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Magazine - Year 1999 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मातृवाणी - एक मसीहा, राष्ट्रकवि, संत व सच्चे ब्राह्मण हमारे गुरुदेव

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दिनाँक 13/3/90 परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के दस दिन बाद परम वंदनीया माताजी प्रवचन

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

हमारे आत्मीय परिजनों! आज से अस्सी वर्ष पूर्व एक मसीहा आया और वह हमें राह बतलाता हुआ चला गया, दिशा बतलाता हुआ चला गया, दिशा बतलाता हुआ चला गया उसने आवाज लगायी-ऐ दुनिया वालों! मरी आवाज को सुनने का तो जरा प्रयास करो। ऐ दुनिया वालो! मेरी आवाज को तो जरा अपने हृदय में धारण करो। यह वह पथ है जिस पर मैं चल रहा हूँ। यह दो हाथ से देता है तथा हजार हाथ से लेता है” उस मसीहा ने आवाज लगाकर कहा, घर घर जाकर कहा। हर व्यक्ति की ठोड़ी में हाथ लगाकर कहा। जो भी वह कर सकता था, उसने किया। कोई व्यक्ति दस बार भी जन्म ले ले तो भी अकेले इतना कार्य नहीं कर सकता है, जितना कि एक मसीहा ने अपनी एक जिंदगी में करके दिखा दिया। भगवान के प्रति, इष्ट के प्रति, आराध्य के प्रति, मार्गदर्शक के प्रति, गुरु के प्रति जिस व्यक्ति की श्रद्धा होती है, वह उसे आगे बढ़ाता हुआ चला जाता है। उसका विकास करता हुआ चला जाता है।

उस मसीहा के जो अस्सी ब्रह्म-कमल खिले, उसका प्रत्येक वर्ष बड़ा ही खुशबूदार तथा शानदार रहा है। वह सबको राह दिखाता हुआ, पुष्प बाँटता हुआ चला गया। उसने कहा कि ऐ दुनिया वालो! कभी तुमको पछताना पड़ेगा कि एक मसीहा आया था। उसने हमें अच्छी बातें बताने और अच्छी दिशाएँ देने का प्रयास किया था, परंतु हमारा दुर्भाग्य था कि हमने अपने कानों को बंद करके रखा था। हृदय के कपाट को बंद करके रखा था। स्वाँग तो बहुत किए, कपड़े को भी ऊपर से रंगा लिया, परंतु हृदय को न रंग पाए। यदि हृदय को रंगा होता तो क्या एक भी विवेकानंद अर्जुन शिवाजी नहीं निकलता? अरे! निकलना चाहिए था।

इस दुर्भाग्य के लिए क्या कहा जाए? इसे या तो अपना दुर्भाग्य कहें या उनकी नासमझी कहें। दोनों ही बातें कहनी होंगी। वह मसीहा हमेशा आप लोगों को पुकारता रहा और कहता रहा-उठों बेटे, समय तुम्हें पुकार रहा है। सारा राष्ट्र चीत्कार कर रहा है। बेटे तुम्हें आगे आना है। परंतु यह दुर्भाग्य है कि कोई भी ब्राह्मणों से वीरों से खाली नहीं होती है, परंतु कोई भी व्यक्ति छाती ठोक कर यह नहीं कह सकता कि पूज्य गुरुदेव! आपकी वाणी को हमने धारण किया है। अब हम आपके चरणों में समर्पित है। कोई भी यह नहीं कह सका कि आपके कदम जिस रहा पर चले है, हम भी उसी राह पर चलेंगे। आपने काँटों को फूल बनाया है, हम भी बनाएँगे। बेटे! तुम्हें नहीं मालूम कि उन्होंने किस प्रकार छाती से काँटों को चिपकाए रखा और स्वयं आगे बढ़ते रहे। उन्होंने कभी भी किसी की भी चिंता नहीं की, हमेशा प्रगति के पथ पर आगे ही बढ़ते रहे। तब स्वतंत्रता संग्राम के काम किए तो जोग उन्हें मसीहा लगें। किसानों का जिसने लगान माफ करवाया, वह अद्वितीय था। उनके एक मित्र बड़े भाई - कुछ भी कह लीजिए- श्री जगनप्रसाद रावत थे, जिनका वे बड़ा सम्मान करते। उन्हें भी हमेशा बड़ों को सम्मान देने की आदत थी। वे दिया भी करते थे। वास्तव में जो दूसरों को सम्मान देता है, वह स्वयं भी सम्मान पाता है।

