
जागते रहें, ताकि ध्यान सिद्ध हो
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वायुरहित स्थान में अकंप लौ की तरह चित्त की स्थिति हो जाती है, तो ध्यान सिद्ध होने लगता है। तब न तृष्णा और विरति विचलित करती है और न ही आवेग क्षुब्ध करते हैं। वियतनामी बौद्धीिक्षु ‘तिकन्यात’ ने ध्यान की सफलता के लिए इस लक्षण को कसौटी बताया है। विश्वभर में इन दिनों ध्यान के प्रति गहरा आकर्षण है। योग, भक्ति और ज्ञान के प्रति उत्सुकता भी ध्यान से ही प्रेरित है। ध्यान शिक्षक एण्ड्रू कोहेन के अनुसार आधुनिक मनुष्य तनाव और क्षोभ के दौर से गुजर रहा है, उसे विश्राम चाहिए। विश्राम के लिए ध्यान की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं।
चित्त को विश्राम मिलना ध्यान की प्रथम सिद्धि है। ‘तिकन्यात’ जिस परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके प्रवर्तक भगवान् बुद्ध की ही धर्मदेशना है कि प्रथम सीढ़ी पर ही ठहर मत जाना। वासना और तृष्णा की आँधी जब तक पूरी तरह शाँत न हो जाए, ध्यान में स्थित रहना, उसका अभ्यास करना। वह अभ्यास सध जाए तो ध्यान में सहज ही स्थिति हो जाती है, बुद्ध ने सतत् जागरूकता को ध्यान की सिद्धि कहा है। ‘सति मत्थान सूत्र’ में जिन सूत्रों का उपदेश किया गया है, वे इस मार्ग के प्रमुख सिद्धाँतों में गिने जाते हैं। ध्यान का उपदेश देने वाले सभी शिक्षक प्रायः इन्हीं सूत्रों का विवेचन करते आए हैं।
‘सति’ पद का अर्थ है- सचेत अवस्था में रहना। यह आँख खोलकर जागने और आसपास के जगत् को परखते रहने से सर्वथा भिन्न स्थिति है। बुद्ध ने इस अवस्था को ऐसा मार्ग बताया है, जिसमें व्यक्ति शरीर और मन की गुत्थियों को सुलझा लेता है, दुख-दर्द से उबरता हैं वेदना को नष्ट करता और उच्चतम प्रज्ञा को उपलब्ध होता है। पद्मासन या सुखासन लगाकर बैठना और चित्त के प्रवाह को किसी एक विषय में स्थिर करना, इस प्रक्रिया का एक अंग है। दिनचर्या के सामान्य कामकाज जारी रखते हुए भी यह अभ्यास निरंतर जारी रखना चाहिए।
सचेत होने का अभ्यास शरीर, भावना, मन और मन के विषयों के साथ किया जाता है। उन तलों पर जो घटनाएँ होती हैं, प्रतिक्रियाएँ और प्रभाव आते-जाते हैं, उन्हें सिर्फ देखते रहना है, यह गौण है, उनसे प्रफुल्लता आती है या क्षोभ होता है। उनकी चिंता किए बिना देखते रहना है। जब प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं और बोध बना रहता है तो साधक की ध्यान में स्थिति होती है।
सचेत अवस्था की व्याख्या वर्तमान में स्थिर रहने के रूप में भी की जाती है। उसके अनुसार वर्तमान ही सत्य है। अतीत और भविष्य, स्मृति और कल्पना के सिवाय कहीं नहीं हैं। जो क्षण अभी उपलब्ध है, वही जीवन है, शेष स्मृति है। यह क्षण निमिषमात्र भी स्थिर नहीं रहता, बदल जाता हैं उस क्षण को पकड़ने और उसमें स्थिर हो जाने के लिए विभिन्न अभ्यास बताए गए हैं। आरंभ समय की धारणा को ठीक से समझकर होता है। समझ यही है कि समय अनवरत प्रवाह नहीं है। अभी इसी क्षण जो प्रस्तुत है, वही समय है। उसे न बाँटा जा सकता है, न बिताया जा सकता है।
वर्तमान में स्थिर रहने के लिए बौद्ध परंपरा जिन उपायों का वर्णन करती है, वे बोध जगाने के लिए हैं। उदाहरण के लिए, शरीर पर ध्यान के समय कुछ करना नहीं होता। सिर्फ सचेत रहना पड़ता है। दिखाई देने वाली गतिविधियों के साथ सूक्ष्म गतिविधियों के प्रति भी सजग होना पड़ता है। बौद्धभिक्षु तिकन्यात हुन्ह ने बोध अभ्यासक्रम को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि शरीर जब श्वास ले रहा हो तो ज्ञात रहना चाहिए कि साधक श्वास ले रहा है। श्वास जब ठहरा हो तो ज्ञात रहना चाहिए कि विराम है। श्वास को भीतर खींचने, रोकने ओर विराम लेते समय ज्ञात रहे कि ऐसा हो रहा है। चलते समय यह बोध रहे कि चल रहा है, बैठें तो भी ज्ञात होना चाहिए। नहान, धोने, कपड़े पहनने और सोने-बैठने के समय भी ये बोध जाग्रत रहना चाहिए यह ‘धारणा’ बैठकर साधना करने पर ही नहीं, पूरे दिन और प्रत्येक क्षण में करनी चाहिए।
