
विश्वास नहीं करें तो भी मंत्र फल देते हैं
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विश्वास करें या न करें; अग्नि के समीप बैठें तो आँच लगेगी ही, छूने की कोशिश करें तो वह जलाएगी भी सही। धूप में बैठें तो शरीर गरम होगा। बर्फ को छुएँ तो ठंडक लगेगी। तेज धार को छुएँ और उस पर दबाव दे तो चमड़ी कटेगी, माँस छिलेगा। इन प्रक्रियाओं में विश्वास करना जरूरी नहीं है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता, इस उक्ति के आधार पर वस्तु अथवा शक्ति का प्रभाव एक बार सिद्ध हो जाए तो उसकी पुष्टि के लिए प्रमाण नहीं जुटाना पड़ता। मंत्रों की शक्ति के संबंध में ही प्रमाण क्यों प्रस्तुत किए जाते हैं। अगर उनका प्रभाव है तो विश्वास की शर्त क्यों रखी जाती है। बिना विश्वास किए मंत्रों का जप करें तो क्या फल नहीं मिलेगा?
एक साधक पूछते हैं-विश्वास ही फलदायक है, तो कोई विशिष्ट मंत्र जपना ही क्यों जरूरी है? ओम् का जप करने से चित्त शाँत होता है। सिर्फ विश्वास ही फलदायी है, तो ‘ओम्’ के स्थान पर ‘कोक’ या ‘पेप्सी’ शब्द के प्रति ही विश्वास स्थिर कर लिया जाए। वह जप भी ओम् की तरह प्रभावशाली सिद्ध होगा। यह सही है कि मंत्र में सिर्फ विश्वास ही फलदायक नहीं होता। उसका महत्त्व जप-साधना में बल उत्पन्न करने भर के लिए है। विश्वास हो कि लक्ष्य को साधकर छोड़ा गया तीर उसे वेध देगा तो धनुष की डोरी के खिंचवा में बल आएगा। निशाना ठीक से सधेगा। विश्वास हो कि आग पर रखने से रोटी पक जाएगी, तो भोजन तैयार करने की प्रक्रिया व्यवस्थित चल सकेगी। विश्वास हो कि वाहन पर बैठकर की गई यात्रा गंतव्य तक पहुँचा देगी, तो दूरी तय होने के बीच का समय बिना किसी तनाव के बीत जाएगा, अन्यथा इस बीच उठती रहने वाली चिंता मन को थकाएगी और यात्रा के बीच में हो सकने वाले छोटे-मोटे काम भी गड़बड़ा जाएँगे।
मंत्र−साधना की सफलता में विश्वास एक सीमा तक ही उपयोगी है। कुछ आचार्यों के अनुसार वह साधना का तारतम्य और प्रवाह बनाए रखने मात्र के लिए जरूरी है। हो तो ठीक और नहीं हो तो भी ठीक। थोड़ा गिरते-पड़ते ही सही, मंत्र अपना प्रभाव दिखाते ही हैं। मंत्र−साधना को जो आधार सिद्धि तक पहुँचाते हैं, उनमें मुख्य है- शब्द शक्ति, जप या मंत्रों की आवर्तिता और साधक की चर्या
शब्द मंत्र का शरीर है। यह ऋषियों की साधना और परमसत्ता के अनुग्रह से मिलकर बना है। जिन दिव्य आत्माओं की चित्तभूमि में मंत्र प्रकट हुआ उन्हें ही उस मंत्र का ऋषि कहा गया। ऋषियों मंत्रद्रष्टाओं की आर्ष उक्ति इस संबंध में प्रसिद्ध है। मंत्र जिस रूप में प्रकट हुआ, शब्दों का गुँफन और उच्चारण की जो प्रक्रिया निश्चित हुई, वही ऊर्जा प्रकट करती है अन्यथा शब्दों में स्वतंत्र रूप से कोई शक्ति नहीं होती। जिस शब्द को ब्रह्म कहा गया है, वह ‘मंत्र’ स्तर का ही हो। सामान्य व्यवहार में हम जिन शब्दों का दिन-रात प्रयोग करते हैं, उनके लिए ब्रह्म का विशेषण नहीं लगाया जा सकता।
