
वास्तु नियमों के अनुसार शयनकक्ष कहाँ हो
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प्रस्तुत धारावाहिक लेखमाला देवसंस्कृति के वास्तुविज्ञान पर आधारित हैं। आज इस-विद्या के विशेषज्ञ’ घरों में तोड़-फोड़ करा- परिवर्तन करके काफी राशि कमा रहे हैं। हमारा इस लेखमाला का उद्देश्य जन-जन को इस बहुमूल्य ज्ञान से परिचित कराना है। घर जैसा भी हो, किंचित हेरफेर से अंतर्ग्रही धाराओं-चुम्बकीय धाराओं का परिपूर्ण लाभ लिया जा सकता है। न करने से कोई नुकसान नहीं है। नए निर्माणों में ध्यान रखा जा सकता है। शयनकक्ष की स्थिति के विषय में पढ़ें, इस अंक में।
वास्तुशास्त्र में आवासीय भवनों के निर्माण में प्रत्येक कक्ष हेतु एक सुनिश्चित दिशा एवं सुनिश्चित स्थान बताया गया है। इसके लिए भवननिर्माण वाले भूखंड को सोलह भागों में विभक्त करके अलग-अलग कार्यों के लिए अगल-अलग कमरों का निर्माण करने के लिए दिशानिर्देश दिया गया है। यों तो अपने-अपने ढंग से हर व्यक्ति मनचाहे आकार-प्रकार के घर घरौंदे से लेकर विशालकाय भवन का निर्माण करता है, किंतु यदि उन्हें वास्तु नियमों के अनुसार निश्चित दिशा एवं स्थान में बनाया जाए, तो वे ही घर सभी प्रकार की उन्नति व सुख शाँति प्रदान करने वाले होते हैं। लेकिन अगर मनमाने ढंग से वास्तु नियमों के प्रतिकूल उनका निर्माण किया जाता है, तो वे निवासकर्त्ता के लिए दुःखों का निमित्त कारण बनते हैं, महाराजा भोजदेव ने अपनी अनुपम कृति- ‘समराँगण सूत्राधार’ के पहले अध्याय के आरंभ में ही इस संदर्भ में कहा है-
सुधंधनानि ऋद्धिश्च संततिः सर्वदा नृणाम्।
प्रियाष्येषाँ तु संसिद्धयै सर्व स्याच्छुभलक्षणम्॥
यच्च निंदित लक्ष्यमात्र तदेतेषाँ विधातकृत्।
अतः सर्वमुपादेयं यद् भवेच्छुभलक्षणम्॥
कहने का तात्पर्य यह है कि सही ढंग से बनाए गए मकान में उत्तम स्वास्थ्य, सुख-शाँति-संपदा-ऋद्धि तथा उत्तम संतान का निवास होगा और वह गृहस्वामी के यश एवं कीर्ति को सर्वत्र फैलाएगा, किंतु वास्तु नियमों के विपरीत निर्मित भवन इसके ठीक विपरीत परिणाम प्रस्तुत करेगा।
अन्य शास्त्रों में भी उल्लेख हैं-
“शास्त्रमानेन या रम्यो स सम्यों नान्य एव हि।”
अर्थात् कोई भी सुँदर वस्तु या रचना तभी पूर्ण तथा सुखद-प्रसन्नता प्रदान करने वाली होती है, जब वह शास्त्रों में बताए हुए नियमों व अनुपात के अनुसार बनाई जाती है। यों तो आवासीय भवन का हर कक्ष महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है, बेडरुम अर्थात् शयनकक्ष। विशालकाय राजमहल हो या आलीशान भवन या फिर छोटे-बड़े, कच्चे-पक्के मकान, उन सबमें यही एकमात्र ऐसा स्थान है, जहाँ व्यक्ति दिनभर की भागदौड़ एवं काम काज की थकान उतारने, मानसिक चिंताओं एवं परेशानियों से कुछ देर मुक्ति पाने के लिए आराम करता है और सात-आठ घंटे सुख−चैन की नींद सोता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे जीवन का एक तिहाई भाग इसी कक्ष में व्यतीत होता है। यदि