
शोर हमें पागल कर दे इससे पूर्व चेतें
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ध्वनि कानों द्वारा ग्रहण की गई तथा मस्तिष्क तक पहुँचाई गई एक संवेदना है। एक निश्चित सीमा में यह मनुष्य के लिए वरदान है। परंतु विकास के नाम पर, औद्योगिक क्राँति व मशीनीकरण से यह संवेदनशीलता एकदम तहस-नहस हो गई है। शाँत, सुरम्य, सौम्य प्रकृति की स्वरलहरियों के स्थान पर आज सर्वत्र कर्णभेदी कोलाहल ही सुनाई देता है। इसका दुष्प्रभाव हर कहीं अनेकानेक शारीरिक, मानसिक व्याधियों के रूप में दिखाई दे रहा है।
शोर एक ऐसी ध्वनि है, जिसमें कोई क्रम नहीं होता है, जिसकी अवधि लंबी या छोटी तथा आवृत्ति परिवर्तनीय होती है। मनोविज्ञान की दृष्टि में यह कोई भी ऐसी ध्वनि हो सकती है, जो श्रोता को अप्रिय लगे। फिर यह चाहे संगीत या गायन ही क्यों न हो, शोर ही मानी जाएगी। अनावश्यक असुविधाजनक तथा अनुपयोगी आवाज शोर के सिवा और कुछ नहीं। शोर तथा सामान्य ध्वनि में मुख्य अंतर तीव्रता है। मनुष्य 16 से 20,000 से ऊपर के कंपनों को अल्ट्रासोनिक ध्वनि कहते हैं। कुत्ता सांप आदि इन्फ्रासोनिक तरंगों को भी आसानी से पहचान लेते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार ध्वनिप्रदूषण के मुख्य स्रोत दो ही हैं-
(1) प्राकृतिक स्रोत (2) कृत्रिम स्रोत। प्राकृतिक स्रोत के अंतर्गत बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की कड़क, तूफानी हवाएँ, भूकंप व ज्वालामुखी फटने की भीषण आवाजें होती हैं, परंतु वह सब अस्थायी होता है। कृत्रिम शोर में उद्योगधंधे, मशीनों की घरघराहट, स्थल एवं वायु परिवहन के साधन, मनोरंजन के साधन व अन्य आवाज करने वाले क्रिया−कलाप शामिल हैं। शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में लगातार बढ़ते शोर या ध्वनिप्रदूषण से नित नई समस्याएँ पैदा होती है। महानगरों, नगरों और यहाँ तक कि भीड़भाड़ वाले कुछ कस्बों में ध्वनिप्रदूषण का स्तर काफी अधिक है। मुँबई, कलकत्ता, दिल्ली, मद्रास और कानपुर जैसे शहरों में ध्वनिप्रदूषण का स्तर 85 से 115 डेसीबल तक पहुँच चुका है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के अनुसार इसकी अधिकतम सीमा 45 डेसीबल है। 130 डेसीबल की ध्वनि तो अतिकष्टदायी तथा असह्य होती है।
50 डेसीबल का शोर सोते हुए आदमी को जगाने के लिए पर्याप्त है। 50 से 80 डेसीबल की ध्वनि सोते हुए व्यक्ति की धड़कन को तेज कर सकती है। लाउडस्पीकर से 50 से 80 के अनुपात के लगभग ध्वनि प्रसारित होती है। फुसफुसाहट से 15-20 डेसीबल का कंपन होता है। ट्रैफिक शोर में 40-45, साधारण बातचीत में 40-60, गुस्से भी बातचीत में 70-80, मोटरसाइकिल में 90, अखबारी प्रेस में 100, शेर की दहाड़ में 110, राकेट 170, साइरन 200 तथा ग्रामीण मेले 80 से 90 डेसीबल तीव्रता की ध्वनि निकलती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सन् 1990 के मानकों के अनुसार रात्रि के समय घर के अंदर 35 डेसीबल की ध्वनि होती है तो इससे बराबर नींद खुलती रहती है। दिन के समय प्रायः यह ध्वनि 45 डेसीबल के आसपास होती है, जिससे बातचीत में व्यवधान पड़ता है। शहरी क्षेत्र में रात्रि में यह तीव्रता 45 तथा दिन में 55 के लगभग होती है। शहरी क्षेत्र में रात्रि में यह तीव्रता 45 तथा दिन में 55 के लगभग होती है। इससे नींद में व्यवधान, खीझ, झुँझलाहट एवं गुस्सा आता है। औद्योगिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में यह 75 डेसीबल होती है, जबकि 75 डेसीबल का भार 8 घंटे तक लगातार सुनने पर बहरापन आ सकता है। औद्योगिक क्षेत्रों में 45 प्रतिशत लोगों के बहरेपन का कारण यही है।
