
धन-वैभव, महालक्ष्मी का कृपाप्रसाद
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लक्ष्मी को धन-संपदा की अधिष्ठात्री देवी माना गया है।पौराणिक दृष्टि से वह विश्व का पालन करने वालीसत्ता विष्णु की अर्द्धांगिनी है। विष्णुभक्त ही नहीं, अन्य इष्ट-आराध्य की उपासना करने वाले श्रद्धालु भी उसे माता कहते हैं। “श्री सूक्त” “लक्ष्मी सूक्त” “महालक्ष्मी स्तोत्र”ए “लक्ष्मीयंत्र”, “श्री सिद्धि” जैसे अनेक विधान हैं, जिनमें नारायणी का मंत्रशक्ति के रूप में आराधना की गई है। विपर्यय के न जाने किस दौर में यह मान्यता प्रचलित हो गई कि लक्ष्मी चलपा और चंचला है। वह किसी एक जगह स्थिर नहीं रहती। उसके आशीर्वाद-वरदान बरसते और बदलते रहते हैं। चपला-चंचला और कहीं भी पहुंचने, अपनी कृपा समेट लेने की धारणा उस दौर में ही जन्मी जब ज्ञान और साधना की परंपरा छिन्न-भिन्न होने लगी थी। बाहरी आक्रमणों ने संपन्न-वैभवशाली लोगों के लिए जीवनसंकट खड़ा कर दिया। श्री-समृद्धि की अधिष्ठात्री के आशीष उन्हीं दिनों अभिशाप समझे जाने लगे होंगे, अन्यथा धन एक शक्ति है, ऐश्वर्य “ईश्वर” की ही अभिव्यक्ति है।
महर्षि अरविंद ने लक्ष्मी को मातृशक्ति का ललित और सम्मोहक रूप कहा है। उन्होंने लिखा है-केवल प्रज्ञा और शक्ति की भगवती माता के व्यक्त रूप नहीं हैं, उनकी प्रकृति का एक और सूक्ष्म रहस्य है, जिसके बिना प्रज्ञा और शक्ति अपूर्ण रहती है-वह है महालक्ष्मी। उसकी ओर सभी बड़े उल्लास और उत्कंठा से मुड़ते हैं,क्योंकि वह भगवान् की सम्मोहक मधुरता का जादू फैलाती है। उनके पास होने का अर्थ ही है-गहन सुख पाना और उन्हें अपने हृदय के अंदर अनुभव करना। महालक्ष्मी से लावण्य, मोहकता और मधुरता इस तरह प्रवाहित होती है, जैसे सूर्य का प्रकाश।
महालक्ष्मी भागवत् चेतना का सौम्य और मृदुल स्वरूप है। श्री अरविंद ने महेश्वरी, महाकाली और महासरस्वती के रूपों में भी उसकी व्याख्या की है। महालक्ष्मी को वे विश्व की विभिन्न सत्ताओं को बाँधे रखने और आनंद देने वाली शक्ति बताते हैं। उन्होंने लिखा है- यह ज्ञान और शक्ति के ऊपर शाश्वत सौंदर्य का चमत्कार है। दिव्य सामंजस्यों का अगम रहस्य है, अतिसम्मोहक विश्वव्यापी मनोहरता और आकर्षण का जादू है, जो वस्तुओं, शक्तियों और सत्ताओं को आकर्षित करता है। उन्हें मिलने और एक होने के लिए बाधित करता है, ताकि छिपा हुआ आनंद परदे के पीछे अपना स्वरूप बना सके। यह महालक्ष्मी की शक्ति है और देहधारी सत्ताओं के लिए दिव्य शक्ति का कोई रूप इतना आकर्षक नहीं होता।
वैभव-समृद्धि को अवगुण और दोषों का जनक बताकर निंदित किया गया है। एक अर्थ में यह सभी भी है कि लोग धन आने के बाद बुराइयों, दुर्गुणों और दोष-दुष्प्रवृत्तियों से घिर जाते हैं, लेकिन इसके लिए धन-संपदा नहीं, पतित होने वाले व्यक्ति के संस्कार उत्तरदायी हैं।धन शक्ति है। उसका उपयोग कल्याण के लिए भी हो सकता है और भोग-विलास के रास्ते अनिष्ट-अमंगल के लिए भी। व्यक्ति के अपने संस्कार हैं कि वह उत्थान की दिशा चुनते हैं या पतन-प्रवाह में गिरते हैं। श्री अरविंद के अनुसार धन-वैभव पर आसुरी तत्वों ने अधिकार कर लिया। इसी कारण वह उन्माद, उद्दंडता और उत्पीड़न का प्रतीक बना। “द मदर” पुस्तक में वह लिखते हैं-भगवान् को अन्य शक्तियों की भाँति यह शक्ति भी निम्नतर प्रकृति के लोगों को सौंप दी गई। इसका अपहरण अहंकार के लिए या आसुरी प्रयोजनों के लिए किया जाने लगा। आसुरी प्रभावों की पकड़ में आकर उन उद्देश्यों के लिए इसे विकृत किया जा सका। वास्तव में यह उन शक्तियों में से एक है, जिनके लिए मानव और असुरों में सबसे ज्यादा आकर्षण होता है। जिन लोगों के पास में शक्तियां-सत्ता, धन और सृजन हैं, वे ज्यादातर अनधिकारी हैं। उनके हाथों इन शक्तियों का दुरुपयोग ही होता है बहुत कम लोग उस विकृतिकारक प्रभाव से बच पाते हैं, जिसकी छाप लंबे समय से असुरों के हाथों में रहने से इस पर लग-सी गई है।
