
सही मायने में राष्ट्रीय पर्व दीपावली
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अन्य पर्व-त्योहारों के संबंध में सही भी हो सकता है कि वे क्षेत्रविशेष में या कुछ-ज्यादा क्षेत्रों में प्रचलित हैं, लेकिन दीपावली के संबंध में यह बात नहीं है। उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक वह पूरे देश में मनाई जाती है। श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया, बाँग्लादेश, पाकिस्तान नेपाल आदि देशों में भी यह पर्व मनाया जाता है- उन सभी देशों में जो कभी भारत का हिस्सा रहे हैं या जहाँ आज भी भारतीय संस्कृति का प्रभाव है। पाँच दिन तक चलने वाले इस महापर्व में कितने ही संदर्भ जुड़े हुए हैं। वे भारत में उद्भूत हुए सभी धर्मों और संप्रदायों के विश्वास से जुड़े हुए है। वैदिक मत के अनुयायियों के अलावा जैन, सिख, बौद्ध और वेदों में असद् भक्ति रखने वाले सभी संप्रदायों के शलाकापुरुष कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुरू होने वाले महापर्व में किसी-न-किसी दिन याद किए जाते हैं। उनकी कोई स्मृति पाँच दिन के किसी समय से जुड़ी है। इसीलिए यह माँग उठती रही है कि दीपावली को राष्ट्रीय पर्व घोषित किया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और महात्मा गाँधी की जन्म जयंती पिछले पचास-बावन सालों से मनाई जाती है। उनकी गरिमा और महत्ता अक्षुण्ण हैं। उस आँच आने दिए बगैर दीपावली को राष्ट्रीय पर्व मानने के पीछे आग्रह भी है कि यह पर्व भारतीय संस्कृति और परंपरा की पुरातन पहचान से संबद्ध है। धार्मिक या पारंपरिक कारणों से यदि संकोच हो तो भी कोई हर्ज नहीं है। दीपावली को लोकसमाज ने तो राष्ट्रीय पर्व मान ही लिया है। धनतेरस या धन्वंतरि जयंती, नरक चतुर्दशी, कालिपूजा, लक्ष्मीपूजा, हनुमान जयंती, महावीर निर्वाण, बलि प्रतिपदा, गोवर्द्धन पूजा, नवसंवस्तर, भई दूज और यम द्वितीया जैसे एकादश संदर्भों वाले इस अवसर को लोकपर्व की प्रतिष्ठा तो सदियों से मिली हुई है।
दीपावली का सामान्य परिचय लक्ष्मीपूजा के उत्सव के रूप में है। समुद्रमंथन के समय इस दिन लक्ष्मी के प्रकट होने की अंतर्कथा वाला यह प्रसंग दीपावली का प्रमुख संदर्भ है। पौराणिक महत्व के साथ व्यावहारिक सच्चाई भी है कि लक्ष्मी की प्रसन्नता सभी के लिए अभीष्ट है। साल भर में पाँच मिनट भी पूजापाठ और प्रदीप ध्यान में नहीं लगाने वाले व्यक्ति भी इस दिन सिक्कों की खनखनाहट को मंदिर की घंटियों की तरह सुनते और लक्ष्मीपूजा में मन लगाते हैं। धन-वैभव हर किसी को चाहिए। इसलिए उसकी अधिष्ठात्री शक्ति की पूजा-आराधना भी व्यापक रूप से प्रचलित होगी ही।