ध्वनि यह यों कहें शोर की यह तीव्रता पटाखे से 120 डेसीबल, डिस्को संगीत से 120, बिजली की कड़क से 120, रेलगाड़ी की सीटी से 110, भारी तूफान से 110, जोर से चिल्लाने से 100, टेलीफोन की घंटी से 70, शोर करते बच्चों से 60-80 तथा गलियों में शोरगुल से 70 डेसीबल के कंपन पैरा होते हैं। ये काफी तेज व प्रभावी होते है। 13 डेसीबल ध्वनि में सहनशक्ति घटकर चार घंटे रह जाती है, जबकि 16 डेसीबल पर केवल 2 घंटे। 120 डेसीबल में रहने वाले व्यक्तियों के कान में दर्द, 150 से त्वचा में जलन, 160 से टिम्पेनिक मेम्ब्रेन प्रभावित होता है तथा 180 डेसीबल की ध्वनि स्थायी बहरापन लाने में सक्षम है।
सन् 1904 में नोबुल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट कारव ने शोर के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था- एक दिन ऐसा आएगा, जबकि मनुष्य को अपने स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में निर्दयी शोर से संघर्ष करना पड़ेगा। मानव को शोर से संघर्ष करना पड़ेगा। मानव को शोर के विरुद्ध वैसा ही युद्ध लड़ना पड़ेगा, जैसा कि उसने चेचक, प्लेग, हैजा, व मलेरिया के विरुद्ध लड़ा था। जापान, इटली, इंग्लैंड, फ्राँस, जर्मनी, रूस एवं अमेरिका जैसे देशों में तो बाकायदा यह मुहिम छिड़ भी गई है।
जर्मन दार्शनिक शेपनहॉवर बड़े ही शाँतिप्रिय एवं संवेदनशील व्यक्ति थे। उन्नीसवीं शताब्दी में वे अपने घर के पास की सड़क पर चलते गाड़ीवान् की चाबुकों की फटकार से विकल हो उठते थे। वह कहा करते थे- शोर उर्वन मस्तिष्क के लिए अत्यंत हानिकारक है। यह मस्तिष्क को अशक्त एवं चिंतन को नष्ट कर डालता है। अमेरिकी राजनेता, वैज्ञानिक और साहित्यकार डॉ. बेंजामिन फ्रेंकलिन ने एक बार अपना आवास इसलिए बदल दिया था कि उनके घर के पारस बाजार के कोलाहल से उनके चिंतन में विघ्न पड़ता था। डॉ. नीलस्केगी तथा डॉ. फ्राँसब्रोक ने काफी पहले ही बहरेपन पर शोधग्रंथ लिखकर स्पष्ट कर दिया था कि ध्वनिप्रदूषण अगणित रोगों-तकलीफों का मुख्य कारण है।
विकसित देशों के संदर्भ में यह बात पूरी तरह सही हैं वहाँ तो बहरेपन बढ़ते जाने का मुख्य कारण शोर है। डगलस स्थित अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन की वाक् शाखा के निदेशक डॉ. ग्लोरिग की मान्यता है कि संपूर्ण पृथ्वी शोर से बुरी तरह से ग्रसित है तथा इसका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है। न्यूयार्क माउंट सिनाई अस्पताल के डॉ. सेमुअन रोबजन इसी को मानसिक तनाव का प्रधान कारण मानते हैं। विख्यात मनोचिकित्सक एडवर्ड सी. लयूज का मानना है कि निरंतर तेज शोर-शराबे से दिमागी हालत खतरे में पड़ सकती है। स्वच्छ पर्यावरण के लिए ठित समिति द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार मुंबई के 37 प्रतिशत लोग निरंतर इस प्रदूषण को झेल रहे हैं। 76 प्रतिशत लोगों की शिकायत है कि वे शोर की वजह से मानसिक रूप से परेशान हैं। आज भारत के शहरों में रहने वाले 69 प्रतिशत लोगों को ध्वनिप्रदूषण के कारण पूरी तरह नींद नहीं आती।