एक फूल भगवान के चरणों में समर्पित होता है और एक फूल माला के रूप में चढ़ता हैं उसे कष्ट तो होता क्योंकि माला बनाने के लिए उसे सुई द्वारा पिरोया जाता है, तभी वह भगवान के गले का हार बन पाता है। उन्होंने यह दिखा दिया कि किस प्रकार फूलों का हार बनकर भगवान के गले में हम शोभायमान हो सकते हैं। भगवान ने उन्हें गोद में ले लिया। वास्तव में वह माँ धन्य है, जिसने ऐसे पुत्र का जन्म दिया। हमारी यही प्रार्थना है कि हे माँ! वास्तव में ऐसे ही पुत्रों को जन्म देना अन्यथा बंध्या रह जाना। इस धरती पर अगर माताएँ पुत्रों को जन्म दें तो ऐसे ही पुत्रों को दें।

वे स्वयं जीवनपर्यन्त काँटों के रास्तों पर चलते रहें, परंतु दूसरों को खुशियाँ बाँटते रहे और इसी तरह खुशियाँ बाँटते हुए धरती से विदा हो लिए। वे यह विश्वास दिलाते हुए चले गए कि बेटे तुम्हारे प्रत्येक दुख एवं कष्ट में हर समय हम तुम्हारे साथ है। तुम किसी बात की चिंता मत करना। उन्होंने हर व्यक्ति को अंगुली पकड़ कर कभी प्रताड़ना के द्वारा ऊँचा उठाया, आगे बढ़ाया। वे हमेशा व्यक्तियों को ऊँचा उठाते ही चले गए। हर व्यक्ति के आँसुओं को पोछते रहे।

बेटे! ऐसे मसीहा के साथ क्या गया? कुछ नहीं गया। वे तिलकर समाज देश संस्कृति विश्व के लिए, मिशन के लिए दीपक की तरह जलता हुआ चला गया, उसके साथ क्या गया? जो सारे विश्व के लोगों को प्रकाश बाँटता हुआ चला गया, जो बीच की तरह गलता हुआ चला गया। उसने कभी भी यह परवाह नहीं की कि मैं तिल- तिलकर समाज देश, संस्कृति विश्व के लिए मिशन के लिए दीपक की तरह जलता हुआ चला गया, उसके साथ क्या गया? जो सारे विश्व के लोगों को प्रकाश बाँटता हुआ चला गया जो बीच की तरह गलता हुआ चला गया। उसने कभी भी यह परवाह नहीं की कि मैं तिल-तिलकर गलता हुआ चला जा रहा हूँ। उसे यह परवाह नहीं थी कि मेरा क्या होगा? परन्तु खुशी थी इस तरह के काम से क्योंकि उनके द्वारा सारे विश्व का कल्याण जो हो रहा था। दीपक को जलने में खुशी होती है, क्योंकि उसका प्रकाश दूसरों तक पहुँचता है। यह बात कौन समझता है? सौभाग्यशाली विरले लोग ही इस प्रकार सोच पाते है। खुदगर्जी आदमी को आगे नहीं बढ़ने देती। परंतु उन्होंने कभी भी इस प्रकार की चीज को अपने आगे बढ़ाने के लिए वे गुरु थे और आगे भी रहेंगे।

