
प्रेम एक रसायन, गज़ब है इसका नशा।
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प्रेम आनंद की अभिव्यक्ति है। प्रेम ही जीवन का यथार्थ नियामक है। जीवन और जगत का विकास इसी आधार पर संभव हो सका है। हर क्षेत्र में इसकी विशिष्टता को स्वीकारा एवं अनुभव किया जाता है। धर्म, विज्ञान मनोविज्ञान, एवं समाजशास्त्र आदि के सभी विशेषज्ञों ने प्रेम को अपने अनुरूप परिभाषित किया है। एक ओर जहाँ अध्यात्मवेत्ताओं ने प्रेम को भावना, संवेदना एवं करुणा का विकास माना है तो वही दूसरी ओर वैज्ञानिकों ने इसे जैविक रसायन का अद्भुत चमत्कार कहा है। जो भी हो, प्रेम मानव-जीवन का अनिवार्य एवं अपरिहार्य अंग तो है ही।
मेधा एवं भावना के शीर्षासन युगपुरुष स्वामी विवेकानन्द ने प्रेम तत्व की इस तरह अभिव्यक्ति दी है- “ वह कौन-सी वस्तु है, जो अणुओं को लाकर अणुओं से मिलाती है, परमाणुओं को परमाणुओं से मिलाती है। बड़े बड़े ग्रहों को आपस में एक दूसरे की ओर आकृष्ट करती है। पुरुष को स्त्री की ओर, स्त्री को पुरुष की ओर, मनुष्य को मनुष्य की ओर, पशुओं को पशुओं की ओर, मानो समस्त संसार को एक केन्द्र की ओर, खींचती हो। यह वही वस्तु है, जिसे प्रेम कहते है। प्रेम से बढ़कर सुख या आनंद की कल्पना नहीं की जा सकती है।
पर इस प्रेम का शब्द अर्थ भिन्न है। प्रेम शब्द यथार्थ अर्थ समझना बहुत कठिन है। इसका अर्थ संसार का साधारण स्वार्थमय प्रेम नहीं है। जो भावना पूर्णतया निस्वार्थ हो वही प्रेम है। उसे दैवीय भावना की भी संज्ञा दी जा सकती है। प्रेम में सदैव आदर्श का चरमोत्कर्ष है। जब कोई सौदागरी छोड़ देता है और समस्त भय को दूर भगा देता है, तब वह ऐसा अनुभव करने लगता है कि प्रेम सर्वमान्य आदर्श है। प्रेम मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद नहीं उत्पन्न करता। समग्र विश्व को प्रेम अपने घर जैसा बना लेता है। प्रेम अपने घर जैसा बना लेता है। प्रेम में किसी प्रकार का भय नहीं रहता है। प्रेम ही जीवन है। यही जीवन का एक मात्र नियम है। जिसमें प्रेम नहीं है वह जी भी नहीं सकता। शुद्ध प्रेम का कोई उद्देश्य नहीं होता,। उसका कोई स्वार्थ नहीं होता। जहाँ प्रेम है वही विस्तार है। और जहाँ स्वार्थ है वही संकोच है। अतः यह सुनिश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि प्रेम ही जीवन का सर्वोच्च विधान है। जो प्रेम करता है वही जीवित है जो स्वार्थी है वही मृतक है। अतः प्रेम-प्रेम के निमित्त है, क्योंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसे जीवन के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम-निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है।
प्रेम से अलौकिक शक्ति मिलती है। प्रेम से भक्ति उत्पन्न होती है। प्रेम ही ज्ञानदाता है और प्रेम ही मुक्ति की ओर ले जाता है यही निश्चय ही उपासना है इसे कुछ यूँ भी कह सकते हैं कि प्रेम क्षणभंगुर मानवीय शरीर में ईश्वर की उपासना है प्रेम की अवस्था को प्राप्त करना ही सिद्धावस्था है प्रेम कभी निष्फल नहीं होता। प्रेम का पुरस्कार स्वयं प्रेम ही है, कुछ और नहीं। यही वह तत्व है जो यही वह अमृत का प्याला है, जिसे पीने से इस संचार रूपी व्याधि का नाश हो जाता है। मनुष्य ईश्वरोन्मुखी हो जाता है और 'मैं मनुष्य हूँ’ यह तक भूल