदय तिलमिला उठा। उसके समक्ष हृदयबेधी चीत्कारों से कौरव सभा को कंपित करती द्रौपदी की विपन्न मूर्ति साकार हो उठी, फिर आहत अभिमन्यु अपने घावों से अजस्र रक्त बहाता मानों ठीक सामने आकर यह कहता हुआ खड़ा हो गया कि छल से मेरे शस्त्र रखवा लिए इन लोगों ने। कहा- आओ पुत्र हमारे वक्ष से लग जाओ। तुम्हारे जैसा वीर पुत्र पाकर हम फूले नहीं समाते...............
परंतु मेरे शस्त्र रखते ही पितृव्य कर्ण आदि महारथियों ने मुझ पर शस्त्र वर्षा प्रारंभ कर दी........ और तब अर्जुन को लगा कि मानों उसके कानों में किसी ने जलता हुआ सीसा भर दिया। ओह! अभागा मरते-मरते भी वह इन पामरों को पितृव्य (चाचा) कहता गया, परंतु इन्होंने किंचित् न्याय न बरता उसके साथ। उसकी हत्या ही करनी थी तो उसकी अंतिम इच्छा तो पूरी कर देते। बालक था अभी एक बार उसको शस्त्र तो वापस कर देते और अर्जुन के नेत्र अंगार से दहक उठे। हृदय में प्रतिकार की ज्वाला धधक उठी।
खून! खून! उसके रोम-रोम ने माँग की।
रक्त का बदला रक्त! दिशाओं से पुकार उठी। अब रक्त के सिवा कुछ और नहीं! लगा भगवती महाकाली अपना खाली खप्पर लिये नीलगगन में चीत्कार भर रही हैं।
और अर्जुन ने सामने देखा कि कर्ण का पहिया अभी भी भूमि से निकल नहीं पाया है। एक बार फिर से उनकी दृष्टि केशव की नेत्रज्योति से टकराई और उन्होंने उनकी आँखों में पढ़ा कि वे मानो निरंतर कहती जा रही है।
अर्जुन! यही अवसर है, मार दे मार दे.......... और दूसरे ही क्षण गाण्डीव से छूटे बाणों से विद्व कर्ण धराशायी हो गया। पाँडव सेना विजयानंद कर उठी। कौरवों के विकृत स्याह पड़ गए।
वही कर्ण आज लाशों से पटे कुरुक्षेत्र में मरणासन्न पड़ा था, भला उससे अर्जुन को सहानुभूति क्यों हो?
सोचते -सोचते क्षणिक ग्लानि के स्थान पर अपरिमित आक्रोश उभर आया।
भीम, सहदेवादि पाँडव आनंदोत्सव मना रहे थे, परंतु जब अर्जुन केशव के शिविर में गये तो पाया कि वे प्रसन्न नहीं है। किसी कारण से उनकी मुखश्री म्लान दिख रही है। दृढ़बद्ध ओष्ठपुट शुष्क हैं और तेजपूर्ण आयत नेत्रों में विषाद की छाया गाढ़ी हो उठी है।
जनार्दन! आज के दिन आप आनंदित क्यों नहीं?
