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Magazine - Year 2000 - Version 2

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अप्राकृतिक खानपान ही रोगों का मूल कारण

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आखिर मनुष्य बीमार क्यों पड़ता हैं? स्वास्थ्य विज्ञान के आचार्य बरनर मेकफडन का कथन है कि स्वस्थ रहने के नियम बहुत थोड़े और बहुत ही आसान हैं। उनको सीखने के लिए न कोई शास्त्र पढ़ने की जरूरत है और न किसी प्रयोगशाला में जाने की। जरूरत इस बात की है कि हद से ज्यादा जो अक्ल बढ़ गई है, उसको प्रकृति पर न आजमाया जाए और अप्राकृतिक खानपान करके अपने साथ जोर-जबरदस्ती न की जाए, क्योंकि अप्राकृतिक खानपान ही मनुष्य की अस्वस्थता का मूल कारण हैं। खानपान के आधुनिक तौर-तरीके ही घातक रोगों को आमंत्रण दे रहे हैं। जैव तकनीक खासतौर पर जेनेटिक इंजीनियरिंग से जिस तरह खाद्यपदार्थों का स्वरूप बदला जा रहा है, उससे अनेक समस्याएँ जन्म ले रही हैं।

इन तकनीकों से कतिपय बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ ऐसे बीज तैयार कर रही हैं, जो उनके द्वारा तैयार किए गए खरपतवार नाशक को सह जाए। इस सहने की क्षमता को देखते हुए यह संभावना बढ़ी है कि खरपतवारनाशक रसायनों का उपयोग अधिक मात्रा में किया जाएगा, पर इसका भोजन के रूप में सफल की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा? यह अलग से सोचने का विषय है। संभावना तो यह बनती है कि इन दवाओं के अधिक उपयोग से अधिक जहरीले तत्त्व हमारे शरीर में पहुँचेंगे। रिचर्ड डाउथवेट अपनी पुस्तक ‘द ग्रोथ इल्यजन’ में लिखते हैं कि खाद्यान्न एवं फल सब्जी के उत्पादन में अत्यधिक रासायनिक दवाओं के प्रयोग से फसलों में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाती है। ये अधिक नाइट्रेट भोजन करते समय मुँह में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से मिलकर नाइट्रोसेमाइन बना लेते हैं।

जैवतकनीक द्वारा वनस्पति आधारित भोजन में जीव-जंतुओं के आनुवाँशिक गुणों के प्रवेश का भी प्रचलन बढ़ चला है। जैसे सोयाबीन में मछली के गुणों को आरोपित करना एक सहज बात होती जा रही हैं। ऐसे में खान वालों को यह पता ही नहीं चल सकता है कि वे क्या खा रहे हैं और क्या नहीं। जिन लोगों के कुछ विशेष खाद्यसामग्री से एलर्जी है, उन्हें तो भीषण स्वास्थ्य समस्याएँ झेलनी पड़ सकती हैं, साथ ही उन्हें यह भी पता नहीं चलेगा कि क्या खाने से यह एलर्जी हुई अमेरिका में राष्ट्रीय वन्य जीव फेडरेशन की जैव तकनीक नीति में कार्यरत मागरेल मेलन ने इस तरह की समस्याओं की ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि कुछ वर्ष बाद आप बाजार में आलू या टमाटर खरीदने जाएंगे, तो आपको पता नहीं होगा कि इसमें कोई बाहरी जीन है या नहीं और है तो कहाँ से आया है? यह किसी मनुष्य से लिया गया है या ऊँट से या फिर किसी जीवाणु से। यह बहुत आपत्तिजनक स्थिति है।

प्रकृति में विकृति के औचित्य से पूरी तरह से इनकार करने के कारण ही अपने देश में माँसाहार से परहेज किया जाता रहा है। अब जैवतकनीक एवं पाश्चात्य नकल से स्थिति बड़ी विषम एवं विपन्न हो चली है। माँसाहार की संलिप्तता इतनी बढ़ चली है कि परिस्थिति को यदि बदला न गया, तो आज के प्रदूषित वातावरण में 35 से 40 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते विषाक्तता के संग्रहित प्रभाव से होने वाले गंभीर घातक रोगों से बच पाना कठिन, बल्कि असंभवप्राय हो जाएगा।

किसी भी दृष्टि आहार में विकृति का समावेश उचित नहीं है, क्योंकि वनस्पति-पदार्थ और पशु-पक्षियों के रुधिर-माँस आदि में कोई समानता नहीं है। उनके घटकों-कोशाओं, रूस-रस-गंध आदि की संरचना और गुणधर्म अलग प्रकार के होते हैं। उनकी रासायनिक प्रतिक्रियाएँ भी भिन्न होती हैं। कार्बोज तो पशु ऊतकों में होता ही नहीं। प्रोटीन व वसा के गुणा भी भिन्न होते हैं। पशु ऊतकों में यूरिक एसिड बनाने वाला पदार्थ प्रोटीन होता है, जो अनेक रोगों का कारण है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की बुलेटिन संख्या 637 में 960 ऐसे रोगों का वर्णन है, जिनका कारण सिर्फ माँस खाना है। माँसाहार जनित रोगों में रक्तप्रवाह इतना विषाक्त हो जाता है कि कितने ही रोग आनुवंशिक होकर भावी पीढ़ियों में संक्रमित हो जाते हैं।