भावनाओं या विचारों की धारण के समय भी ‘साक्षीभाव’ जाग्रत् रहे। देखना चाहिए कि भावनाएँ कैसी व कैसे उठ रही हैं, कैसे विकसित हो रही हैं और किस तरह तिरोहित होती जा रही हैं, वे सुख दे रही हैं या दुख। शरीर के किसी भाग में पीड़ा हो तो साधक अनुभव करे कि पीड़ा किस भाग में हो रही है। उसका उठना, लहर लेना कम-ज्यादा होने के प्रति भी साधक को होश से भरा होना चाहिए। सराहे जाने पर होने वाली खुशी के समय भी उस केंद्र के प्रति सजग रहना चाहिए। यह धारणा प्रत्येक भावना को सहज और शाँत करती है। भावनाओं के प्रति बोध से भरने का अभ्यास थोड़े-बहुत समय नहीं, पूरे दिन और प्रतिक्षण किया जाना चाहिए।
चित्त और उसके विषयों पर ध्यान-धारणा की विधि भी शरीर और मन की तरह ही है। चित्त और उसके विषय शरीर और भावनाओं के ही अधिक सूक्ष्म रूप हैं। शरीर की क्रिया और भावनाओं के वेग के प्रति जागरूक रहने के बाद मन की अवस्था के प्रति बोध पूर्ण हुआ जाता है। दिनभर में मन कई स्थितियों से गुजरता है। उसके आवेश बदलते रहते हैं। हर्ष, विषाद, राग, द्वेष, प्रेम, घृणा, क्रोध, क्षमा, सद्भाव, शाँति और क्षोभ जैसी मनोदशाएं आती-जाती रहती हैं। मन के प्रति बोध से भरने का अर्थ है इन दसों दशाओं के प्रति जागे रहना। हसचेत रहने का अर्थ कारणों की तलाश करना नहीं है। कारण तलाशते हुए चिंतनप्रक्रिया चलने लगती है और बुद्धि अतीत में चली जाती है। कारण जानने के लिए स्मृतियों में जाना ही पड़ेगा। अतीत में चले जाने के बाद सचेत रहने वाली दृष्टि धुँधला जाती है। भगवान् बुद्ध इसीलिए अपने उपदेशों में बारबार सावधान करते हैं कि सिर्फ जागे रहना है। कोई प्रतिक्रिया नहीं करनी है। मन यदि क्षुब्ध हो रहा है, तो केवल देखें कि दुख की लहर उठ रही है। प्रसन्नता हो रही है तो सिर्फ देखें कि चित्त प्रफुल्लित हो रहा हैं क्रोध या आलस्य आए तब भी देखते रहना है कि मन क्रुद्ध हो रहा है या सोने लगा है।
चित्त के विषयों में सचेत होने के बाद बौद्ध ध्यानपद्धति में निर्वाण बताया गया है। निर्वाण का अर्थ है-बुझ जाना। बौद्धदर्शन के अनुसार तृष्णा ही दुख है। तृष्णा मन या चित्त की जीवनीशक्ति है। वह सूख गई तो चित्त को दग्ध करने वाली लपट भी बुझ जाती है। चित्त के पाँच विषय हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। व्यक्ति इन विषयों के माध्यम से ही बालजगत् से जुड़ता है। विषयों के प्रति सचेत हो जाने से विचलित और क्षुब्ध करने वाला संबंध टूट जाता है। प्रहरी को जागा हुआ देखकर चोर जिस तरह घर में नहीं घुसते, इसी तरह चेतना के बोध से भरे होने पर विषय साधक के अंतस् को विचलित नहीं करते। वहाँ उनका प्रवेश निषिद्ध हो जाता है।
शरीर, भाव, मन और विषय एक ही सत्ता के सघन-विरल रूप हैं क्रम से उनकी क्रिया और गति के प्रति जागरूकता का अभ्यास ध्यान को समाधि की स्थिति तक पहुँचाता है। गोरखनाथ ने इस स्थिति को ही ‘सहज समाधि’ कहा है। वेदाँत इस ध्यान-धारणा को साक्षीभाव कहता है। वहाँ भी शरीर, मन, बुद्धि, चित्त और जगत् के तल पर जो कुछ भी होता है, उसे देखते रहना है, यह साक्षीभाव अनर्थ से और व्यर्थ से रक्षा करता है। आचार्य वेदाँत देषिक ने सामान्य जीवन में साक्षी सजगता के प्रभाव विभिन्न उदाहरणों से समझाए हैं। उन्हीं में एक उदाहरण बैठे बैठे पाँव हिलाने का है। कई लोगों को खाली बैठने पर पाँव या पंजा हिलाने की आदत होती है। आचार्य वेदाँत देष्कि ने उपदेश के समय किसी साधक को यों ही पंजा हिलाते देखा और टोक दिया था कि अपने पाँव को देखो। साधक की हरकत ही नहीं, आदत भी हमेशा के लिए छूट गई। साक्षीभाव अथवा सचेत अवस्था व्यक्ति को संपूर्ण रूप से जाग्रत् करती है और उसे कषाय-कल्मषों से छुटकारा दिलाती है। शरीर, भाव, मन और विषयों में क्रम से किया गया जागरूकता का अभ्यास उसी दिशा में सीढ़ी-दर-सीढ़ी उत्थान है।