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Magazine - Year 1999 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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लोकसेवियों के लिए दिशाबोध-6 - साधनासमर के लिए समर्थ बनें-सृजन सैनिक

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इमारतों का सृजन सीधा-सादा-सा होता है। पुल, सड़कों, बाँधों का निर्माण निर्धारित नक्शे के आधार पर चलता रहता है, पर युगों के नवसृजन में अनेकानेक पेचीदगियाँ और कठिनाइयाँ आ उड़ेली हैं। कार्य का स्वरूप ही ऐसा है। विचारक्राँति, युगपरिवर्तन, जनमानस का परिष्कार ऐसे संकल्प हैं, जिनकी पूर्ति में प्रायः उन सभी से टकराना पड़ता है, जो अब तक स्वजन, संबंधी, हितैषी, निकटवर्ती एवं अपने प्रभावक्षेत्र के अंतर्गत माने जाते थे। इसमें मारकाट न होने पर भी इसे भूतकाल में संपन्न हुए महाभारत के समतुल्य माना जा सकता हैं, भले ही उस टकराहट को दृश्य रूप में न देखा जा सकता हो।

अभिमन्यु चक्रव्यूह में अकेला ही घिरा पड़ा था, सब दिशाएँ शत्रुओं से अवरुद्ध थीं। ऐसी दशा में भी अर्जुनपुत्र ने समय की महती आवश्यकता और न्यायनीति को बिजली बनाने की ललक में वह सब कुछ किया, जो उसके बलबूते में था। इस संदर्भ में उसे प्राण गँवाने पड़े, पर विजयदुदुंभी इतिहासकार अनंत काल तक उसी के यशोगान की बजाते रहेंगे। इसी स्तर का साहस उन्हें भी अर्जित करना पड़ेगा, जो अवाँछनीयता, मूढ़मान्यता, लोभलिप्सा, संकीर्ण-स्वार्थपरता और निकृष्टता के व्यामोह को चीरकर नवसृजन का मार्ग बनाना चाहें।

तथ्यों का पर्यवेक्षण अपने आप से आरंभ करें। जन्म-जन्माँतरों के संचित पैशाचिक स्तर के कुसंस्कार, निकटवर्ती क्षेत्र में अधिकाँश लोगों द्वारा अपनाए गए अनाचारियों के प्रभाव में आकर बहुत कठोर हो जाते हैं, उन्हें अपनाई गई हठवादिता से विरत करना, आदर्शवादिता, परामर्शों के आधार पर भी टेढ़ी खीर हो जाता है। जब अधिकाँश लोग पैसा और वाहवाही लूटने के अतिरिक्त और कोई तीसरी बात सोचते ही नहीं, तो हमें ही एकाकी दिशा-निर्धारण की बात सोचकर प्रस्तुत समुदाय के सामने क्यों उपहासास्पद बनना चाहिए? यह प्रश्न पूछती है, वह तथाकथित समझदारी, जो आम लोगों पर पूरी तरह हावी हैं।

आदर्शों की बात कहने-सुनने भर की समझी जाती है। कथा कहने-सुनने भर स्वर्गमुक्ति मिल जाने वाली मूढ़मान्यता ही सरल मालूम पड़ती है। कठोर कार्य करने के साथ संबंध जोड़ने से सभी घबराते और काँपते देखे जाते हैं। फिर अपना मार्ग एकाकी निश्चय के आधार पर किस प्रकार अपनाते बने? ‘एकला चलो रे’ गीत गाने भर में तो उत्साहवर्द्धक प्रतीत होता है, पर उसे कर दिखाने में नानी याद आती है। अपने निज के कुसंस्कार ही लोभ, मोह और अहंकार की हथकड़ी-बेड़ी जैसे बंधन बनकर कस जाते हैं। वे यथास्थिति में पड़े रहने के लिए ही बाधित हैं।