खाद्यपदार्थों के रूप में माँसाहार का सेवन जैवतकनीक से दूषित किए गए खाद्यपदार्थों की तरह ही है। विशेषज्ञों के अनुसार दोनों से ही शरीर ही नहीं मन-विचार व भावनाएँ तक दूषित हो जाती हैं। मनीषियों का मत है कि कर्म भावनाओं का ही रूपांतरण है। अतएव हिंसा-क्रोध-तनाव-अशाँति जैसे ध्वंसकारी आवेगों से बचना-मुश्किल हो जाता है वैज्ञानिकों का दल भी अब यह मानने लगा है कि हिंसक व्यवहार का शरीर के रासायनिक असंतुलन से सीधा संबंध है। अध्ययन से पता चला है कि हिंसक लोगों में ताँबे की मात्रा अधिक एवं जस्ते की मात्रा कम होती है। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार ये तत्व आचरण को प्रभावित करते हैं। क्योंकि शरीर इनका इस्तेमाल मस्तिष्क के रासायनिक ट्राँसमीटरों के निर्माण के लिए करता है। ताँबा व जस्ते की मस्तिष्क के हिप्पोकैंपस नामक हिस्से में जमा होने की प्रवृत्ति है।

हार्टकेयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया नामक स्वास्थ्य संख्या के संचालक डॉ. के.एल. चोपड़ा एवं डॉ. के.के. अग्रवाल ने अपने लम्बे समय के शोध-अध्ययन के पश्चात् प्रदान करता है, वरन् मस्तिष्क को भी शाँत करता है। इससे क्रोध नहीं आता। चिकित्सकों का मत है कि क्रोध मस्तिष्क की नकारात्मक भाव वाली स्थिति हैं और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इसे नियंत्रित करना जरूरी है। सात्त्विक पौष्टिक आहार को क्रोध का मुख्य नियंत्रक माना गया है।

नेवरविल इलिनाँयस स्थित ‘हैल्थ रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के प्रमुख डॉ. विलियम वाल्श ने भी अपने शोध के बाद यही निष्कर्ष निकाला है कि हिंसक व्यक्तियों की खुराक में तब्दीली करके उनके व्यवहार में सुधार लाया जा सकता है।

डॉ. वाल्श ने अपने इस प्रतिपादन को सच्चाई की कसौटी पर कसने के लिए लम्बे समय तक अगणित प्रयोग किए। उन्होंने अपने प्रयोग के इस क्रम में आहार या खाद्यपदार्थों को तीन श्रेणियों में बाँटा। प्रथम श्रेणी में प्रकृति द्वारा स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने वाले फल-शाक-अन्न आदि को रखा, द्वितीय श्रेणी में उन्होंने माँसाहार को लिया, जबकि तृतीय श्रेणी में उन्होंने उन सभी खाद्यपदार्थों को लिया, जो जैवतकनीक विधि द्वारा तैयार किए गए थे। उन्होंने जेल के सजायाफ्ता कैदियों पर आहार संबंधी इस प्रयोग का क्रियान्वयन किया। प्रयोग के दौरान उन्होंने पाया कि जिन कैदियों को सात्विक पोषक आहार दिया गया, दो-तीन महीनों में ही उनके हिंसक व्यवहार में परिवर्तन आने लगा, जबकि जिन्हें माँसाहार दिया गया, उनकी स्वाभाविक उग्रता में और तेजी आई, इसी प्रकार जिन लोगों को जैवतकनीक से विनिर्मित खाद्यपदार्थ खिलाए गए, उनमें अवसाद एवं एलर्जी को प्रत्यक्ष देखा गया।

अपने दीर्घकालीन अध्ययन के पश्चात् डॉ. वाल्श एवं उनके वैज्ञानिक सहयोगियों को यही लगा कि प्राकृतिक स्रोतों से ही पोषक तत्त्व शरीर में पहुँचने चाहिए। यहाँ यह सत्य भी ध्यान रखने योग्य है कि प्रकृति को जैवतकनीक से विकृत करने की अनावश्यक चेष्टा न की जाए। ऐसी कुचेष्टाओं में प्राणपण से जुटे बुद्धिजीवी प्रकृति में निहित यह महान् सत्य भूल जाते हैं कि प्रकृति का सर्वमान्य सिद्धान्त समग्रता-सर्वांगीणता है। वह हमें अपने स्वाभाविक स्रोत से जो भी उपलब्ध कराती है, वह अपने आप में पूर्ण होता है। भले ही उसकी इस पूर्णता को हम समझ पाएँ या नहीं। उसकी इस गुणवत्ता को ठीक से न आकलन कर पाने के कारण ही विभिन्न तकनीकों से उसे विकृत करते रहते हैं। फलस्वरूप उसके स्वाभाविक गुणों से वंचित रह जाते हैं एवं आरोपित अवगुणों से नुकसान उठाते हैं। इस संबंध में आवश्यकता गंभीरतापूर्वक आत्मनिरीक्षण करने की है कि हम कहाँ लापरवाही कर रहे हैं। प्रकृति के आदेश बहुत ही स्पष्ट होते हैं। उन्हें सुनने-समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। रूखे-सूखे भोजन को भी ‘अमृतमिदम्’ की भावना के साथ खाया जाएगा, तो वह बड़ा मधुर लगेगा और आधुनिकता से भरे आहार से कहीं अधिक उपयोगी होगा।

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