हाँ पार्थ! मैं सत्य ही प्रसन्न नहीं हो पा रहा ......................।
कारण मधुसूदन? अर्जुन को आश्चर्य हुआ उनका शिथिल स्वर सुनकर।
देश का एक महादानी शीघ्र ही संसार से उठ जाएगा ................।
ओह कर्ण की बात कहते हैं। ऐसी क्या विशेषता है उसमें? संपन्न भारत मही में एक से एक दानवीर पड़ें हैं .................।
चलो अर्जुन! बिना अपनी आँखों से देखे तुम्हें जीवन भर इसका विश्वास न होगा ............।
और छद्मवेश में कुरुक्षेत्र की ओर बढ़े।
संध्या की उदास छाया धरती पर उतर आयी थी। पक्षी घर लौट रहे थे। और श्वान - शूकरादि जंतु मानव-कंकालों से उलझे पड़े थे। कोई किसी लाश से पूरी अँतड़ी खींचकर खाने में तन्मय था तो किसी मुण्ड की आँख नोंचने में संलग्न था।
अनेक घायलों और लाशों के बची महायोद्धा कर्ण आहत पड़ा था। बाणों से उसका संपूर्ण शरीर छिन्न-विच्छिन्न हो रहा था। कई स्थानों से माँस कटकर इधर-उधर छितर रहा था। मुख पर भी रक्त जमकर काला पड़ गया था। पैरों से वह खड़ा नहीं हो सकता था- एक हाथ भी बेकार हो गया था। उसका स्वर्ण शिरस्त्राण रक्त में डूबा पड़ा था। छद्मवेशी कृष्ण और अर्जुन धीरे-धीरे चलकर उनके निकट पहुँचे।
सद्विदों को मेरा प्रणाम स्वीकार हो। आगतों को देखते ही कर्ण व्यग्र हो उठा था। परंतु अपनी विवश व्यग्रता में केवल वह अपना एक हाथ उठाकर और थोड़ा-सा हिल–डुलकर ही रह गया था। उसकी मुखाकृति से भास हुआ कि खड़े होकर स्वागत न कर पाने का क्षोभ व्यथा बनकर उसके रक्तरंजित मुख पर छा गया है।
उसका विनय अर्जुन को आज जाने क्यों अद्भुत लगा, नितांत नवीन। तो इतना विनयी था यह, वह सोचने लगा।
क्या सेवा करूं इस युद्धभूमि में इस श्मशान में, आप आज्ञा दें कि मरते-मरते भी यह कर्ण आनंदित होता चले ........................।
कुछ नहीं तुम कष्ट न करो। संकट में हो ..................... हम कुछ नहीं चाहते और कृष्णरूपी विप्र ने ऐसा भाव दिखाया कि मानों वे आए तो भिक्षा के लिए ही थे, परंतु कर्ण की दशा देखकर वे वैसे ही वापस जा रहे हैं।
आगतों ने एक पग प्रत्यावर्तन के लिए बढ़ाया ही था कि कर्ण विचलित हो उठा। एक व्यथासिक्त स्वर गूंजा -
ठहरिये, इस प्रकार खाली हाथ वापस न जाइये .............कहकर वह घिसटकर एक पत्थर के टुकड़े के निकट पहुँचा और उस पत्थर से अपने आगे के दो स्वर्ण मंडित दाँत तोड़ डाले। फिर उनका स्वर्ण निकालकर हथेली में रखकर भाव गद्गद् स्वर में बोला-
भगवन्! इस स्वर्ण को स्वीकार करें और अपने इस सेवक को यह संतोष-लाभ प्रदान करें कि जीवन की इस अंतिम बेला में कर्ण, की जीवन संया में उसके सामने से आप खाली हाथ नहीं लौट सके।
लाओ कर्ण! तुम्हारा यह इतना-सा स्वर्ण दान, तुम्हारी परोपकारवृत्ति आने वाले समय में युगों-युगों तक सराही जाएगी, बड़े-बड़े दानी तुमसे ईर्ष्या करेंगे, इतिहास की धरोहर बन जाएगा तुम्हारा यह दान ...................।
और अर्जुन ने देखा कि गीतागायक जगद्गुरु कृष्ण का धीर-गंभीर स्वर भारी हो उठा है, जैसे उनके कंठ में कहीं कुछ अटक रहा हो और आनंद-पुलकित कर्ण के नेत्रों में इस क्षण जो आँसू छलछला आए थे, वे यथोचित दान न दे सकने की विवशता के भले रहे हों परंतु उनमें गहरा आत्मसंतोष था, दानवृत्ति का परमसंतोष।