इन बंधनों को तोड़ न भी सकें, तो उन्हें कम-से-कम शिथिल तो करना ही पड़ता है अन्यथा न संकल्प उभरता है और न ऐसा प्रयास करते बन पड़ता है, जिसके सहारे नवसृजन के संदर्भ में कुछ कहने लायक पराक्रम करते बन पड़े? प्रथम कठिनाई यह कूपमंडूक बनाए रहने वाली स्थिति ही है। उछल कर सुविस्तृत विश्ववसुधा के साथ जुड़ जाने की योजना तक गले नहीं उतरती, फिर उस स्तर का पराक्रम करते किस प्रकार बन पड़े? जब समूचा समय और साधन अभ्यस्त विडंबना में ही खप जाता है, तो वह कैसे करते बन पड़े, जिसके जिए महाकाल का आमंत्रण हुँकारने और युगधर्म को अपनाने के लिए अंतरात्मा पर दबाव डालता है। जो अपने भीतरी असमंजस से निपट लेता है, अपनी राह आप बनाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है, उसी के लिए यह संभव है कि ‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्य, त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप’ वाले गीताप्रवचन को जीवन में उतार सके।

यह प्रथम मोरचे पर जूझने की बात हुई। इससे बिलकुल सटा हुआ ही दूसरा मोर्चा है, जिसे संबंधियों-हितैषियों का परिकर कह सकते हैं। धर्मधारणा का परिकर कह सकते हैं। धर्मधारणा और सेवाभावना के लिए सब कुछ करने पर उतारू व्यक्ति, इन दिनों अपने तथाकथित स्वजनों को ही सर्वाधिक विरोधी पाता है। आज के वातावरण में हर किसी को संपन्नता और विलासिता की सुविधाएँ ही सब कुछ प्रतीत होती हैं। वे अपनी मान्यता के अनुरूप एक ही परामर्श दे सकते हैं कि परमार्थ की कष्टसाध्य प्रक्रिया से व्यवहारतः कोसों दूर रहना ही लाभदायक है।

उनकी बात, जो जिस हद तक स्वीकार कर लेता हैं, उसे उसी सीमा तक स्वार्थरत रहना पड़ता है। परमार्थ की दिशा में आगे बढ़ना उसके लिए उतना ही कठिन हो जाता है। कोई वास्तविक कारण न होते हुए तर्कों, तथ्यों और प्रमाणों का इतना बड़ा जखीरा सामने ला खड़ा किया जाता है कि पिछले दिनों की मित्रता को ध्यान में रखते हुए वह कथन-परामर्श ही अभेद्य दीवार बनकर रह जाती है। स्वार्थ के पिंजड़े से बाहर एक कदम भी रखना उस स्थिति में सहन नहीं होता।

इस दूसरे मोरचे से निपट सकने का अंगुलिनिर्देश तुलसीदास के उस पत्र से ही मिलता है, जो उन्होंने मीरा को उनके पत्र के उत्तर में लिखा था। उसमें कहा गया था कि-

जाके प्रिय न राम वैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि

परम सनेही॥ पिता तज्यो प्रहृद, विभीषण बंधु, भरत महतारी। बलि

गुरु तज्यो, कंत ब्रज बनितन भये मुद मंगलकारी॥

इस निर्देशन में मीरा ने अपना और समस्त समाज का भला देखा और अपने असमंजसों को निरस्त करते हुए, वे आदर्शवादिता को नए सिरे से प्रतिष्ठापित करने के लिए निकल पड़ीं और बदली जैसी अमृतवर्षा करने में जीवन भर निरत रहीं।