लेकिन दीपावली के दूसरे संदर्भ भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उन संदर्भों की दिशा और संकेतों को समझने की चेष्टा करें तो जीवन का संपूर्ण शास्त्र अपने रहस्य खोल देता है। इस पुनरावृत्ति में जाना जरूरी नहीं है कि खेतीबाड़ी से निपटकर आनंद-उल्लास मनाने की दृष्टि से यह पर्व रचा गया। यह भी कि पर्व पहले से प्रचलित था और धीरे-धीरे तमाम संदर्भ जुड़ते गए। संस्कृत वाङ्मय में यह पर्व शारदीय उत्सव के रूप में भी चित्रित किया गया है। उन उल्लेखों के अनुसार दशहरे के बाद से शुरू होकर पर्व पूरे सत्रह दिन तक मनाया जाता था। शरद पूर्णिमा इस उत्सव का पड़ाव था। उस दिन कौमुदी उत्सव, शारदीय उत्सव, शरद पूर्णिमा और रास जैसे ललित मधुर उत्सव मनाए जाते थे। वह परंपरा कहाँ लुप्त हो गई किसी को नहीं मालूम।
दीपावली के रूप में विख्यात आधुनिक महापर्व स्वास्थ्यचेतना जगाने के साथ शुरू होता है। त्रयोदशी का पहला दिन धन्वंतरि जयंती के रूप में मनाया जाता है। लोग इसे धनतेरस भी कहते हैं और पहले दिन का संबंध धन−वैभव से जोड़ते हैं।धन्वंतरि जयंती का संबोधन घिस-पिटकर धनतेरस के रूप में प्रचलित हो गया। वस्तुतः यह आरोग्य के देवता धन्वंतरि का अवतरण दिवस है। मान्यता है कि समुद्रमंथन के समय इसी दिन धन्वंतरि आयुर्वेद और अमृत लेकर प्रकट हुए थे। समुद्र−मंथन का प्रयोजन पूरा हुआ मानकर देव और असुर दोनों तेजी से लपके थे। इन दिनों धन्वंतरि जयंती चिकित्सा व्यवसाय में जुड़े लोगों तक ही सीमित रह गई है। प्रचलित क्रम के अनुसार यम के निमित्त एक दीया जलाकर धनतेरस मनाई जाती है। दीया घर के मुख्य द्वार पर रखा जाता है। कामना की जाती है कि वह दीप अकालमृत्यु के प्रवेश को रोके। ऐसा विवेक जगाए जो स्वास्थ्य, शक्ति और शाँति दे। यम की बहन यमुना नदी जिन क्षेत्रों में बहती है वहाँ यह विशेष पूरा का दिन भी है। उस दिन श्रद्धालु यमुना में स्नान कर यम को मनाने की भावना करते हैं। दीपावली महापर्व का पहला दीप जलाकर शुरू हुए महोत्सव का एक अंग नए बरतन खरीदना भी है। लक्ष्मी के लिए भोग-प्रसाद घर में ही बनाना चाहिए। खाने-बाँटने के लिए बाजार से कितने ही व्यंजन मँगाए जाएँ। पूजनसामग्री घर में ही तैयार हो, देवता को कोरा, ताजा अच्छा और पवित्र भोजन अर्पित करना चाहिए। नए बरतन भी इसीलिए खरीदे जाते हैं कि प्रसाद तैयार करने के लिए प्रयुक्त पात्रों का उपयोग भी भोग पूजा तैयार करने के साथ शुरू हो।
नरक चतुर्दशी और हनुमान जयंती महापर्व का दूसरा दिन है। “नरक” विशेषण से स्पष्ट है कि इसका संबंध भी मृत्यु अथवा यमराज से है।
विधायक अर्थ में यह दिन स्वास्थ्य साधना का दिन है। पर्व का विधान हैं कि इस दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नानादि करना चाहिए। चतुर्दशी के दिन जो लोग सूर्योदय के बाद स्नान करते है।, उनके लिए कठोर शब्द कहे गए हैं।सायंकाल दीपदान के लिए है। दीप यम के लिए जलाए जाते हैं। सुबह स्नान और शाम को दीपदान से चूकने को धर्मशास्त्रों में अक्षम्य पाप बताया है। कहा है कि उन लोगों को वर्षभर किए गए पुण्यकर्मों का फल नहीं मिलेगा। आशय यह कि आलस्य और प्रमाद में सुबह-शाम गँवा देने वाले लोग जीवनरस को छककर नहीं पी सकते। आधे-अधूरे मन से किए गए उनके काम विपरीत परिणाम ही देते हैं।
