
परम पावन चिरपुरातन गुरु-शिष्य परंपरा
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भारतीय संस्कृति का सबसे उत्तम व उज्ज्वल पक्ष है - गुरु-शिष्य के पारस्परिक संबंधों पर आधारित एक भावना प्रधान संस्था का रूप लिए ऐसी परंपरा, जिसने इस माध्यम से ही भारत को जगद्गुरु के रूप में स्थापित कर दिया। ये उपनिषद् ही थे, जिनमें एक ज्ञानी गुरु के समीप बैठकर जिज्ञासु शिष्य ने प्रतिपादन सुने व उन्हें क्रमबद्ध कर एक विलक्षण धरोहर का रूप दे दिया। उप+निषद शब्द से ही भासित होता है- पास बैठकर श्रवण करना - आत्मसात् करना। यम-नचिकेता के पारस्परिक संवादों के रूप में कठोपनिषद् की बल्लियों में पंचाग्नि विद्या की व्याख्या तो आती है किंतु यह गुरु-शिष्य परंपरा का एक विलक्षण उदाहरण है। "तत्त्वमसि श्वेतकेतो” - (तू ही वह चिदानंद ब्रह्म है, हे श्वेतकेतु) के माध्यम से आरुणी श्वेतकेतु के रूप में जीवनविद्या की व्याख्या करने, अज्ञान के आवरण को हटाने वाली गुरु परंपरा हमारे समक्ष आती है। हमारी संस्कृति की इस आदिकाल से चली आ रही परंपरा के बार-बार नमन करने का मन करता है क्योंकि इसी ने अध्यात्म तत्त्वज्ञान को दो आत्माओं के बीच परम पावन संबंधों के अस्तित्व को एवं देवसंस्कृति के उज्ज्वल भविष्य लाने वाली भवितव्यता को जीवित रखा है।
गुरुपूर्णिमा-व्यास पूर्णिमा के पावन प्रसंग पर जब हम गहन चिंतन इस पर्व के विषय में करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हमारी साँस्कृतिक विरासत के रूप में परमसत्ता के अनुदान के रूप में अपनी श्रद्धा आस्था को परिमार्जित कर आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ाने वाला त्योहार है यह। ‘गुरु बिन ज्ञान नहीं रे - नहीं रे’ गीत के माध्यम से जब यह पंक्ति कही जाती है - गुरु बिन जीवन ऐसा होता, जैसे प्राण नहीं रे, नहीं रे’ तो आभास होता है कि गुरु का सान्निध्य पाना - उनके आर्षवचन, सूक्ष्म संरक्षण को पाना कितना विलक्षण सौभाग्य है। आदिकाल से ही भारतवर्ष में यह परंपरा चली आयी है कि गुरु अपने ज्ञान द्वारा उचित पात्र समझे गए शिष्य पर पड़े अज्ञान-अविद्या के पर्दे को हटाएँ व उसका उँगली पकड़कर मार्गदर्शन करें। अज्ञान के अंधकार से ज्ञान का अंजन उसकी आँखों में लगाकर शिष्यों को जीवनमुक्त करें, यह दायित्व गुरु को ही सौंपा गया। जीवनविद्या के लुप्त होते चले जाने की आज की स्थिति में इस गुरु-शिष्य परंपरा के पुनः प्रतिष्ठित किए जाने की कितनी आवश्यकता है, इसे कोई भी समझ सकता है। जीवन मूल्यों के पतन से यदि आज कोई साँस्कृतिक व्यवस्था रोक सकती है, तो वह है समर्पण योग पर टिकी गुरु-शिष्य परंपरा।
गुरु कौन हो, कैसा हो, क्या उसकी विशेषताएँ हो, इस पर हमारे शास्त्र कहते हैं कि गुरु “ विशारद ब्रह्मनिष्ठं, श्रोत्रिय” होना चाहिए। श्रुतियों का शब्दब्रह्म ज्ञाता-निष्णात उनके तत्व को समझने वाला, आचरण की दृष्टि से श्रेष्ठ ब्राह्मण - ब्रह्म में निवास करने वाला तथा विशारद अर्थात् जो शिष्य को अपने संरक्षण में लेकर शक्तिपात करने की सामर्थ्य रखता हो, उसे ही सही अर्थों में गुरु मानना चाहिए। संत ज्ञानेश्वर ने गीता की भावार्थ दीपिका में लिखा है कि गुरु की दृष्टि जिस पर पड़ती है, वह होने को चाहे जीव हो, पर बराबरी महेश्वर श्री शिवशंकर की करने योग्य बन जाता है। आद्य शंकराचार्य ने गुरु को ऐसा पारस कहा है जो न केवल शिष्य को अपना निज का साम्य रूप व शक्ति दे देते हैं, उसे भी पारस समान बना देते हैं, ताकि वह जिस अनपढ़ लौह-खंड रूपी मनुष्य को स्पर्श करे-उसे सोना बना दे।
