
संयम, सहनशीलता और स्परिक सहकार का महत्त्व (Kahani)
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
काफी वर्षों पूर्व जापान में एक मंत्री श्री ओ. पी. शाद्र हुए हैं। उनका परिवार सारे जापान में सबसे बड़ा परिवार था। इस भरेपूरे परिवार में कुल सदस्यों की संख्या एक हजार से भी ज्यादा थी। इस विशाल परिवार में कभी किसी ने तू-तू, मैं-मैं तक नहीं सुनी थी।
इस शालीन परिवार की ख्याति तत्कालीन जापानी सम्राट् यामातो तक पहुँची, तो उसने वास्तविकता की जाँच करनी चाही। इसके लिए सम्राट् ओ. पी. शाद्र के घर पहुँचे। वृद्ध मंत्री ने सम्राट् का यथोचित आदर-सत्कार किया। सम्राट् ने वृद्ध मंत्री से इतने बड़े परिवार की शालीनता एवं सज्जनता का कारण पूछा।
वृद्ध मंत्री ने संयतवाणी में कहा-”हमारे परिवार का हर सदस्य संयम, सहनशीलता और स्परिक सहकार का महत्त्व समझता है। शालीनता को बनाए रखना सभी अपनी पवित्र साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं।” सम्राट् ने परिवारसंस्था में गुणों के समावेश एवं इस प्रकार संभव हुए विकास की महत्ता को समझा एवं अन्य नागरिकों के लिए इसे एक आचरण संहिता के रूप में अपनाने को कहा।
प्रचेता एक ऋषि के पुत्र थे। स्वयं भी दिन-अनुदिन तप संचय कर रहे थे, किंतु उनका स्वभाव बड़ा क्रोधी था। उन्होंने क्रोध को एक व्यसन बना लिया था और जब-तब उससे हानि उठाते रहते थे। किंतु न जाने वे अपनी इस दुर्बलता को दूर क्यों नहीं करते थे, इस दुरभिसंधि की उपेक्षा करने से होता यह था कि एक लंबी साधना से प्रचेता जो आध्यात्मिक शक्ति संचय करते थे वह किसी कारण से क्रोध करके नष्ट कर लेते थे। अस्तु एक मानसिक तनाव बना रहने से उनका स्वभाव खराब होता गया और वे जरा-जरा-सी बात पर उत्तेजित हो उठते थे। एक बार वे एक वीथिका से गुजर रहे थे। उसी समय दूसरी ओर से कल्याणपाद नाम का एक और व्यक्ति आ गया। दोनों एक-दूसरे के सामने आ गए। पथ बहुत सँकरा था। एक के राह छोड़े बिना, दूसरा जा नहीं सकता था, लेकिन कोई भी रास्ता छोड़ने को तैयार न हुआ और हठपूर्वक आमने-सामने खड़े रहे। थोड़ी देर खड़े रहने पर उन दोनों ने हटना, न हटना प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। अजीब स्थिति पैदा हो गई
यहाँ पर समस्या का हल यही था कि जो व्यक्ति अपने को दूसरे से अधिक सभ्य, शिष्ट और समझदार समझता वह हटकर रास्ता दे देता और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण होता। निश्चित था कि प्रचेता कल्याणपाद से श्रेष्ठ थे। एक साधक थे और आध्यात्मिक उन्नति में लगे थे। कल्याणपाद एक धृष्ट और ढीठ व्यक्ति था। यदि ऐसा न होता तो एक महात्मा को रास्ता तो देता ही, साथ ही नमन भी करता। प्रचेता को यह बात समझ लेनी चाहिए थी, किंतु कुस्वभाव के कारण उन्होंने वैसा नहीं किया, बल्कि उसी के स्तर पर उतरकर अड़ गए। कुछ देर दोनों खड़े रहे। पर फिर प्रचेता को क्रोध हो आया। उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि राक्षस हो जाए। तप के प्रभाव से कल्याणपाद राक्षस बन गया और प्रचेता को ही खा गया। क्रोध से विनष्ट प्रभाव हुए प्रचेता अपनी रक्षा न कर सके।