यम यदि मृत्यु के देवता हैं, उनका काम संसार का नियमन करना है, तो संयम के अधिष्ठाता देव भी हैं। उन देव हनुमान की जयंती नरक चतुर्दशी के दिन मनाई जाती है। हनुमान जयंती यों चैत्र मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, लेकिन उत्तर भारत के कई भागों में यह दीवाली से एक दिन पहले मनती है। आशय यह है कि संयम-नियम से रहने वालों को मृत्यु से जरा भी भयभीत नहीं होना चाहिए। उनकी अपनी साधना उनकी रक्षा करेगी।
पर्व का नाम नरक चतुर्दशी प्रचलित है। इसका यह नाम कृष्ण लीला से संबंधित भी है। पौराणिक कथा है कि इसी दिन भगवान् कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। उस राक्षस ने हजारों कुलीन स्त्रियों को बंदी बना लिया था। उनसे दासी की तरह व्यवहार करता था। नरकासुर के आतंक से पृथ्वी के समस्त शूर और सम्राट् थरथर काँपते थे। प्रतीक की दृष्टि से नरकासर उद्दाम अहं और वासना का उदाहरण है। ये प्रवृत्तियाँ कितना ही आतंक मचा लें, अंततः पराभूत ही होती हैं। जब इनका दारुण अंत होता तो आँसू नहीं बहाता था। प्रत्युत लोग खुश होते थे।
अमावस्या दीपावली का प्रमुख उत्सव है। बीत गए दो दिन भूमिका और विस्तार के थे। लक्ष्मीपूजा का प्रसंग मुख्य है और वह पर्व के ठीक मध्य में आता है। जाति, वर्ग, स्थिति पद, प्रतिष्ठा और ऊँच-नीच के सभी भेद बाधित हो जाते है और उत्साह भरे धीरज के साथ पर्व मनाते हैं। उत्साह लक्ष्मी के आवाहन के लिए और धीरज पुकार सुन लेन लेने की प्रतीक्षा के लिए। दूसरे पर्व उत्सवों की तरह इस दिन आमोद-प्रमोद के साधन इकट्ठे नहीं होते, लेकिन यह कर्मठता और जागरूकता का संदेश जरूर दे जाता है। रात भर जागकर प्रतीक्षा करने का अर्थ ही यह है कि जागरूक रहते हुए पुरुषार्थ किया जाए। उद्यमी प्रयत्नशील और पुरुषार्थी व्यक्ति पर ही लक्ष्मी का अनुग्रह बरसता है।
गोवर्धन पूजा वायवीय, आकाशीय शक्तियों का मुँह ताकने के स्थान पर प्रकृति की आराधना का प्रतीक है। स्वास्थ्य, धन और प्रवृत्ति को जिसने साध लिया, उसके लिए सभी दिशाओं में जय-हो-जय है। मृत्यु और यम उसके लिए भाई-बहन की तरह हो जाते हैं, जो सभी स्थितियों में रक्षा करते हैं, संरक्षण देते हैं। दीपावली का समापन मर्यादा और पारिवारिक दायित्वों के स्मरण के साथ है। उन सभी का स्मरण रखना चाहिए, जो सहोदर हैं, लौकिक दृष्टि से भाई-बहन हैं। उसमें प्रकृति परिवार के अन्य सदस्य भी आ जाते हैं। कम-से-कम वे सदस्य तो निश्चित ही, जो किसी भी रूप में, किसी भी कोण से सहोदर हैं जो अपने आसपास ही जन्मे और पले-बढ़े हैं। इस प्रकार यह पर्व समुच्चय महती शिक्षण हमें दे जाता है।