गुरु-शिष्य संबंध उच्चस्तरीय आध्यात्मिक संबंधों में माने गये हैं, जिनमें बड़ी पवित्रता है- निश्चलता है एवं समर्पण की पराकाष्ठा है। शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आत्मिक इन चार संबंधों में से मात्र अंतिम आत्मिक संबंध गुरु-शिष्य स्तर पर ही निभता है। गुरु की विशिष्टता क्या हो- सद्गुरु की पहचान कैसे हो- इसके बाद शिष्य कैसा हो, यह जानना भी जरूरी है। शिष्य के विषय में श्रुति कहती है कि उसे हाथ में समिधा लेकर विनम्र भाव से श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु ज्ञान रूपी विराट ज्योति के प्रतीक सद्गुरु के पास जाकर उनसे ज्ञान की याचना करनी चाहिए। समिधा चूँकि अग्नि पकड़ती है - प्रज्ज्वलनशील है- उसे भी स्वयं के कषाय-कल्मषों को जलाने के लिए अग्नि के पास जाने हेतु तत्पर रहना चाहिए। जिसने अपनी अहंकार रूपी सीलन मिटा दी, उसकी अग्नि धुँआ नहीं देगी-चमकीली ऊँची उठने वाली लौ रूप में ही निकलेगी। तप द्वारा जो स्वयं को सच्चा ब्राह्मण बना ले- वही सही रूप में समिधा लेकर गुरु के सान्निध्य में बैठने वाला उनकी अनुकंपा का पात्र बन सकता है।
मानवी चेतना का मर्मज्ञ गुरु शिष्य के चैतन्य जगत में भारी उलट फेर करने की शक्ति रखता है। समष्टि के हित के लिए एक सीधी नियुक्ति के रूप में परमात्मा का प्रतिनिधि बनकर गुरु आता है। एवं सच्चे शिष्यों को ढूँढ़कर उनका भली-भाँति परीक्षण कर, उन्हें शक्ति दे, उनमें संस्कृति के उत्कर्ष का कार्य करा, अपने दायित्व की पूर्ति करता है। ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस जो शिव-शक्ति के अवतार थे, ऐसे ही उद्देश्य को लेकर धरती पर आए थे। उनको अनेकानेक व्यक्ति मिले, साधक-जिज्ञासु मिले किंतु सच्चा शिष्य उनने पाया- नरेंद्रनाथ में। दर्शनशास्त्र में निष्णात, पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से नास्तिक बने नरेंद्रनाथ के अंदर प्रसुप्त पड़े संस्कार को पहचाना ठाकुर ने। सप्तर्षियों में से एक सत्ता किसी उद्देश्य विशेष को लेकर अवतरित हुई है, यह आभास ठाकुर को हो चुका था व उनने कुम्हार की तरह गढ़ा नरेंद्रनाथ को, जो कई नाम बदलने के बाद विवेकानंद बने, शीर्ष स्थान पर पहुँचे एवं सारे विश्व में भारतीय संस्कृति की पताका फहराने में सफल हुए। स्वयं विवेकानंद कहा करते थे - मैं क्या करके जा रहा हूँ - यह काश कोई मेरे स्तर का व्यक्ति होता तो जान पाता व सबको बता पाता।” यह गुरु-शिष्य का उदाहरण तो विश्व-विख्यात है। न जाने कितनी समीक्षा पाकर जीवनियाँ संस्मरण इस गुरु शिष्य जोड़े पर लिखी जा चुकी है। बड़ा ही विलक्षण यह वृत्तांत है व विगत एक शतक से अगणितों को अध्यात्म क्षेत्र में प्रेरणा का संचार करता रहा है।