बेटे! आप कह सकते हैं कि माताजी आपकी आँखों में अभी आँसू कैसे थे? आप इतनी विह्वल क्यों हो रही थी? मैं पूछती हूँ कि आप सब क्यों रो रहे थे? इस शरीर जिता मूल्यवान है उससे भी ज्यादा मूल्यवान आत्मा है। यह आत्मा सारे विश्व में समायी हुई है। यह जानते हुए भी जो मनुष्य के किसी शरीर के साथ लगाव रहता है वह कभी-न कभी अनायास ही याद आ जाता है। इसे कोई रो नहीं सकता। शिष्य, माँ, बहिन पत्नी-सबको वह अपने अपने ढंग से याद आएगा। पत्नी का वही आराध्य होता है गुरुजी हमसे अलग नहीं है। उन्होंने पहले भी कहा था कि मैं तुमसे जुदा नहीं हूँ। लेकिन इस अज्ञानता के लिए क्या कहूँ? पता नहीं यह हृदय इतना भावुक हो जाता है, वैसे ही हमारा भी हो जाता है।

बेटे! सामान्य महिलाओं की तरह से हमारा दिल भावुक नहीं होता क्योंकि हमारे अंदर एक संकल्प शक्ति काम कर रही है। यह संकल्प उनका ही है। यह तो नाचीज शरीर है हाथ पैर चलेंगे पर प्रेरणा तो उसी आराध्य की है। उसकी प्रेरणा आती हुई चली जाएगी और यह शरीर उछलता हुआ चला जाएगा क्योंकि हमारा सच्चा समर्पण है। अगर ऐसा आपका भी है, तो आपको भी तड़पन होनी चाहिए तथा उन कार्यों के लिए आपको भी आगे आना चाहिए जिसे वे अधूरा छोड़कर चले गए है। हमें उनकी योजना चले गए है। हमें उनकी योजना का पूरे विश्व में प्रचार प्रसार करना है। हमारे शरीर में जब तक रक्त की एक भी बूँद है, जीवन के अंतिम स्पंदन तक उनका ही काम करते जाएँगे।

बेटे! समर्पण के द्वारा मनुष्य को क्या-क्या मिलता है, यह मैं नहीं बतला सकती हूँ। इसके द्वारा मिलने वाली चीज के आगे दुनियावी चीज का कोई मूल्य नहीं होता है, लेकिन समर्पण पक्का होना चाहिए। यही जीवन में रंग लाता है। उन्होंने मुझे कहा था कि तुम माँ हो, अतः माँ का फर्ज निभाना, जिस तरह शारदामणि ने निभाया था। उन्होंने कहा था कि तुम पीड़ा था। निवारण के लिए काम करना, भावुक मत होना। बेटे! हमने अपनी भावुकता को पीछे धकेल दिया है, क्योंकि हमें उनका काम करना है। हमें शरीर के लिए रोना नहीं है वरन् इस मिशन के लिए, इस पेड़ के लिए काम करना है आचार्य जी ने जो यह पेड़ लगाया है उसे फलना-फूलना चाहिए। इसकी टहनियों को आगे बढ़ना चाहिए ओर इतना बढ़ना चाहिए कि वे सारे विश्व तक पहुँच जाएँ।

ढाई हजार वर्ष पहले भगवान बुद्ध आए थे और उन्होंने कार्य किया। इसके पश्चात् उनका अधूरा कार्य गुरु जी ने किया। अब उनका कार्य हमें करना है। उनके विचारों को सारे विश्व में फैला देना है। इस काम को यह शरीर करेगा तथा आप करेंगे। उनकी शक्ति आती चली जाएगी तथा हम और आप काम पूरा करते चले जाएँगे। आप कहेंगे कि माता जी आप चमत्कार वाली बात कैसे कर रही हूँ? नहीं बेटे! में यथार्थ बतला रही हूँ। बेटे! हजारों बच्चे जब यह कहते हैं कि माताजी रात में या सबेरे गुरुजी आए और यह कह गए। मैं तो कहती हूँ। बेटे, यह बेकार की बातें मत किया कर। शक्ति आती है प्रेरणा आती है तो इनसान के अंदर एक संकल्प बल का उभार आता है। एक चेतना आती है और वह कुछ करने के लिए आगे आना चाहती है।