ध्वनिप्रदूषण मानवीय क्रिया–कलापों को मुख्यतया तीन तरह से प्रभावित करता है-1. श्रवण शक्ति पर प्रभाव, 2. शरीर की जैविक क्रियाओं पर प्रभाव 3. सामाजिक व्यवहार पर प्रभाव। उद्योगों में काम कर रहे 50 प्रतिशत लोग इसके प्रभाव से बुरी तरह से प्रभावित है। ट्रैफिक कंट्रोल से जुड़े 80 फीसदी व्यक्ति, श्रवणेंद्रियों की परेशानियों के शिकार हुए है। एक अध्ययन के अनुसार विभिन्न स्कूलों और कॉलेजों के 5000 छात्रों पर इसके प्रभाव को देखा गया। इनमें से जो छात्र तेज या झन्नाटेदार संगीत के शौकीन थे और मोटरसाइकिल की घरघराहट के लगातार संपर्क में रहते थे, वे अपनी 35 से 50 प्रतिशत श्रवण शक्ति खो चुके थे।
विकसित कहे जाने वाले देशों की युवक-युवतियों की तो इससे भी बद्तर स्थिति है। टोकियो में एक वर्ष के अंदर ही शोर से संबंधित 14000 शिकायतें दर्ज की गई। अपने ही देश में पश्चिमी मध्यप्रदेश के कुछ प्रमुख शहरों से देवास, इंदौर, उज्जैन के आंकड़े तो काफी चौंकाने वाले हैं। कुछ समय पूर्व यह क्षेत्र अति शाँत क्षत्र के रूप में जाना जाता था, जबकि हाल में हुए सर्वेक्षण के वैज्ञानिक विश्लेषण से पता चलता है कि यहाँ के लोगों में सामान्य चयापचय एवं आँतरिक क्रियाओं में काफी परिवर्तन पाया गया है। अनिद्रा, बहरापन, रक्तचाप और महिलाओं के मासिक चक्र में गड़बड़ी अत्यधिक तादाद में देखी गई है।सूडान देश की एक जनजाति “मवान” है। यह जाति अत्यंत ही शाँत वातावरण में रहती है। ये लोग किसी भी प्रकार के रक्तचाप व हृदय की बीमारी से ग्रसित नहीं होते। जबसे इन्होंने अधिक शोरवाले इलाकों में अपने घर बनवाना शुरू किया, तब से इन्हें कई तरह के रोग होने लगे।
शोर शरीर की क्रियात्मक गतिविधियों को काफी हद तक प्रभावित करता है। मनुष्य के स्वचालित स्नायुतंत्र के माध्यम से अधिक शोर का प्रभाव हृदय एवं पाचनतंत्र पर पड़ता है। शोरगुल से एड्रेनेलीन नामक हार्मोन का अतिस्राव होता है। इससे हृदय के क्रिया–कलापों में व्यतिक्रम आता है और मुक्त वसीय अम्ल व कोलेस्ट्रॉल रक्त में पहुंचता है। चिकित्सकों का मत है कि हर तीन स्नायुरोगों के मामलों में से एक तथा सिरदर्द के पाँच मामलों में से चार के लिए बढ़ता हुआ शोर ही उत्तरदायी है। ब्रिटेन में लगभग हर चौथा आदमी स्नायु संबंधी रोग से पीड़ित है। आधुनिक शोधप्रयत्नों से यह जानकारी मिली है कि ध्वनिप्रदूषण हाइपोथेलेमस तथा पिट्यूटरी ग्रंथियों पर सीधा असर करता है। इससे अंतःस्रावी ग्रंथियों की कार्यप्रणाली विचलित हो जाती है। ध्वनि के मामले में बच्चे व महिलाएँ बहुत संवेदनशील होते हैं। इस क्रम में माँ के गर्भ में पलने वाला बच्चे भी शोर से नहीं बच पाता है। अजन्मे बच्चे की घड़कन शोर के कारण बढ़ जाती है। गर्भवती स्त्री का अधिक शोर में रहना शिशु में जन्मजात बहरेपन का कारण बन सकता है, क्योंकि कान गर्भ में पूर्णरूपेण विकसित होने वाला पहला अंग है।