तीसरा मोरचा उस समुदाय के साथ बनता है, जिन्हें अचिंत्य-चिंतन से, अनुचित गतिविधियों से पीछे हटने का परामर्श दिया जाता है। वे इतने भले कहाँ होते हैं कि भ्राँतियों के विपरीत जो श्रेयस्कर अनुरोध किया जा रहा है, उसे सहज स्वीकार कर लें। पूर्वाग्रहों से जकड़ी मान्यताएँ और आदतें, जो अभ्यास में गहराई तक घुसकर बैठ गई हैं। परामर्श कितना ही तथ्यपूर्ण क्यों न हो, पर नशेबाज के गले वह शिक्षा कहाँ उतरती है कि इस आत्मघाती कुटेव से विरत होने में ही भलाई हैं। वह परामर्शदाता से तर्क से न जीत सकने की संभावना देखते हुए कभी-कभी हाँ-हाँ भी कर देता है, पर वह आश्वासन बहकावा भर होता है। नशेबाजी छोड़ने का न उसका मन बनता है और न वैसा साहस उभरता है। ठीक ऐसी ही कठिनाई तब सामने आती है, जब पैर से सिर तक कीचड़ में धँसे हुए लोगों को अपनी स्थिति बदल लेने के लिए कहा जाता है। दुर्बुद्धि ऐसी पिशाचिनी है कि वह जिसे एक बार पकड़ लेती है, उसे आसानी से चंगुल में से छूटने नहीं देतीं।

इतना होते हुए युगसृजेताओं के सामने इसके अलावा कोई चारा भी नहीं कि वे अचिंत्य-चिंतन से लोगों को छुड़ाएँ और कुमार्ग पर चलने से लौटाने का प्रयास करें। यह कार्य प्रत्यक्षतः झंझट भरा है। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत हुए अपने प्रतिवेदन का औचित्य तो अकाट्य सिद्ध किया जा सकता है, पर उस हठवादिता के लिए क्या किया जाए, जो आम आदमी पर विशेषतया अनगढ़ वर्ग पर पूरी तरह सवार देखी जाती है। ऐसी दशा में उपदेष्टाओं का परामर्श भी अरण्यरोदन बनकर रह जाता है। बहुतों को बहुत बातें समझाते रहने पर भी लोग आदर्शों की ओर मुड़ने को तैयार नहीं हैं, लाभ की हानि और हानि को लाभ समझने की दृष्टि जो उनकी परिपक्व हो गई है।

सृजनशिल्पी के करने के लिए काम तो अनेकों सामने ही हैं। पर सबसे बड़ा कार्य एक ही होता है, प्रवाह को, प्रतिबंध-प्रचलन को अमान्य कर सकने वाले लोकमानस का नवसृजन करना। प्रतिकूलताओं को अनुकूल स्तर की बनाकर दिखाना। युगशिल्पियों को प्रधानतया इस एक ही प्रयत्न में आजीवन निरत रहना पड़ता है। भले ही प्रत्यक्ष क्रिया−कलाप परिस्थिति के अनुरूप बदल जाते हों। जब करना यही है, उसका कोई विकल्प हो नहीं सकता, तो नए सिरे से नया निर्धारण करने और नए हथियार सँजोने के लिए कुछ समय वस्तुस्थिति को समझने और उसका उपयुक्त समाधान खोज निकालने की आवश्यकता पड़ेगी।

बड़े काम हलके साधनों के सहारे संपन्न नहीं हो पाते। उनके लिए अधिक समर्थ साधन जुटाने होते हैं। बंदूकों के दाँत खट्टे करने के लिए तोप के गोलों का प्रहार ही विकल्प रहता हैं। मजदूरों द्वारा न उठ सकने वाले भर को मजबूत क्रेनें उठाती है। जिन चट्टानों को हथौड़ों से नहीं तोड़ा। जा सकता उन्हें डायनामाइट के कारतूसों से उड़ाना पड़ता है। बड़ी समस्याओं को बड़प्पन की अनेक विशेषताओं से संपन्न मस्तिष्क ही सुलझा पाते हैं।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इन मोरचों पर जूझने वालों को असाधारण प्रतिभा का धनी होना चाहिए। समय की विपन्नता को चुनौती देने वाले और उसके स्थान पर सुसंपन्नता प्रतिष्ठापित करने के लिए जिनने निश्चय किया है, उनका व्यक्तित्व और कर्त्तव्य ऐसा मजबूत होना चाहिए, जो स्वयं तो डगमगाए नहीं, वरन् प्रतिकूलताओं से मल्लयुद्ध करते हुए पछाड़ सकने वाले बलवान्-पहलवान की भूमिका निभा सकें। किसी महान् प्रयोजन में सफलता का श्रेय हर किसी को मिल नहीं पाता। इसलिए यदि वस्तुतः लक्ष्य साधना हो, तो अर्जुन एवं एकलव्य जैसी लक्ष्य के प्रति ऐसी एकाग्रता सँजोनी चाहिए, जिसमें कोई व्यवधान आड़े न आ सके।