बेटे! जब हमने उनको तिलक किया था, उन्हें विदा किया था, जब हमने किसी को नहीं बताए थे। पहला संकल्प हमने यह लिया था कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक श्रद्धांजलि समारोह करेंगे जो चार-पाँच दिन का होगा तथा शरद पूर्णिमा के अवसर पर होगा। सन् 1947 का जब यज्ञ हुआ था। तो उसकी घोषणा एक साल पूर्व की गयी थी। परंतु इतने विशाल कार्यक्रम की घोषणा केवल तीन माह पहले की जा रही है। माताजी! यह काम क्या पूरा हो जायेगा? बेटे, देखना यह कैसे होता है? संकल्पबल में बहुत शक्ति होती है और फिर जिसका यह कार्य है और फिर जिसका यह कार्य, वह स्वयं अपने स्तर पर करा लेगा। यह ईश्वरीय इच्छा है। जिसका ईश्वर सहायक हो, वह कार्य कैसे पूरा नहीं होगा? गुरुजी के सारे संकल्प पूरे हुए हैं।

दूसरा संकल्प यह लिया था कि एक भव्य स्मारक बनेगा। गुरुजी को प्राकृतिक दृश्यों से काफी लगाव था पेड़-पौधे नहर, जंगल, पशु-पक्षी से काफी प्रेम था। जिन्दगी में उन्होंने न कभी सिनेमा देखी, न कभी टी.वी. देखी। केवल समाचार 2-10 पर अवश्य सुनते थे, ताकि देश-विदेश की क्या समस्याएँ हैं, इनकी जानकारी मिल सके। इसके साथ ही वे यह सोचा करते थे कि हम बच्चों को क्या दिशा दें, ताकि वे राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल कर सकें। प्राकृतिक दृश्यों से उन्हें बहुत प्रेम था। अतः मेरा मन हुआ कि हमारे आराध्य का एक ऐसा स्मारक बने, जो अद्वितीय हो, जिसे लोग देखते ही रह जाए।

बच्चों ने कहा कि माताजी यह स्मारक कैसे बनेगा? अर्थ की व्यवस्था कैसे पूरी होगी? जो भगवान से जुड़े होते हैं, उनका काम अवश्य पूरा होता है। मीरा का गाँधी का कमा पूरा हो जाता है, तो हमारा भी काम पूरा हो जाएगा, क्योंकि हमने लोकमंगल के लिए किया है। गुरुजी ने अपने समय तथा कलम की उपासना लोकमंगल के लिए की है। उन्होंने समाज की उपासना भी कम नहीं की। बेटे! यह साधन कहीं से भी आएँगे। जिस भगवान ने यह प्रेरणा भेजी है, वह इसे अवश्य पूरा करेगा। अब जो संकल्प ले लिया है, उस ओर ही हमारे कदम बढ़ेंगे और उसे पूरा करके ही रहेंगे।

बेटे! आचार्य जी ने कहा था कि तुम हमारे अधूरे कार्य को पूरा करना तथा इन बच्चों को कलेजे से चिपकाकर रखना, ताकि इन बच्चों को बाप की याद खले नहीं, ये भटकें नहीं। हमने कहा था कि हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम इन्हें अपने कलेजे से लगाए रहेंगे, जिस प्रकार मुर्गी अपने बच्चों को कलेजे से चिपकाए रखती है। हमार जो होगा, वह होता रहेगा, हम उसकी चिंता नहीं करेंगे। इनके लिए जो भी कर सकती हूँ, अवश्य करूंगी। इनको हिम्मत साहस दिलाऊँगी, प्रेरणा दूँगी। इनको आगे बढ़ने का साहस दूँगी। इनके प्यार में कमी न होने दूँगी तथा कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर धमकाने का भी प्रयास करूंगी। इसके बाद भी नहीं मानेंगे तो डंडे लगाऊंगी। आप लोग तो दाढ़ी-मूँछ वाले हैं, आपको मैं क्या मारूंगी, परन्तु हमारी बात भी इससे कम नहीं है।

