
जहाँ कामना मिट जाएँ
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उस साल लड़के की सरदी थी । इस सरदी के साथ ही तुषारापात होने से वन-उपवन, पेड़-पौधे सभी सुख गए । हरियाली का एक तिनका भी नजर नहीं आता था । ऐसे में भला देवमंदिरों में पूजा-अर्जुन के लिए पुष्प कहाँ से मिलते ? सभी हताश थे और साथ में हतप्रभ भी । किसी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे अपने गुरु एवं इष्ट की अर्चना कैसे करें ?
किन्तु न जाने कैसे सुदास माली के सरोवर में एक कमल खिल उठा । ऐसा विहँसता हुआ कमल तो कभी शरदऋतु में भी नहीं खिला था । सुदास का हृदय प्रसन्नता से उमंग उठा, क्योंकि अब उसे मनमाना मूल्य पाने का अवसर सुलभ हो रहा था ।
प्रातः होते ही उसने कमल का फूल तोड़ लिया । उसे लेकर वह राजमहल की ओर चल पड़ा । राजभवन के द्वार पर पहुँचकर उसने राजा को संदेश भेजा । संदेश में कहलवाया कि वह एक ऐसा कमलपुष्प लाया है, जो बेजोड़ और बहुमूल्य है ।
तभी एक आगंतुक उधर से आ निकला । कमल पुष्प पर नजर पड़ते ही वह उस पर मुग्ध हो गया । उसने माली से पूछा-”क्या यह बिक्री के लिए है ?” माली बोला “मैं तो इसे महाराज को अर्पित करने के लिया लाया हूँ ।”
“पर मैं तो इसे महाराजाधिराज को अर्पित करना चाहता हूँ ।” आगंतुक ने कहा ।
“मैं आपका तात्पर्य नहीं समझा ।”
“दरअसल बात यह है कि भगवान् तथागत आज इस नजर में पधारे है । तुम तो अपने इस पुष्प का मूल्य बताओ ।”
“मैं तो इसके बदले एक सुवर्ण मुद्रा पाने की आशा लेकर आया हूँ ।”
“मुझे यह मूल्य स्वीकार है ।” आगंतुक के स्वर में उत्साह आ गया ।
उसी समय अचानक महाराज प्रसेनजित नंगे पाँव राजमहल से निकले । वे भी भगवान् तथागत के दर्शनों के लिए जा रहे थे ।
सुदास माली के हाथों में यह अनोखा कमलपुष्प देखकर वे बड़े आनंदित हो गए । वहीं रुकते हुए उन्होंने पूछा-”माली इस पुष्प का क्या मूल्य लगाते हो ?”
“राजन ! पुष्प तो मैं इन्हें बेच रहा हूँ ।”
“किस मूल पर ?”
“एक सुवर्ण मुद्रा के बदले ।”
“मैं तुम्हें इस सुवर्ण मुद्रा देता हूँ ।”
“तो मैं बीस दूँगा ।” आगंतुक महाराज का अभिवादन करते हुए बोला ।
कोशल नरेश भौचक्के रह गए । उन्हें चकित होते देखकर आगंतुक कहने लगा-”आज हम दोनों ही भगवान बुद्ध के दर्शन हेतु जा रहे है । इस समय हम दोनों ही उनके भक्त है । न राजा, न प्रजा, अतएव आप मेरी इस धृष्टता को क्षमा करेंगे ।”
उदारमना महाराज प्रसेनजित के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई । वह बोले-”सच कहते हो भक्तराज, किंतु मैं चालीस सुवर्ण मुद्राएँ दूँगा ।”
“तो मैं अस्सी दूँगा ।”
कमलपुष्प की इस तरह बढ़ती हुई कीमत देखकर माली चकित था । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह पुष्प अचानक ही इतना कीमती कैसे हो गया । अगले ही पल उसके मस्तिष्क में न जाने क्या विद्युत-सा कौंध गया और निश्चय के स्वर में उसने कहा-”आप लोग मुझे क्षमा करें । मैं किसी भी मूल्य पर यह बिक्री नहीं करूंगा ।”
इतना कहकर वह चल पड़ा । नगर के बाहर निकलकर वह सोचने लगा, जिन भगवान बुद्ध के लिए एक साधारण पुष्प की इतनी अधिक कीमत चुकाने के लिए उनके भक्त तैयार है । क्यों न मैं यह पुष्प उनके हाथों बेचकर मुँह माँगा मूल्य पाऊँ ।
भगवान बुद्ध की खोज करते-करते वह उस जगह आ पहुँचा, जहाँ वे वटवृक्ष के नीचे पद्मासन में बैठे हुए थे । अहो ! क्या अलौकिक सौंदर्य है ! क्या नेत्र है इस तपस्वी के !! इन नयनों से तो करुणा झर रही है । सुदास माली विस्मय−विमुग्ध हो एकटक उस महातपस्वी को देखता ही रह गया । फिर जैसे होश आते ही वह आगे बढ़ा और उस कमलपुष्प को उसने उस परमतेजस्वी तपस्वी के चरणों में अर्पित कर दिया ।
भगवान् बुद्ध मुस्कराए । बोल उठे-”क्या चाहते हो वत्स ?” “भगवान ! मेरी अब और कोई कामना नहीं है ।” माली ने अवरुद्ध कंठ से कहा, “बस आप मुझे अपना लें।” प्रभु की मुस्कान जैसे स्वीकृति का संदेश थी । वह उनका होकर सब कुछ पा गया । आज उसे कमलपुष्प का ही नहीं, अपने जीवन का सार्थक मूल्य मिल गया । अब वह तथागत की करुणा से स्नात था ।