सृजनशिल्पी को अपना स्तर-शब्दबेधी बाण जैसा बनाना चाहिए, जिसे निशाना बेधने के अतिरिक्त और कहीं भटकने जैसी कठिनाई का सामना करना ही न पड़े। मनस्वी ऐसे ही लोगों को कहते हैं। मनस्विता के सहारे वे इंद्रवज्र और ब्रह्मास्त्र की तरह अभेद्य लक्ष्य वेध सकने में समर्थ होते रहे हैं।

मनस्वी के साथ अन्य विभूतियाँ भी आ मिलती है। ओजस्वी और वर्चस्वी बनाने वाली सहायक शक्तियाँ उस तक स्वयमेव खिंचकर चली आती हैं। नदी जितनी गहरी होती है उसमें उतना ही अधिक गहरी होती है उसमें उतना ही अधिक पानी भरा पाया जाता है। इतना ही नहीं, उस गहराई के अनुरूप ही दूर-दूर तक के नदी-नाले उसी दिशा में बहते-दौड़ते चले आते हैं और आत्म-विसर्जन करके सरिता का वैभव-विस्तार बढ़ाते रहने में अपनी-अपनी भूमिका संपन्न करते रहते हैं। यह लाभ उन्हें ही मिलता रहता है, जो सचमुच के मनस्वी, तेजस्वी, व्रतशील, संयमी और संकल्पवान् है। इन विशेषताओं को अर्जित करने के लिए अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार को ऐसा बनाना पड़ता है, जिसके कण-कण में मनोहारी सुगंध उभरती रहती है। ऐसे वरिष्ठ व्यक्तित्व वैचारिक प्रतिकूलता और परिस्थितियों की विकटता से भी निपटने में सफल हो जाते हैं।

दृढ़ निश्चयी अपनी निज की मानसिकता में घुसी हुई कायरता, क्षुद्रता और लोभ-लिप्सा से निपट लेते हैं। कम-से-कम इतना तो कर ही लेते हैं कि बाहर वालों को अँगुली उठाने का इतना अवसर न मिले, ताकि अच्छाइयाँ और सेवाभावना प्रख्यात बुराइयों के भार से दबकर धूमिल और निरर्थक हो जाएँ। संसार में अनेकों लोग दुर्गुणों और पिछली भूलों का प्रायश्चित करके भावी जीवन में महामानव बन सके हैं। हर बुरा आदमी भी सुधारप्रक्रिया को अपनाकर प्रामाणिक ही नहीं श्रद्धास्पद भी बन सकता है। अंबपाली, अंगुलिमाल, अशोक जैसे असंख्यों के उदाहरण इस संभावना को समर्थन देने के लिए विद्यमान हैं।