बेटे! गुरुजी का विराट स्वरूप, जो सूक्ष्मीकरण में समा गया है, वह आप लोगों को चैन से सोने नहीं देंगे। वे जिंदगी भर न तो चैन से सोए हैं और न किसी को सोने देंगे। कायरों की जिंदगी उन्हें काफी खोलती रही हैं किसी को फालतू बैठे देखते थे तो उन्हें दुख होता था। वह कहा करते थे कि आपको सोलह घंटे काम करना चाहिए। आपके ऊपर देश, संस्कृति, भगवान और गुरु का भी तो कुछ ऋण है। क्या उसे चुकाने का प्रयास नहीं करना चाहिए? आपको अवश्य करना चाहिए।

आज समाज में जो विकृतियाँ फैली हैं, उन्हें हटाने के लिए आपके अंदर क्या कोई करुणा पैदा नहीं होती है? भगवान के भक्त के अन्दर तो करुणा पैदा होती है। वह द्रवित हो जाता है। एक छोटी-सी घटना उनके जीवनकाल की है। एक आदमी एक कबूतर को पकड़कर ले जा रहा था। उन्होंने पूछा कि इसका क्या करोगे? हम इसे भूनेंगे और खायेंगे। उन्होंने जेब में देखा एक अठन्नी पड़ी थी। उसे देते हुए कहा कि तुम इस कबूतर को उड़ा दो। यह कौन कह रहा था? यह करुणा कह रही थी। यह संवेदना कहा रही थी। बेटे! जब व्यक्ति के अंदर करुणा जाग्रत होती है, तो वह फौलाद का हो जाता है। वह अपने लिये नहीं सोचता, वरन् सारे विश्व के लिए सोचने लगता है। इस कार्य के लिए वह दृढ़ संकल्प होता हुआ चला जाता है। वह ब्राह्मण का जीवन जीता है। आपसे मेरा एक ही निवेदन है कि आप ब्राह्मण का जीवन जीते हुए पूज्य गुरुदेव के रास्ते पर चलें और उनके काम को पूरा करें।

पूज्य गुरुदेव ने यह भी कहा है कि तुम लोग संत का जीवन जीना। संत अपने लिए नहीं जीता है। वह दूसरों के कष्टों को हरता है। उसे शाँति प्रदान करता है। आप इसी प्रकार का जीवनयापन करना। वह भगवान से यह भी नहीं कहता है कि भगवान मेरे कष्ट को दूर करना, बल्कि वह परोपकार के लिए, दया के लिये हमेशा कष्ट उठाता रहता है। वह दूसरों को ऊँचा उठाने के लिये अपना जीवन दाँव पर लगा देता है। आपको भी जितना संभव हो दूसरों को ऊँचा उठाने में अपना समय, श्रम और अक्ल लगानी चाहिए। मैं तो यह कहना चाहती हूँ कि जिनके पास अपने गुजारे के लिए है, वे सारा जीवन विश्वकल्याण के लिए दे सकते हैं। जिनके पास नहीं है, वे उदरपूर्ति के बाद कम-से-कम समयदान, थोड़ा अंशदान तो कर ही सकते हैं। वह भी नहीं दे सकते तो, हमसे सब ले जाओ, कुछ भी नहीं दो। बेटे! भगवान बड़ा होशियार है, उसे कोई धोखा नहीं दे सकता है।

बेटे! गुरु-शिष्य एवं गुरु-चेला में बहुत फर्क होता है। बुद्ध का एक चेला था। एक राजा ने कहा कि इस बाँस के ऊपर सोने का एक कमंडल लटका है। उसे जो उतार कर लाएगा, उसे हम गुरु मान लेंगे और पर्याप्त गुरुदक्षिणा देंगे। बुद्ध का वह चेला, जो पहले नट कर रह चुका था, गया और कमंडल उतारकर ले आया। भगवान बुद्ध के पास पहुँचकर बोला-भगवान आज एक चमत्कार हो गया। क्या चमत्कार हो गया? उसने सारी घटना सुना दी। भगवान बुद्ध ने कहा कि अभी उसे फेंक आओ। तुम नट थे, इसलिए तुमने यह काम किया है। इसमें कोई चमत्कार नहीं है। कोई संत अपनी शक्ति का प्रदर्शन इस प्रकार नहीं कर सकता है। आपको इस प्रकार के चमत्कार के पीछे नहीं पड़ना चाहिए।