जाता है। प्रेम कोई पुरस्कार नहीं चाहता। प्रेम सर्वदा प्रेम के लिए होता है। भक्त इसलिये प्रेम करता, है क्योंकि वह बिना प्रेम किए रह नहीं सकता। प्रेम प्रश्न नहीं करता। वह भिखारी नहीं होता। प्रेम पहला चिन्ह है, कुछ न माँगना और सर्वस्य अर्पित करना। यह है सभी तरह की अध्यात्मिक उपासनाओं का सारभूत तत्व। श्री अरविन्द ने अपनी बँगला रचना ’वासवदता’ में कहा है, “प्रतिदान न होने पर भी प्रेम तो स्वयं ही पर्याप्त मधुर है। “ ब्रह्मलीन मनीषी स्वामी शिवानन्द का कहना है, “ प्रेम ही विश्व को रूपांतरित करने में सक्षम है।” इसीलिए शिरडी के महान संत साँई बाबा ने प्रेम का प्रतीक बनने के लिए प्रेरित किया है। संत तरुवर के अनुसार प्रेम पुष्प से भी कही अधिक मृदुल व कोमल होता है। दूसरी ओर खलील-जिब्रान ने अपना अनुभव कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है। जीवन दो चीजों का नाम है, एक जमी हुई नदी और दूसरी धधकती हुई ज्वाला। धधकती हुयी ज्वाला ही प्रेम है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा- प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह हमेशा ही देता रहता है। प्रेम हमेशा ही कष्ट सहता है। न कभी झुँझलाता है, न बदला लेता है। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के मतानुसार जो आदमी मृत्यु को जीत सकता है। या जीत लेता है। वही प्रेम को मस्तक पर धारण कर लेता है। प्रेम का नाम है, जीवन विसर्जन की आकांक्षा। शिरा-शिरा में रक्त के प्रत्येक कण में, हड्डी-हड्डी में जो दिन-रात विचरण करता रहा है, वही प्रेम। प्रेम कर्कश में परिवर्तित कर देता है। पापी को पुण्यवान बनाता है, और अंधकार को ज्योतिर्मय कर देता है।
प्रख्यात कवि जय शंकर प्रसाद ने प्रेम को मानव हृदय की मौलिक भावना कहा है। उनके अनुसार प्रेम शिशु से सरल हृदयों में निवास करने वाला तत्व है। प्राकृतिक चेतना को अपनी अन्तश्चेतना से तदाकार करने वाले महान कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने उल्लेख किया है कि प्रेम ही मानव जीवन सार है। अंग्रेज कवि शेली की मान्यता है कि प्रेम तो सदा ही मधुर होता है। चाहे दिया जाये चाहे लिया जाये। प्रेम तो प्रकाश के सामने सर्वविद् है। उसका परिचय स्वर कभी उबाने वाला नहीं होता है। एक अन्य आँग्ल कवि विलियम ब्लैक ने प्रेम की भावाभिव्यक्ति इस प्रकार दी है। प्रेम अपनी प्रसन्नता को लक्ष्य नहीं बनाता है और न ही अपनी कोई चिंता करता है। अपितु दूसरों को सुख देता है तथा नरक के नैराश्य में भी
स्वर्ग की रचना कर लेता है। जॉन डाँन ने प्रेम को अनश्वर माना है। तो एलबर्ट हव्बार्ड ने प्रेम को शक्ति वर्धक औषधि घोषित किया है। मानव कभी लाँगफेलो के अनुसार प्रेम स्वयं समर्पण करता है। उसे खरीदा नहीं जाता है।
प्रेम मानवीय अन्तःकरण की सतत् विकासशील अवस्था है। इसकी पहली लहर भावुकता के रूप में देखी जा सकती है जो अपने विकास के दौरान करुणा की नदी बनाकर प्रेम की महासागर में विलीन हो जाती है। भावुकता में आत्मा की कसक भरी पुकार उभरती और विलीन होती रहती है लेकिन संवेदना बनकर इस स्थायित्व मिल जाता है। संवेदना, भावुकता की विकसित अवस्था है। इसकी पहचान है -संकीर्णता बिखरी और 'मैं पन’ खो गया है। संवेदनशीलता विकसित स्वरूप है। भावना। कसक के स्थायित्व