
मादरे वतन पर कुरबान एक जाँबाज
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उसने न केवल देवगिरि पर विजय प्राप्त कर ली थी, बल्कि अपने चाचा जलालुद्दीन का वध करके दिल्ली का सिंहासन भी हथिया लिया था। सिंहासन पाने के बाद उसने अपने सहयोगियों और अनुयायियों को धन, पद और सम्मान देकर संतुष्ट किया। अपने भाई अयमस बेग को डलगु खाँ, मलिक हजबरुद्दीन को जफरी खाँ और मलिक नसरत खाँ को नसरत खाँ की उपाधि देकर तथा जनता में स्वणमुद्राओं की बौछार करके अपने प्रति आकृष्ट किया।
वह महत्वाकाँक्षी तो था ही, गुजरातविजय के बाद उसकी आँखें राजपूताना की ओर गईं। एक ओर तो चित्तौड़ की रानी पद्मिनी के अपूर्व सौंदर्य की अतृप्त पिपासा, तो दूसरी और रणथम्भोर जैसे अभेद्य दुर्ग पर विजय पाने की उत्कट अभिलाषा। उसने रणथम्भोर के राणा को संदेश भेजा’ या तो हमारे यहाँ से भागे हुए नवमुस्लिमों को हमारे सुपुर्द करो अथवा उनका वध कर दो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’
रणथम्भोर के राणा हम्मीर बहादुर राजपूत शासक थे। शरणागतों की रक्षा करना वह अपना धर्म समझते थे। उन्होंने शरणागतों की रक्षा की अपनी परंपरा का उल्लेख करते हुए उत्तर भेजा, ‘वह यद्यपि सुलतान से शत्रुता मोल लेने के इच्छुक नहीं हैं, पर फिर भी उन्हें किसी की भी शत्रुता से भय नहीं है। उन्हें किसी का भी भय इस बात के लिए विवश नहीं कर सकता कि वह अपने कर्त्तव्य से मुख मोड़कर अपने शरणागतों को उनके सुपुर्द करें।’
उसकी तो चाहत ही किसी तरह से अपने युद्धोन्माद को पूरा करने की थी। उसने डलगु खाँ और नसरत खाँ को शाही सेना की कमान सौंपी और आदेश दिया कि रणथम्भोर पर ऐसा भयंकर हमला किया जाए कि तवारीख से रणथम्भोर की शहंशाहियत का नामोनिशान हमेशा के लिए मिट जाए और वहाँ पर दिल्ली की हुकूमत का परचम लहरा उठे।
शाही सेना बड़े उत्साह और उमंग के साथ रणथम्भोर की ओर चल पड़ी। कुछ दिनों की रणयात्रा के पश्चात् युद्ध प्राँगण में दोनों ओर की सेनाएँ आ डटीं। जहाँ एक ओर अत्याचारी सुलतान के सैनिकों के हृदय में अपने शासन की पताका फहराने का उन्माद था, वहीं दूसरी ओर रणथम्भोर के वीर रणबाँकुरों की रगों में स्वतंत्रता के खौलते रक्त का तेज प्रवाह था। अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता बचाने के लिए प्रत्येक वीर सैनिक के हृदय में मर मिटने की उत्कट चाहत थी।
उनमें से कोई नहीं चाहता था कि उनकी रणथम्भोर की पवित्र धरती पर विदेशी शासन की कलुषित छाया तक पड़े। अतः अपने मान-सम्मान एवं हृदयों के सम्राट राणा हम्मीर के इशारे पर इस्लामी सेना का सामना करने के लिए युद्धभूमि में सिरों पर कफन बाँधकर वे आ डटे। एक ओर इस्लाम के प्रचार व साम्राज्यप्रसार का जोश तो दूसरी ओर शरणागतों की रक्षा का उल्लास और दायित्व। दोनों ओर से भयंकर युद्ध हुआ। राजपूतों की असहनीय मार से नसरत खाँ युद्ध में मारा गया और डलगु खाँ को पीछे हटना पड़ा।
सुलतान को जब यह समाचार प्राप्त हुआ, तो उसके क्रोध का पारा आसमान को छू गया। उसे अपने स्वर्णिम स्वप्नों के महल ढहते हुए प्रतीत हुए और सारी शहंशाहियत धूल में मिलती हुई दिखाई देने लगी। उसे लगा कि जैसे सारे प्रलयंकारी बादल सिर पर मँडराने लगे हैं और इनके प्रकोप से खिलजी वंश लिए जाएगा। उसकी आँखों के सम्मुख अँधेरा छा गया। उसके रक्त की उष्णता में मानो शीतलता आ गई। लेकिन फिर प्रिय सेनापति नसरत खाँ की मूकछाया उसके मस्तिष्क में एक बार उसे ललकारती हुई नाच उठी। उसे लगा कि नसरत खाँ का बदला, साम्राज्य का प्रसार सब कुछ रणथम्भोरविजय पर ही निर्भर है। अतः कुछ क्षणों में ही उस में आत्मविश्वास जाग उठा। उसके मृत विचारों में एक प्रलयंकारी चेतना जाग उठी। उसकी रगों में रक्त का प्रवाह तेज हो उठा। उसकी लड़खड़ाती जीवननौका को मानो किनारा मिल गया। उसने स्वयं शाही सेना के संचालन का संकल्प कर लिया और वह युद्धभूमि में आ पहुँचा।