जो दूसरों से कहना और कराना है, उसे कार्यान्वित करने के लिए शुभारंभ अपने आप से ही करना चाहिए। जो निश्चय किया है, उस दृढ़तापूर्वक आरुढ़ रहना चाहिए। बेपैंदी के लोटे की तरह इधर-से-उधर लुढ़ककर अपने को उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए। संकल्पों को, निर्धारित निश्चयों को उस दिशा में तो पूरा किया ही जाना चाहिए, जब वे सुधार, संयम जैसे आदर्शवादी पक्ष के साथ जुड़े हुए हों। रामायण की यह चौपाई हर प्रमाणिक व्यक्ति को ध्यान में रखे ही रहना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि प्राण जाहि पर वचन न जाई, नित नई प्रतिज्ञाएँ करने और जोश ठंडा होते ही गिरगिट की तरह कुछ से कुछ बन जाने वाले लोग अपनी हँसी कराते और अविश्वास का वातावरण बनाते हैं। युगप्रवर्तकों, विचारक्राँति के सूत्रधारों का स्वभाव इतना शिष्ट, मृदुल और शालीनतासंपन्न होना चाहिए कि जिससे भी बात करनी पड़े, वह मिलने भर से पुलकित हो उठे। उस पर सज्जनता की छाप पड़े और यह मान्यता अनायास ही उभरे कि व्यक्ति अपने में ऐसे तत्व समाविष्ट कर चुका है, जिसके आधार पर सहज सद्भाव की मनः स्थिति बनती है।

इतनी स्थिति कर लेने के उपराँत प्रतिकूलता को मोड़-मरोड़ देते हुए, अनुकूलता तक घुमा कुछ कठिन नहीं रह जाता हैं। संकट तब खड़ा होता है, जब दोनों ही पक्ष ऐंठ-अकड़कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी स्थिति कभी भी, कहीं भी बननी नहीं चाहिए। एक बार में बात बनती न दीख पड़े, तो झगड़कर प्रसंग को समाप्त कर देने की अपेक्षा यह गुँजाइश छोड़ दी जाए कि भविष्य में समय मिलते ही नए सिरे से, नए दृष्टिकोण से उस पर चर्चा की जा सके। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मतभेदों को किसी हद तक दूर करने में ऐसे ही विचार-विनिमय काम देते हैं। इसके लिए जो प्रतिनिधि नियुक्त किए जाते हैं, उनमें यह विशिष्टता परखी जाती है कि वह घोर मतभेद के बीच भी सरलता और तरलता की दृष्टि से लोचदार-लचदार बने रहें और उलझनों को सुलझाने की दिशा में क्रमशः आगे सफल होते रहें। ऐसे ही कूटनीतिज्ञ पाते और महानीति के लिए अधिकारी समझे जाते हैं।

नागरिकता, सामाजिकता सभ्यता, शालीनता का समन्वय ही शिष्टाचार बन जाता है। उसके प्रदर्शन का व्यावहारिक स्वरूप तो क्षेत्रों और वर्गों की स्थानीय प्रचलित परंपराओं के अनुरूप बनता हैं, पर उसके मोटे सिद्धाँत दो हैं-एक अपनी नम्रता और दूसरा, दूसरों की प्रतिष्ठा को समुचित रूप से बनाए रहना। उद्दंडता का, असभ्यता का तनिक-सा भी पुट बनी बात बिगाड़ देता है। प्रतिपक्षियों को अनुकूल बनाना तो दूर, इस कारण अपने समर्थक समझे जाने वाले लोग तक सामान्य बात का बतंगड़ बना देते हैं। शिल्पियों को अधिकाँश समय जनरूपक में ही बिताना पड़ता है और मान्यताओं के क्षेत्र में प्रायः अपनी भूमिका इतनी लचीली रखनी पड़ती है कि इच्छित परिवर्तन तो होता रहे, पर उसमें अभद्रता कहीं आड़े न आए। अभीष्ट सफलता का बहुत कुछ श्रेय इन्हीं छोटी-छोटी बातों पर निर्भर रहता है। कलावंत प्रदर्शन करने से चूकते नहीं।

युगशिल्पी को अपने व्यवहार में दो अन्य बातों का समावेश करना चाहिए, जो देखने में साधारण मालूम पड़ती हैं, पर उनकी प्रतिक्रिया असाधारण स्तर की होती है। उनमें से एक है-सार्वजनिक पैसे को अत्यंत पवित्र धरोहर मानकर उसकी एक-एक पाई का इतनी सावधानी से प्रयोग करना कि जाँच करने वाले को इसमें कहीं खोट दिखाई न पड़े। साथ ही अपनी अंतरात्मा और सर्वसाधारण को यह विश्वास बना रहे कि दान के पैसे में कहीं किसी प्रकार की कोई गड़बड़ी नहीं हुई हैं। जिसके भी हाथ में वह धन रहा, उसके द्वारा संतों जैसी निस्पृहता की दृष्टि से इस प्रसंग में सतर्कता बरती ही जानी चाहिए।