के साथ इसमें एक नयी चीज आती है। संबंधों का शारीरिक धरातल से ऊपर उठकर जीवात्मा से स्तर पर विकसित हो जाना जो भावना बनकर पनपती है और कृतज्ञता बनकर पनपती है कृतज्ञता बनकर उफनती है। भावना का विस्तार समष्टि में हो जाता है तब वह करुणा में बदल जाती है। यह आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना का प्रकाश है। करुणा जब अपनी व्यापकता में सघन शान्ति अविराम प्रसन्नता एवं गहरी एकात्मकता को जन्म देती है। जब उसे प्रेम करते है प्रेम का विकास भाव विकास का चरमोत्कर्ष है। अब तक इस प्रेम रस का रसास्वादन राधा, चैतन्य एवं रामकृष्ण ही कर पाये है। पश्चात् दृष्टिकोण इतना व्यापक एवं गहन नहीं है। फिर भी उन्होंने इस अद्भुत एवं अनिवार्य रहस्य को स्वीकारा है। ‘एनोटॉमी ऑफ लग’ के प्रसिद्ध लेखक एलन फिसर के अनुसार प्रेम मानवीय विकास का महत्वपूर्ण तत्व है। इसके द्वारा मनुष्य अपनी आंतरिक भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है। 15 फरवरी 1913 की टाइम’ पत्रिका में 'व्हाट इज लव’ शीर्षक से छपे एक लेख में प्रेम को सुन्दर-सुकोमल एवं सृजनशील तत्व के रूप में दर्शाया गया है। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार यह अनुवांशिक लक्षणों को भी परिवर्तित कर सकता है। साइको बायोलॉजिस्ट वाल्स का कहना है कि प्रेम का उद्गम मानव जाति के जन्म के साथ ही हुआ है। इनके अनुसार प्रेम विचारों की अपेक्षा भावना को अधिक महत्व देता है। हर व्यक्ति प्रेम की चाहत रखता है और प्रत्युत्तर में इसी की आकांक्षा रखता है। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक मार्कगोलस्टन ने स्पष्ट कहा है कि प्रेम की परिपक्वता व्यक्ति को उसके विकास के चरम शिखर तक पहुँचा देती है। क्योंकि वह मन की सुनहली कल्पनाओं के साथ यथार्थ जीवन की कठोरता को भी देखता है।
एंथोनीवाल्स ने अपनी विख्यात कृति ‘द साइंस ऑफ लव’ में नहे और प्यार के दौरान शारीरिक हार्मोनों की क्रियाविधि एवं उसके संचालन व नियमन का उल्लेख किया है। इनके अनुसार प्रेमभाव का संचालन मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस भाँग से होता है। हाइपोथेलेमस भाँग से होता है। हाइपोथेलेमस प्रेमजन्य समस्त इच्छाओं एवं अभिरुचियों का केन्द्र माना जाता है। जब व्यक्ति किसी से प्रेम करता है। या आकर्षित होता है, तो उस समय मन एवं हृदय उल्लास तथा उत्साह से भर उठता है। इसी समय शरीर में डोपामीन नारएपीनेफ्रीन तथा फिनाइल एथिलामइन का साव बढ़ जाता है। प्रेम की आकुलता-विकलता की तीव्रता के साथ फिनायल एथिलामाइन का उत्सर्जन बढ़ता है। इससे मस्तिष्क जागरूक एवं शरीर क्रियाशील हो उठता है। व्यक्ति असामान्य भाव प्रदर्शित करने लगता है। वैज्ञानिक इसे उन्माद या पागलपन नहीं मानते वरन् इन रसायनों का चमत्कार मानते है। फिनायल एथिलामाइन का उत्सर्जन बढ़ता है इससे मस्तिष्क जागरूक एवं शरीर क्रियाशील हो उठता है। व्यक्ति असामान्य भाव प्रदर्शित करने लगता है। वैज्ञानिक इसे उन्माद या पागलपन नहीं मानते वरन् इन रसायनों का चमत्कार मानते है। फिनाइल एथिलामाइन स्नेह और प्यार की अभिव्यक्ति में वृद्धि करता है। यह प्रक्रिया दीर्घावधि तक बने रहने पर शरीर में स्वाभाविक रूप से एम्टामइन जैसे डोपामीन एवं नारएपीनेफ्रीन नाम हारमोन्स का उत्सर्जन होने लगता है। जीवन प्रसन्नता एवं आनन्द से आप्लावित रहता है।