मंत्र यदि सामान्य शब्दों की तरह होते तो वे भी सिद्धि तक नहीं पहुँचाते। नई खोजों के अनुसार, सामान्य शब्दों के जप में जरा भी ऊर्जा नहीं होती, इतनी भी नहीं कि लाख बार उच्चारण करने के बाद पास का तिनका भी हिल जाए। शब्द की सामान्य शक्ति के वैज्ञानिक प्रभाव का अध्ययन करने वालों ने सिर खपाकर जितना पाया है उसका सार यह है कि तीस साल तक निरंतर किसी शब्द को दोहराया जाए तो उससे इतनी ही गरमी पैदा होगी कि सिर्फ एक प्याली पानी गरम किया जा सके। मंत्रों में ऐसी क्या विशेषता है कि उनसे व्यक्ति के भीतर विराट् शक्ति प्रकट हो जाती है? इसका उत्तर बंदूक की गोली छूटते समय होने वाली आवाज के उदाहरण से समझा जाता है। फायर सामने हो या दूर कहीं, दागे जाते समय ‘फट्’ की तेज आवाज होती है और जिसके कान में सुनाई देती है, उनके सीने पर चोट-सी लगती है। ‘फट’ के स्थान पर ‘आ हा’ की ध्वनि निकलती तो चित्त में विश्राम का सा भाव जगता। किसी भी व्यक्ति को ‘आ हा’ कहते देखते है तो बिना बताए समझ आ जाता है कि वह प्रसन्न हो रहा है। दो अक्षर या शब्द उस उल्लास को सुनने वाले तक संचरित करते हैं।
विचार किया जाना चाहिए कि ‘फट’ की आवाज बंदूक का आविष्कार होने के बाद ही सुनाई दी होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि बंदूक की मारक क्षमता से परिचित होने के कारण यह आवाज दहला देती हो, लेकिन तंत्रशास्त्र बंदूक का आविष्कार होने से शताब्दियों पहले इस शब्द का प्रयोग करता आ रहा है। इस विधा के आचार्य अभिचार कर्मों में ‘फट’ शब्द का प्रयोग बीजमंत्र की तरह करते हैं। प्रयोगों के अभीष्ट परिणाम भी मिलते हैं।
शब्दों और अक्षरों का गुँफन मंत्र को अपने ढंग से जीवंत बनाता है। स्वर और लय के साथ उनका जप सामान्य श्रेणी के परिणाम देते हैं, जैसे कि चित्त की एकाग्रता, मन का लय अथवा काम्यकर्मों में छोटी-मोटी सफलताएँ विशिष्ट प्रभाव उनके ध्वनिरहित जप से ही उत्पन्न होते हैं। कान से सुनी जा सकने वाली ध्वनि को न अध्यात्म ज्यादा महत्त्व देता है और न ही विज्ञान। अध्यात्मक्षेत्र में इसे प्राथमिक स्तर का कहा गया है। शास्त्रवचन प्रसिद्ध है कि वाचिक जप की तुलना में उपांशु जप सौ गुना शक्तिशाली है और उपांशु की तुलना में मानसिक जप सहस्र गुना। वाचिक जप अर्थात् बोलकर किया गया जप, उपांशु जप में होंठ हिलते रहते हैं, लेकिन उच्चारण सुनाई नहीं देता। मानसिक जप में न होंठ हिलते हैं और न जीभ चलती है। जप मन-ही-मन चलता रहता है। प्रभाव की दृष्टि से यही जप शक्तिशाली होता है।
मंत्रशास्त्र के विद्वान डॉ. गोपीनाथ कविराज लिखते हैं कि मन से चलने वाले जप की शक्ति को विज्ञान अभी नहीं माप सका है। वह कानों से सुनी जा सकने वाली ध्वनि को ही माप पाया है। कंठ के भीतर जिन स्थानों से शब्द फूटते हैं, उनके मापने के प्रयत्न नहीं किए गए। मंत्रशास्त्र अभी भी श्रव्यध्वनि को तीसरे स्थान पर मानता है। जिसकी गति, शक्ति और सीमा अत्यल्प हो, जो ध्वनि मंत्र को प्राणवान् बनाती है, वह सूक्ष्म स्तर की होती है और चित्त के तल पर गूँजती है।