व्यक्ति की सक्रिय आयु सत्तर वर्ष मान ली जाए तो सात-आठ घंटे के हिसाब से प्रतिवर्ष हम चार महीने नींद लेने में गुजारते हैं। इस तरह सत्तर वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते 23-24 वर्ष बिस्तर पर सोने में समय गुजर जाता है। जीवन की इस बहुमूल्य अवधि में अच्छी नींद लेने के लिए आवश्यक है कि शयनकक्ष के लिए ऐसे उपयुक्त दिशा एवं स्थान का चयन किया जाए, जहाँ पहुँचते ही मीठी नींद के झोंके आने लगें। शयनकक्ष यदि उपयुक्त स्थान पर नहीं बना है, तो तनाव-अनिद्रा-अवसाद जैसी कई स्वास्थ्य समस्याएँ खड़ी कर सकता है।
शयनकक्ष बनाते समय दिशाओं का विशेष ध्यान रखा जाता है। वास्तुशास्त्र में शयनकक्ष के लिए उत्तम स्थान दक्षिण व पश्चिम दिशा मानी गई है। वास्तु रत्नावली के अनुसार भवन के दक्षिण में शयनगृह सर्वश्रेष्ठ माना गया है। महर्षि वशिष्ठ इस संदर्भ में कहते हैं-
ऐन्द्रायाँ स्नानगृहं कार्यमाग्नेयाँ पचनालयः।
याम्यायाँ शयनं वेश्म नैऋत्याँ शस्त्रमंदिरम्॥
महर्षि कश्यप के अनुसार-
प्राच्याँ दिशि स्नानगृहमाग्नेय्याँ पयनालयः
शयनं याम्यदिग्भागे नैऋंत्याँ शास्त्रमंदिरम्॥
अर्थात् पूर्व में स्नानघर, आग्नेयकोण में रसोईघर या पाकशाला, याम्य दिशा- यानी दक्षिण में शयनगृह एवं नैऋत्यकोण में शास्त्रागार बनाना चाहिए। पड़ जाती है। देखा गया है कि इस क्षेत्र में शयनकक्ष होने से परिवार में कन्यासंतति की अभिवृद्धि होती है। यदि किन्हीं कारणवश भवन के ईशानकोण वाले कमरे में शयनकक्ष बनाने की बाध्यता हो, तो इसे बच्चों का शयनकक्ष बना सकते हैं, विशेषकर पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों के लिए यह दिशा बहुत शुभ होती हैं। इस कक्षा में पलंग की व्यवस्था इस तरह से की जानी चाहिए कि वह दक्षिणी दीवार की ओर हो और सिरहाना दक्षिण या पूर्व दिशा की ओर।
1.पूर्व-दिशा इस दिशा में बने शयनकक्ष स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने वाले होते हैं। पूर्व दिशा के इस कमरे को यदि शयनकक्ष बनाना अनिवार्य हो, तो उसे मेहमानों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। जो कुछ समय के लिए ठहरते हैं। बच्चों के लिए भी पूर्व का शयनकक्ष बना सकते हैं। तथा उसी से सटा हुआ ईशानकोण का कमरा अध्ययन के लिए प्रयुक्त कर सकते हैं। बच्चों के लिए यह दोनों ही शुभ व अच्छे परिणाम प्रस्तुत करने वाले होते हैं। घर के पूर्व दिशा वाले कमरे में बड़ों का शयनकक्ष होने से यह उनके लिए अस्वास्थ्यकर होने के साथ ही दाँपत्य जीवन में कलह उत्पन्न करते हैं। संततिहानि का भी भय बना रहता है।