पीयूष ग्रन्थि भी इसमें अपना इसमें अपना योगदान प्रस्तुत करती है। यह एड्रीनल ग्रंथि को उत्तेजित कर देती है। इसके फलस्वरूप दिल की धड़कन बढ़ जाती है तथा रक्त संचार में तीव्रता बढ़ जाती है। नाड़ी की गति सामान्य गति 70 से से बढ़कर 100 धड़कन प्रति मिनट हो जाती है। इस अवस्था में नसों के किनारे एंडार्फिन नामक रसायन का स्राव प्रारंभ हो जाता है। जो समस्त त्वचा में फैलकर उसे अत्यंत संवेदनशील कर देता है। शारीरिक सौंदर्य में अभिवृद्धि होती है। टेक्सास विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्राध्यापक लारी किसटन्सन ने स्पष्ट किया है कि प्रेमी को भूख कम लगती है, इनके अनुसार प्रेमी के शरीर में एडे्रेनेलीन हार्मोन का स्तर ऊँचा रहता है। यही भूख कम करने के लिए जिम्मेदार है। मनोविज्ञानियों के अनुसार अति प्रसन्नता एवं किसी व्यक्ति से प्रेम भावना घनीभूत हो जाने से भी भूख कम लगती है- ‘मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी अमेरिका’ के एक वैज्ञानिक डॉ. जुडिथ बर्टमान ने कहा है कि कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन मस्तिष्क को सेरेटोनिन बनाने के लिये उत्प्रेरित करता है। आधा घंटे पश्चात् भोजन को पचने की अवस्था में यह रसायन तनाव दूर कर मन को शाँत एवं प्रफुल्ल रखता है। भावनात्मक रूप से अशाँत व्यक्ति या सामान्य व्यक्ति आवश्यकता से अधिक भोजन करता है। इस कारण ऐसे लोग ज्यादा मोटे होते है। प्रेम भावनात्मक पोषण प्रदान करने है। इसलिए जुडिथ के अनुसार प्रेमी युगल अपेक्षाकृत कम मोटे होते है। जो भी हो प्रेम एक अद्भुत रसायन का नाम है। यह एक ऐसा नशा है जिसे पी लेने के बाद मनुष्य सब कुछ भूल जाता है केवल वह इष्ट रूपी प्रेमी को याद करता है।
प्रेम की क्षमता अपरिमित एवं शक्ति असीम होती है। प्रेम का यह प्रभाव 17 वीं शताब्दी में तुलिपामानिया नामक हालैंड की एक जनजाति में देख गया। यह पूरी जाति अपने कर्तव्य, व्यवसाय एवं परिवार से असीम प्रेम करती थी। इस जाति का प्रत्येक व्यक्ति अटूट निष्ठावान् एवं शांतिप्रियता के रूप में जाना जाता था। इसी परिप्रेक्ष्य में नेवदा यूनिवर्सिटी के तूलेन विश्वविद्यालय के लास वेगास एवं एडवर्ड फिशन ने एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण के अनुसार 166 जातियों में से 147 जातियों की संस्कृति में प्रेम, दया व सद्भाव का परिवेश पाया गया। इन 147 जातियों की सभ्यता व संस्कृति स्नेह, प्रेम एवं सेवा पर आधारित होने के कारण इनका विकास अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक हुआ। इन लोगों में त्याग की भावना अधिक बलवती होती है। जो प्रेम का ही एक लक्षण है। प्रेम चाहे किसी व्यक्ति से हो या समाज से, यह अपना जादुई प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहता जिसकी परिणति समृद्धि शाँति एवं आत्मशान्ति के रूप में होती है।
प्रेम का यह भाव यदि वस्तु व्यक्ति से ऊपर उठकर प्रभु समर्पित हो तो वह अनंत, असीम और अनिवर्चनीय हो जाता है। प्रेम आत्मा की आवाज है, एक कसक है, उसे सतत् अपने इष्ट व लक्ष्य के प्रति एकाकार एवं तदाकार कर देगा चाहिए प्रेम के इन महनीय भावों से युक्त ओत−प्रोत, ऐसा जीवन ही सार्थक है, धन्य है।