बेटे! आपके गुरुदेव ने कभी भी यह नहीं कहा कि गायत्री माता मेरे सपने में आयी थीं और ऐसा कहा था। यह बेकार की बातें हैं। उन्होंने भक्त का जीवन जीकर संसार को, समाज को दिखलाया और इसके साथ ही यह भी बतलाया- कि भक्त को जीवन में कितना वरदान-अनुदान मिलता है। आपने द्रौपदी, कृष्ण, परशुराम, विश्वमित्र आदि का नाम सुना है और उनके चमत्कार के बारे में पढ़ा भी है। परंतु उन्हें आपने देखा नहीं कि वे कैसे थे, लेकिन एक मसीहा को आपने देखा है, जिसने कभी भी अपने लिए नहीं सोचा, अपने लिए नहीं किया। केवल परमार्थ के बारे में ही उन्होंने सोचा एवं परमार्थ का ही कार्य किया। उन्हें कोई कमी नहीं हुई। उनके असंख्य बच्चे हो गये। उनका हर बच्चा हर शिष्य यह कहता है कि आप आदेश करें, हम नौकरी छोड़कर आने को तैयार हैं। परन्तु चेला? चेला यह कहता है कि लाओ गुरु जी जो भी है, वह हमें दे जाओ। उनका वश नहीं चलता है, वरन् खाल भी ले जाए। बेटे! चेले की एक कथा सुनाती हूँ।

एक मौलवी साहब थे, जो किसी गाँव में सेवा करते थे। उनका एक चेला था। जब मौलवी साहब हज को चले गए तो चेले का धंधा जोरों से चलने लगा। उसने सोचा कि अगर मौलवी साहब आ जाएँगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा, क्या चाल चलनी चाहिए? उसने विचार किया और एक तरकीब निकाली। गाँव में प्रचार कर दिया कि मौलवी साहब हज से आ रहे हैं। उनके बालों में चमत्कार है। जो व्यक्ति उनसे बाल ले लेगा, उसका कायाकल्प हो जाएगा। बस क्या था- सभी लोग उनके बालों को नोचने लगे। आधी दाढ़ी खत्म हो गयी। मौलवी साहब जी परेशान थे, अतः रात को जब सब सो गए तो वे चुपके से निकल गए। उन्होंने सोचा कि अगर नहीं गये तो शेष आधी दाढ़ी भी लोग नोंच डालेंगे और जीना मुश्किल हो जाएगा।

अभी हम किसकी बात कह रहे थे? चेले की। शिष्य और चेले के अंतर को आप समझिए। चमत्कार पर मत जाइए। बेटे चमत्कार से कुछ नहीं होता है। पूज्य गुरुदेव का जीभ पर कंट्रोल था। उन्होंने कभी भी अभक्ष्य नहीं खाया। उनकी जिह्वा पर सरस्वती विराजमान् रहती थी। जो भी उन्होंने कहा, वह सदैव सत्य होता था। सन् 1985 में उन्होंने यह कहा था कि हमारे मार्गदर्शक ने केवल पाँच वर्ष का अनुदान दिया है। यह आप फरवरी 1985 की पत्रिका में पढ़ लीजिए। वे बराबर दिशा देते चले गए, लोगों की दिशा बदलते चले गए ताकि किसी को कष्ट न हो। उन्होंने शानदार जीवन जिया। एक सच्चे इनसान की, समाजसेवी की, देशभक्त की जिंदगी उन्होंने जी और एक संत-ऋषि के रूप में इस संसार से विदा ले ली। उनकी पावन स्मृति सदैव हमारे साथ रहेगी। आइए उनके स्वप्नों को पूरा करने की शपथ लें। आज इतना ही।

ॐ शाँति शांतिः शांतिः॥

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