देखें तो विरजानंदजी के शिष्य मूलशंकर जो महर्षि दयानंद बने, इसी ऐतिहासिक परम्परा के अंतर्गत आते हैं। उनके माध्यम से ही आर्यसमाज की आधारशिला रखी गयी। वैदिक धर्म संस्कृति के प्रसार-समाज−सुधार की रचनात्मक धाराओं का विस्तार महर्षि के माध्यम से ही संपन्न हो पाया। इसी परंपरा में जिनके नाम आते हैं। वे हैं-जनार्दन पंत के शिष्य एकनाथ, निवृत्तिनाथ के शिष्य ज्ञानेश्वर गोविंदपाद के शिष्य आद्य शंकराचार्य, कालूराम के शिष्य कीनाराम, भगीरथ स्वामी के शिष्य तैलंग स्वामी, प्राणनाथ महाप्रभु के शिष्य छत्रसाल, समर्थ रामदास के शिष्य शिवाजी राव, चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त, दादू के शिष्य रज्जब, पतंजलि के शिष्य पुष्पमित्र तथा विशुद्धानंद जी के शिष्य गोपीनाथ कविराज। ये कई उदाहरणों में से कुछ हैं, नहीं तो यह परंपरा तो बड़ी लंबी सूची में आएगी।
श्रद्धा की व्याख्या देवसंस्कृति के निर्धारणों में बड़ी तर्क सम्मत आती है। बिखरे मन को - चित्तवृत्तियों को समेटकर मन को एकाग्र बना लेना सर्वांगपूर्ण भाव से महानता की ओर मोड़ लेना ही हमारी संस्कृति के अनुसार श्रद्धा है। इस प्रक्रिया को आज का विज्ञान ‘इंटीग्रेटेड माइन्ड के रूप में प्रतिपादित करता है। इसी के माध्यम से उस समर्पण-विसर्जन विलय -तादात्म्य के विषय में कहा जाता है-जो शिष्य से गुरु के प्रति अपेक्षित है। इसी को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता (8-12) में इस प्रकार कहा है -
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवासिष्यसि मय्येव, अत ऊर्ध्वं न संशयः॥
अर्थात् हे अर्जुन! तुम मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा। इसके उपरांत तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ संशय नहीं है। जो भी गुरुसत्ता के चरणों में, उनके आदर्शों के प्रति समर्पित हो अपने मन व बुद्धि को लगा देता है, संशयों को मन से निकाल देता है, उसके जीवन की दिशाधारा ही बदल जाती है। उसका आध्यात्मिक कायाकल्प हो जाता है। जो देवत्व के अनुरूप न हो, वह किसी भी समर्पित शिष्य को सोचना भी नहीं चाहिए। इसी बात को श्री अरविंद ने कहा है- डू नथिंग ट्राय टु डू नथिंग व्हिच इज अनवर्दी टु डिवाइन।
आज गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व (28 जुलाई) पर हम सब यही चिंतन करें कि एक अच्छे शिष्य के नाते हमारे अपने समर्पण में कही कोई कमी तो नहीं। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं परम वंदनीया माता भगवती देवी जी ने बीज बोने एवं खाद-पानी जुटाने की व्यवस्था की। जिनकी अन्तर्भूमि में थोड़ी भी उर्वरता-सुसंस्कारिता थी, उन्हें अवसर मिला उनके अगाध स्नेह व साधना अनुदान पाने का। यह पर्व उन सभी शिष्यों के लिए आत्मचिंतन का पर्व है। इस शताब्दी की अंतिम गुरुपूर्णिमा, व्यास-पूर्णिमा पर हम सभी शपथ लें कि अपनी गुरुसत्ता की जन्म शताब्दी (2010-11) तक बिना कोई विकार मन में लाए बिना किसी विराम के अपनी श्रद्धा शाँतिकुँज के प्रति-आराध्य सत्ता के प्रति तनिक भी कम न होने देंगे। न किसी की होने देंगे, उज्ज्वल भविष्य लाने को उतारू महाकाल की सत्ता हमारी गुरुदक्षिणा के बदले हमें क्या कुछ नहीं देती रही है व क्योंकर नहीं देगी, यह विश्वास तो सभी को होना ही चाहिए।