श्री अरविंद की दृष्टि में आध्यात्मिकता पर जोर देने वाली विभिन्न संस्कृतियों ने त्याग-तप के लिए आत्यंतिक आग्रह रखा। वह आग्रह धन के तिरस्कार की सीमा तक गया। बाइबिल का वह उपदेश प्रसिद्ध है जिसमें किसी अमीर व्यक्ति को ईश्वर के राज्य में प्रवेश लगभग असंभव बताया गया है। कहा गया है कि सुई के छेद से ऊट का निकलना आसान है, लेकिन धनवान् का सुख से रहना कठिन है। श्री अरविंद ने धन-वैभव के आसुरी उपयोग को त्याज्य बताया है, उसे वर्जित किया है। पिछले युग में इस प्रवृत्ति ने इतना जोर पकड़ा कि धन की कामना को ही निंदनीय मान लिया गया।
वे लिखते हैं, इसी कारण अधिकाँश आध्यात्मिक साधनामार्ग पूर्ण आत्मसंयम और अनासक्ति पर तथा धन और उसे पाने की सारी व्यक्ति और अहंकारयुक्त अभिलाषा के त्याग पर बल देते हैं। यहाँ तक कि कुछ तो धन और वैभव पर प्रतिबंध लगा देते हैं और जीवन की दरिद्रता तथा रिक्तता को ही एकमात्र आध्यात्मिक अवस्था घोषित करते हैं, किंतु यह एक भूल हैं, जो उस शक्ति को विरोधी सत्ताओं के हाथों में छोड़ देती है। यह भगवान् की शक्ति है और इसे भगवान् के लिए पुनः अर्जित करना और भागवत्-भाव से भागवत् जीवन के लिए इसका उपयोग करना चाहिए।
धन-संपदा भगवती महालक्ष्मी का अनुग्रह-वरदान है। अनुग्रह को श्रद्धा से ग्रहण किया जाता है, स्वामी बनकर नहीं। राजसत्ता, संस्थाएँ और समाज जब किसी को सम्मानित करते हैं तो लोग अनुग्रहीत होते हैं, विजय अथवा स्वामित्व के मद में चूर नहीं हो जाते। धन के प्रति स्वामी का नहीं ग्रहण शीलता का भाव होना चाहिए। अपने को उसका स्वामी नहीं रक्षक और साधक समझना चाहिए। श्री अरविंद लिखते हैं सारा धन भगवान् का है, वह जिन लोगों के हाथों में है, वे उसके मालिक नहीं, न्यासी या ट्रस्टी हैं। आज वह उन लोगों के पास, कल कहीं और हो सकता हैं। सब कुछ इस पर निर्भर है कि जब तक धन उनके पास है, वे अपनी धरोहर को किस भाव से, किस चेतना से, किस उद्देश्य से उपयोग करते हैं।
धन-संपदा का उपयोग किस प्रकार होना चाहिए? श्री अरविंद कहते हैं-प्रसाद की तरह। मंदिर में मिलने वाले प्रसाद को न कोई लोभ-लालच से संचित करता है और न ही टूट पड़ने की तरह खाने-डकारने लगता है। महालक्ष्मी के प्रसाद का सेवन किस तरह करना चाहिए, इस पर श्री अरविंद पुनः लिखते हैं-धन का अपने लिए उपयोग करते हुए जो कुछ तुम्हारे पास है, तुम्हें मिलता है या तुम जो कुछ लाते हो, उसे माँ का मानो। कोई माँग न करो, वरन् जो कुछ वह दे, उसे स्वीकार करो और जिस काम के लिए दिया गया हो उसी काम में उसे लगाओ। पूरी तरह निःस्वार्थी, पूरे ईमानदार और सच्चे बनो। सदा ध्यान रखो कि तुम जिस धन का है, तुम्हारा नहीं। दूसरी ओर माँ के लिए जो कुछ तुम्हें मिले, उसे धार्मिक भाव से उनके सामने रखो। अपने या और किसी के काम में स्वार्थभावना से कुछ भी न लगाओ।
किसी को उसके धन के कारण ऊँचा न समझो और न उसके आडंबर, शक्ति या प्रभाव का अपने ऊपर असर होने दो। माँ के लिए जब किसी से माँगों तो वह अनुभव करो कि एक छोटा-सा अंश मात्र माँग रही है, जो वस्तुतः उनकी ही है।
संपन्नता और विपन्नता में समान भाव से रहने को साधना का उत्तम रूप बताते हुए श्री अरविंद ने लिखा हैं कि दरिद्रता में रहना पड़े तो रहें, अभाव की कोई भावना नहीं खटके, न ही साधक के भीतर भागवत् चेतना के क्रीड़ा-कल्लोल में कोई बाधा पड़नी चाहिए। यदि समृद्धि में रहना पड़े तो प्रसन्नतापूर्वक रहा जाए। एक क्षण के लिए भी इच्छाओं और वासनाओं के गर्त में न गिरें, धन या अपने व्यवहार की चीजों पर आसक्त न हों, विलासी न बनें। भगवान् की इच्छा और भगवत् आनंद ही साधक के लिए सब कुछ होना चाहिए।