बैक्टीरिया के अलावा अन्य समस्त जीवधारियों में एक बायोलॉजिकल घड़ी होती है। यही जैविक क्रियाओं का नियमन, संपादन और उचित समन्वयन करती है। ध्वनिप्रदूषण इस जैविक घड़ी को बुरी तरह झकझोर कर रख देता है। इससे मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर होता है। शिशु विशेषज्ञ डॉ. अवधेश कुमार के अनुसार, ध्वनिप्रदूषण के कारण बच्चों को विस्टेजियल इंफेक्शन हो रहा है। संक्रमण से एक्यूम बेकोलाइट्रस तथा फ्रैंक निमोनिया हो जाता है। इस वजह से बच्चे अधिक तेजी से साँस लेते हैं। ध्वनिप्रदूषण से सिरदर्द व तनाव में वृद्धि होती है। कान द्वारा मानवशरीर का संतुलन बना रहता है। परंतु अत्यधिक ध्वनि से संतुलन क्षमता में कमी आती है। रोजमर्रा की जिंदगी में व्याप्त कोलाहल को सामाजिक तनावों, लड़ाई-झगड़ा, मानसिक अस्थिरता, कुँठा तथा पागलपन आदि विकारों का कारण माना जाता हैं यह मनुष्य की कार्यक्षमता को कम करता है तथा देश एवं समाज के आर्थिक विकास में भी बाधा डालता है। शोर का घातक प्रभाव अन्य जीवों तथा निर्जीव पदार्थों पर भी देखा गया है। इससे मुर्गियों के अंडे देने तथा गाय, भैंसों के दूध देने की दर में कमी आ गई। बड़े-बड़े नगरों की बहुमंजिली इमारतों की छतों में दरारें पड़ गई।
ध्वनिप्रभाव और श्रवणशक्ति से संबंधित जैवरासायनिक अनुसंधानकर्ता डॉ. डेसूचर के अनुसार तीव्र ध्वनि हमारे शरीर के मल ऊर्जा उत्पादन संस्थान में परिवर्तन लाती है, जिसके फलस्वरूप चयापचय की क्रिया प्रभावित होती है। कान के पेरीलिम्फ का ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है। रक्तवाहिनियों के संकुचन, आहार नाल की विकृतियाँ, ऐच्छिक-अनैच्छिक माँसपेशियों में तनाव इत्यादि प्रभाव नजर आने लगते हैं। हृदयगति भी धीमी हो जाती है और गुर्दे पर प्रतिकूल असर पड़ता है। कोलेस्ट्रॉल के बढ़ जाने से रक्त शिराओं में हमेशा के लिए तनाव उत्पन्न हो जाता है। और दिल का दौरा पड़ने की आशंका पैदा हो जाती है। अधिक शोर से नेत्रगोलकों पर भी तनाव उत्पन्न होता है, जिससे आँखें बारीक काम करने पर एकाग्र नहीं ही पातीं।
शोर नियंत्रण आज के जमाने में कठिन काम जरूर है, फिर भी इसकी रोकथाम इनसानी अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। स्रोत की शेरक्षमता कम करके ध्वनि के मार्ग में बाधा उत्पन्न करके तथा ध्वनि सुनने वाले को सुरक्षा प्रदान करके काफी हद तक इसे किया जा सकता है। वैसे इसका सर्वमान्य हल है-वृक्षारोपण। विज्ञानवेत्ताओं की राय है कि ताड़, नारियल, इमली, आम इत्यादि के लंबे एवं घने वृक्ष लगाने चाहिए। पेड़ों के पत्ते ध्वनि को अवशोषित करते हैं। वृक्षों से वातावरण का 10 प्रतिशत डेसीबल तक शोर कम किया जा सकता है। घर के बाहर में मेंहदी की बाड़ भी ध्वनिप्रदूषण को रोकने में सहायक हो सकती है। ध्वनिविशेषज्ञों के अनुसार रंगों में हलका हरा-सा रंग ध्वनि के लिए सर्वाधिक अवरोध होता है। अतः इन रंगों से घर को पुतवा लेने से भी कुछ राहत मिल सकती है।
जो भी हो, पर इतना सर्वप्रचलित सच है कि ध्वनिप्रदूषण मनुष्य एवं समाज के लिए सर्वनाशी एवं विध्वंसक सिद्ध होता जा रहा है। मानव, देश व समूचे विश्व की शांति प्रगति तथा विकास हेतु दिशापरिवर्तन आवश्यक और अपरिहार्य है। ऐसे में वृक्षारोपण जैसी सृजनात्मक क्रियाओं को अपनाने के साथ ऐसी जीवनशैली का विकास करना चाहिए, जो आज के कृत्रिम दौर का रुख मोड़कर उसे प्रकृति की ओर उन्मुख कर सके। बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के उद्देश्य से इस महत् कार्य करने में प्रत्येक जागरूक एवं विचारशील को अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी चाहिए।