2.दक्षिणपूर्व दिशा अर्थात् आग्नेयकोण-भवन में आग्नेयकोण अग्नि का स्थान है। इस दिशा में निर्मित कमरे को शयनकक्ष बनाने से निद्रा में बाधा पड़ती है। अग्नि का वास होने से इस कमरे में सोने एवं रहने वाले व्यक्ति का मिज़ाज गरम व क्रोधी हो जाता है, जिससे पारिवारिक सौमनस्य बिगड़ता है। मानसिक तनाव एवं चिड़चिड़ापन बना रहता है, फलतः नींद कम आती है। पति-पत्नी में तनाव बना रहता है। क्रोधी स्वभाव, अशाँत मन, बुरी चित्तवृत्ति गृहकलह का कारण बनती है। बच्चों का मन पढ़ाई में कम लगता है। लोग लालची हो जाते हैं। आग्नेयकोण में शयनकक्ष होने से घर के सभी प्रकार के ऊष्मीय संतुलन बिगड़ जाते हैं। लोग जल्दबाजी में निर्णय लेते हैं, फलतः काम बनने की अपेक्षा बिगड़ जाते हैं। इस कोण में रहने वाले व्यक्तियों को सदैव अग्निभय बना रहता है, साथ ही कोर्ट-कचहरी के मामले भी आए दिन परेशान करते रहते हैं।
वास्तुविद्या विशारदों के अनुसार, आग्नेयकोण में बेडरुम-शयनकक्ष होने पर प्रायः पति-पत्नी के बीच मनोमालिन्य देखा जाता है। अतः इस कमरे को रसोईघर या स्टोररुम के रूप में प्रयुक्त किया जाए तो अच्छा रहता है। अगर ऐसा संभव न बन पड़े और शयनकक्ष के रूप में प्रयोग करना अनिवार्य हो तो इस कमरे में बीच से पार्टीशन करके बाहर वाले भाग में रसोई या स्टोररुम तथा अंदर वाले हिस्से में शयनकक्ष बना सकते हैं। लड़कियों के लिए यह कक्ष बहुत उपयोगी रहता है। वे इसमें प्रसन्न रहती और बौद्धिक प्रगति करती हैं।
3.दक्षिण दिशा- दक्षिण दिशा का शयनकक्ष सबसे अच्छा माना गया है। पृथ्वी की चुँबकीय शक्ति अनुकूल पड़ने के कारण इस दिशा में बनाए गए शयनकक्ष जीवनदायी एवं स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होते हैं। यह दिशा शुभ एवं शाँतिदायक होती है।
4.दक्षिण- पश्चिमकोण अर्थात् नैऋत्यकोण- मास्टर बेडरुम अर्थात् मुख्य शयनकक्ष के लिए यह कोना सर्वश्रेष्ठ होता है। इस दिशा में गृहस्वामी का शयनकक्ष होना चाहिए।
5.पश्चिम दिशा- इस दिशा में भी शयनकक्ष बनाए जा सकते हैं। परिवार के कनिष्ठ सदस्यों एवं बच्चों के शयनकक्ष इस दिशा में विशेष शुभदायक होते हैं। पश्चिम दिशा में बनाए गए शयनकक्ष में इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि उसकी छत का ढलान पश्चिम की ओर न होकर पूर्वोत्तर की तरफ हो।
6.पश्चिम-उत्तर दिशा अर्थात् वायव्यकोण- इस दिशा में मेहमानों का शयनकक्ष शुभदायक होता है। यह बालिकाओं के लिए भी उपयुक्त है। परिवार के अन्य सदस्यों को इस दिशा में बने कक्ष में सोने से मानसिक परेशानियों एवं अशाँति का सामना करना पड़ता है। वायव्यकोण मानसिक चिंता, गृहकलह एवं अनावश्यक प्रवास आदि का कारण बनता है।
7.उत्तर-दिशा-वास्तु नियमों के अनुसार उत्तर दिशा का शयन वर्जित है। उत्तर दिशा धन के स्वामी कुबेर का स्थान है। जहाँ भंडारकक्ष का निर्माण किया जाता है, किंतु यदि इसे शयनकक्ष के रूप में प्रयुक्त किया जाए तो इससे आर्थिक हानि होने एवं फालतू खरच बढ़ने की संभावना रहती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसे अच्छा नहीं माना जाता। उत्तर दिशा में सोने से मानसिक अशाँति बनी रहती है। हाँ, वायव्य कोण एवं उत्तर दिशा के मध्य में शयनकक्ष बना सकते हैं। नवदंपत्ति के लिए यह कक्ष सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।