
संयम, नियम और श्रम (Kahani)
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आयुर्वेद के प्रणेता महर्षि चरक जब सब प्रकार की चिकित्सा पद्धति एवं औषधियों के निर्माण तथा सेवन विधि का विधान बना चुके तो उनके मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि मेरे द्वारा निर्मित औषधियों के विधान से जनता किस प्रकार लाभान्वित हो रही है, देखना चाहिए। वे साधारण ग्रामीण किसान का वेश बनाकर एक गाँव में पहुँचे जहाँ वैध्य निवास करते थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने प्रश्न किया कि ऐसा कौन है जो रोगी नहीं होता? वैध्य ने उत्तर दिया- जो च्यवनप्राश का सेवन करता है। दूसरा बोला- चन्द्र-प्रभावटी खाने वाला सदा निरोग रहता है। तीसरा बोला- स्वर्णभस्म से किसी प्रकार का रोग नहीं होता। चौथा बोला लवणभास्कर चूर्ण सभी उदर विकारों में उपयोगी है। चारों की बात सुनकर चरक के मन में बहुत विक्षोभ उत्पन्न हुआ कि इस प्रकार औषधियों के बिना तो ये लोग स्वस्थ तो क्या जीवित भी न रह सकेंगे।
औषधि विज्ञान के निर्माण के पीछे यह मंतव्य कदापि नहीं था कि स्वस्थ रहने के लिए मानवजाति के लिए औषधि नितांत आवश्यक है। संयोग की बात उधर से एक ऋषि निकले। उन्होंने स्वस्थ रहने के लिए संयम तथा मिताहार और परिश्रम की बात कही। तब चरक ने अपना परिचय बतलाते हुए कहा कि आप ठीक ही कहते हैं। औषधियाँ तो रोग के लिए हैं। स्वस्थ रहने के लिए संयम, नियम और श्रम की अती आवश्यकता है।