जो ध्वनि ‘परा’ स्तर की कही गई है और मन के तल पर गूँजती है, वह शरीर के मर्मस्थलों को प्रभावित करती है। योगशास्त्र में इन केंद्रों को चक्र कहा गया है। छह, सात, आठ, दस और चौदह की संख्या तक अनुभव किए गए चक्रों में प्रत्येक का अपना अक्षर, वर्ण और ध्वनि है। साधन के समय इनका अनुभव होता है। शास्त्र या गुरु से जान लेने के बाद इन की ध्यान-धारणा मर्मस्थलों- शक्तिकेंद्रों अथवा चक्रों को जाग्रत करने में सहायक भी होती है। मानसिक जप इन केंद्रों को अनिवार्य रूप से तरंगित और प्रभावित करता है।
मंत्रविदों का एक वर्ग जप के साथ लय को भी आवश्यक बताता है। उनके अनुसार लय अथवा रिद्म में शब्द का बलाघात, आरोह, अवरोह, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत आदि का समावेश होता है। गीत नहीं गाया जाए, मात्र संगीत या धुन ही गूँजती रहे तो भी मन दुखी या प्रसन्न हो जाता है। केवल वाद्ययंत्रों की ध्वनि ही हर्ष, विषाद और उल्लास के भाव जगा देती है। छंदशास्त्र का निर्माण इसी आधार पर किया गया है। संस्कृत के प्रसिद्ध काव्यग्रंथों में इस तथ्य को अनुभव किया जा सकता है। अर्थ समझ नहीं आए तो भी पदों की लय अथवा छंद मन को छूते हैं। इस संबंध में कालिदास के लिखे ‘कुमारसंभव’ ग्रंथ का ‘रति-विलाप’ प्रसंग अथवा ‘रघुवंश’ का अज-विलाप’ प्रसिद्ध है। जिन्हें संस्कृत नहीं आती वे भी इन प्रसंगों को सुनकर रो उठते हैं। जगनिक का आल्हा खंड छंद-शास्त्र का स्पष्ट प्रमाण है। उसे पढ़-सुनकर लोगों में रौद्र भाव उत्पन्न होने की घटनाएँ कहानियों की तरह कही-सुनी जाती हैं। मंत्रों में शब्द का छंद, गण और लय का गठन उन्हें प्रभावी बनाता है।
साधक की जीवनचर्या उसे मंत्रों का प्रभाव ग्रहण करने योग्य बनाती है। प्रत्येक मंत्र की सिद्धि, खास तरह का रहन-सहन, खानपान और विधि-निषेध तप है। इस पक्ष को साधना अथवा मंत्र का अनुशासन भी कह सकते हैं गायत्री मंत्र के साधकों को अपना आहार-विहार सात्त्विक और नियमित रखना ही चाहिए। दुर्गा के उपासक थोड़े राजसी स्तर के हो सकते हैं। काली की उपासना में कतिपय क्षेत्रों में थोड़ी छूट दी गई। वह शक्ति के रौद्र पक्ष को ध्यान में रखकर ही दी गई थी। यह विडंबना ही रही कि भोगी और तामसी वृत्ति के लोगों ने उसका दुरुपयोग किया और शक्ति उपासना को ही बदनाम कर दिया। इसी प्रकार राम, हनुमान, विष्णु, कृष्ण, इंद्र, सूर्य आदि देवताओं की आराधना में भी कुछ विशिष्ट विधान रखे गए हैं। सामान्यतः सभी साधनाओं में संयम-नियम का ध्यान रखना अनिवार्य है। उसी स्थिति में यंत्रों का प्रभाव ग्रहण करने योग्य पात्रता आती है। विशिष्ट साधनाओं में कुछ विशेष विधान उस यंत्र की विशिष्ट क्षमता को ध्यान में रखकर ही किया जाता है।
मंत्र−साधना में सही उच्चारण, लय और नियत चर्या का पालन किया जाए, तो निश्चित परिणाम होते हैं। इन तीनों पक्षों का निर्वाह करने के बाद किसी साधक को विश्वास हो या न हो, मंत्र का लाभ मिलेगा ही। अग्नि, ईंधन और पात्र के साथ पानी या आहार का मेल हो तो विश्वास करें न करें, भोजन पकेगा ही। फलदार वृक्ष हो, यात्री हो और तोड़ने के लिए प्रयत्न हो तो फल हस्तगत होकर रहेगा ही। विश्वास करें या न करें, नियत प्रक्रिया संपन्न कर लेने के बाद अभीष्ट कार्य सिद्ध होकर ही रहते हैं। मंत्र भी सिद्ध होते हैं, यह विश्वास साधक को हमेशा रखना चाहिए एवं सतत् उसे दृढ़ बनाव रखना चाहिए।