दोनों ओर से भयंकर युद्ध हुआ। भयंकर युद्ध की चीत्कारों, हाथियों की प्रलयंकारी चिंघाड़ों और अश्वों की हिनहिनाहट से सारा वातावरण गूँज उठा। दोनों ओर के सैनिकों ने अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया। पर इस बार रणथम्भोर की भाग्यलक्ष्मी मानों रुष्ट हो गई थी और विदेशी छाया पड़ने के आसार प्रकट होने लगे थे। हम्मीर की सारी आशाओं पर पानी फिर गया। अपने देश की स्वतंत्रता को बचाने के सारे उपाय निष्फल हो गए। राणा हम्मीर मारे गए। नारियों के जौहर से निकली भयानक आग की विशाल लपलपाती लपटों से समूचा रणथम्भोर भस्म होता दिखाई देने लगा।
इस युद्ध में विजय सुलतान अलाउद्दीन को प्राप्त हुई; पर वह राजपूतों का अदम्य उत्साह एवं अपूर्व वीरता देख चुका था और उस राजपूत सेना के एक नवयुवक रणबाँकुरे का रणकौशल उसके हृदय में घर कर गया था, जो कि अपने देश की रक्षा के लिए अपूर्व साहस व वीरता प्रदर्शित कर चुका था। उससे परिचय पाने के लिए लालायित हो उठा, ताकि चलते वक्त उसकी वीरता के लिए उसे शाबाशी दे सके और संभव हो तो उसे अपनी सेना का सिपहसालार बना दे। इसी विचार से वह जब ढलती हुई शाम में मशालों के बीच में हाथी पर चढ़ा हुआ सेना के घायल सैनिकों को देख रहा था, तो उसे असीम वेदना से कराहते हुए एक घायल सैनिक की आवाज कानों में सुनाई पड़ी। वह रुक गया। उसकी आँखें उस घायल नवयुवक के रक्तरंजित मुख पर अटक गईं। मशाल की लौ और तेज हो गई। उसका चेहरा और स्पष्ट हो गया। यह वही रणबाँकुरा था, जिसकी उसे तलाश थी। सुलतान उसे देखते ही अपने को सँभाल न सका, पूछ बैठा-
“नौजवान, तुम्हारा नाम।”
“मुहम्मद! “ एक कराह मुँह से निकली।
इस्लामी नाम सुनकर शहंशाह के मन में जातीयता का विस्फोट हो गया। मन-ही-मन एक सिहरन और गुदगुदी पैदा हुई। मुसकराकर पूछा- “और जाति?”
“मुगल पठान।” और कराहने की आवाज तेज हो गई।
सुनते ही मानो सुलतान की रगों में रक्त का प्रवाह और तेज हो गया। प्रसन्नता से हृदय की धड़कनें तीव्रतर हो गईं। इस्लामी नवयुवक और वह भी पठान, सोचते ही मुँह से निकल गया, “सुभान अल्लाह।” अलाउद्दीन के हृदय में उसके प्रति अब और जातीय स्वार्थ जाग्रत हो गया। इसलिए कि वह मुसलमान है। वह सोचने लगा-काश यह हमारी सेना में आ जाए। तभी मशाल की लौ और भी अधिक तेज हो गई। सुलतान कुछ क्षण चुप रहकर बोल उठा “नौजवान! हम तुम्हारी दिलेरी देखकर बहुत खुश हैं।”
“शुक्रिया।”
“हम सोचते हैं कि तुम्हारे घावों का इलाज करा दिया जाए।”
“बेहतरीन।”
“लेकिन अगर तुम्हारे घाव ठीक हो जाएँ तो फिर तुम क्या करोगे?”
“काश! मेरे घाव ठीक हो जाएँ और मेरे जिस्म में पहले जैसी खून की रवानगी हो जाए तो मैं वह पहला आदमी हूँगा, जो कि अपने मादरेवतन पर नापाक नजर डालने की जुर्रत करने वाले तुम जैसे काफिर की गरदन अपनी शमशीर से अलग कर दूँगा।” सहसा उसकी आँखें चमक उठीं।
मशाल की लौ सहसा हवा के झोंकों में काँप उठी। सुलतान चिल्ला उठा, भौंहें तन गईं, नाक के नथुने फूल गए, क्रोध में मुट्ठियां बँध गईं। वह हौदे में घुटने के बल उचककर बैठता हुआ चिल्ला पड़ा, “नमक हराम! काफिर! तू अब मेरी नजर के सामने अधिक साँसें लेने के काबिल नहीं। मैं तो चाहता था कि तुझे आसमान पर बिठा दूँ। परंतु नाली का कीड़ा नाली में ही रहना पसंद करता है। तो तू भी वही रहा।” और इतना कहकर उसने अट्टहास के साथ महावत को इशारा किया। अगले पल ही हाथी का अगला पाँव उस नवयुवक के मुँह से एक चीख निकली। सारे शरीर की नसें खिंच गईं। हथेलियाँ तन गईं और आँखें सदा-सदा के लिए बंद हो गईं। नवयुवक ने मुसलमान होकर भी अपनी मातृभूमि का ऋण चुका दिया, जिसकी गोद में वह पला था। उसकी आत्मा परिष्कृत हो गई।
अलाउद्दीन डलगु खाँ को वहाँ का शासक नियुक्त करके यह आदेश दे गया, “भले ही यह नौजवान मेरी नजरों में काफिर था, पर फिर भी वह एक बाँका दिलेर था और मादरे-वतन पर मर मिटने वाली बेमिसाल खूबसूरत हीरा था। ऐसे नौजवान की याद में एक कब्र बनवा दी जाए और उसके पत्थर पर लिखवा दिया जाए-’एक ऐसे जियाले मुस्लिम नौजवान की यादगार, जिसने अपने मजहब व कौम की परवाह न करते हुए केवल अपने वतन की खातिर अपने को कुरबान कर दिया’।”