दूसरा प्रसंग है-नर और नारी के मध्यवर्ती संबंधों का। सार्वजनिक क्षेत्र में नर और नारी मिल−जुलकर ही सामूहिक कार्यक्रमों और आयोजनों को संपन्न करते हैं। ऐसी दशा में इस आशंका की गुँजाइश रहती है कि कहीं अनैतिक चिंतन और आचरण आड़े न आने लगा हो। भावनाओं की पवित्रता तो ऐसे प्रसंगों में अक्षुण्ण नहीं भूलना चाहिए कि तरुण और तरुणियों की घनिष्ठता, निकटता और असाधारण सहकारिता भी साधारणजनों की आँखों में खटकती हैं। उतने भर से आशंकाओं का ऐसा बवंडर बन पड़ता है कि जो बदनामी के स्तर तक पहुँचा देता है। ऐसी दशा में न केवल संबंधित व्यक्तियों को, वरन् उस लक्ष्य को भी भारी क्षति पहुँचती है, जिसके लिए एकत्र हुआ गया था और मिल−जुलकर काम करने में कुछ अनुचित नहीं माना गया था।

अपनी दृष्टि और क्रिया कुछ भी क्यों न रही हो, पर लोग तो लोग हैं। संसार में प्रचलित अनेकानेक विसंगतियों को देखते हुए अशुभ आशंका कहीं भी की जा सकती है। इस लोकमान्यता को ध्यान में रखते हुए, संस्थागत हिसाब-किताब में तथा नर-नारी की निकटता वाले अवसरों पर, उतनी अधिक सावधानी बरतनी चाहिए कि कुकल्पना के लिए कहीं कोई गुँजाइश ही शेष न रहे।

यहाँ एक बात और हर समाजसेवी को नोट कर लेनी चाहिए कि श्रेय पाने, हर प्रसंग में अपने को अग्रणी सिद्ध करने वाले लोग जनसाधारण की दृष्टि में ओछे-बचकाने समझे जाते हैं और लोकसेवी का बाना पहनने पर भी बहुत घटिया समझे जाते हैं। उनकी सम्मान यदि धोखे से कभी मिल भी जाए, तो वह कागज के फूल की तरह थोड़े ही समय में आकर्षण खो बैठता हैं। नेता बनने के लिए लालायित लोग नाम छपाने, चेहरा मटकाने और माइक पर छाए रहने की कोशिश करते हैं। बड़प्पन जताने के लिए व्याकुल लोग, कुछ हाथ में रहा हो, तो उसे भी गँवा बैठते हैं। इससे अनेकों प्रतिस्पर्धी, विरोधी और ईर्ष्यालु उपज पड़ते हैं। ऐसे विग्रहों का परिणाम उस संगठन या मंच को भी बदनाम करता है, जिस पर चलकर वे ऊँचे बनना चाहते है। वे स्वयं बदनाम होते हैं और उस संगठन को ले डूबते हैं, जिसके कि वे नेता कहलाना चाहते थे।

गाँधी जी सादगी, सज्जनता और विनम्रता प्रसिद्ध थी। इसलिए वे काँग्रेस के कोई नियुक्त नेता-पदाधिकारी न होते हुए थे। व्यक्तित्व उभारने का यही राजमार्ग है। नेतागिरी के लिए उछल-कूद करने वाले तो मात्र नर्तक स्तर के अभिनेता बनकर रह जाते हैं। प्रामाणिकता के अभाव में कोई भी देर तक श्रद्धास्पद नहीं रह सकता और न उसकी नेतागिरी देर तक चलती है। सृजनशिल्पी इस तथ्य से भलीप्रकार अवगत रहें, तो ही ठीक हैं।

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