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Magazine - Year 2000 - Version 2

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Language: HINDI
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लोकसेवी की जीवन नीति

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First 19 21 Last
लोकसेवा के लिए मन में उमंग और उत्साह उठने के तत्काल बाद उस ओर प्रवृत्त नहीं हुआ जा सकता। इसके लिए अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ता है। मान्यताओं में आवश्यक परिवर्तन कना पड़ता है, तब कही जाकर सेवा-साधना संभव होती है। मनुष्य के पास थोड़ी-सी शक्तियाँ और छोटा-सा जीवन है। उसे लौकिक प्रयोजनों में लगा दिया जाए अथवा पारमार्थिक प्रयोजनों में, यह निश्चित स्वयं ही करना पड़ता है। अपने स्वार्थों के लिए हर कोई प्रयत्न करता है। लोकसेवी अपनी शक्तियों का सुनियोजन जनसेवा के लिए, परमार्थ कार्यों के लिए करता है। अतः उसे अपनी आवश्यकताओं और सुविधाओं के लिए दूसरे से भिन्न दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और अपना जीवनस्तर, आवश्यकताओं तथा साधनों के उपयोग की रीति-नीति भिन्न रखनी चाहिए।

प्रायः दृष्टिकोण न बदलने के कारण ही सेवाधर्म कठिन जान पड़ता है और उसका निर्वाह नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए आवश्यकताओं को ही लें। बहुत से व्यक्ति यह सोचते हैं कि संपन्नता और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य है और उसे प्राप्त करने में जो सफल हो गया वही धन्य है। लोकसेवी का दृष्टिकोण इससे भिन्न होना चाहिए। उसे साधनों की विपुलता नहीं, व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को बड़प्पन का आधार मानना चाहिए। यदि ऐसा न हो सका, तो लोकसेवी उसी गोरखधंधों में उलझकर रह जाएगा, जिसमें कि दूसरे लोग उलझ जाते हैं। सर्वसाधारण की दृष्टि में सुविधाएँ और विलासिता के साधन ही जीवन की सार्थकता है। और विलासिता के साधन ही जीवन की सार्थकता है। यद्यपि वे सभी को उपलब्ध नहीं होते, परंतु उसकी गतिविधियों का केंद्रीय आधार वही रहता है। इच्छित स्तर की साधन संपन्नता हर कोई अर्जित नहीं कर पाता, लेकिन लक्ष्य सभी का वही रहता है। लोकसेवी को सर्वसाधारण से भिन्न रीति-नीति अपनानी चाहिए।

अपने निर्वाह के लिए लोकसेवी को कम से कम आवश्यकताएँ रखने का दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। समझा जाता है कि हम जितनी शान- शौकत और मौज-मजे में विलासितापूर्ण साधनों का उपयोग करेंगे, उतना ही बड़प्पन मिलेगा। वस्तुतः यह सोचना गलत है। इसके लिए अपनी बड़प्पन की परिभाषा बदलनी चाहिए। बड़प्पन धन-संपत्ति या शान-शौकत से नहीं, उत्कृष्ट और आदर्श व्यक्तित्व तथा महान् बनने वाले सद्गुणों से मिलता है। प्राचीनकाल में लोकसेवी परंपरा के अंतर्गत जितने भी संत, ऋषि, विचारक, मनीषी और महापुरुष हुए, उन्होंने यही दृष्टिकोण अपनाया। ऋषियों के रहन-सहन की सादगी इतनी सुविख्यात है कि उस संबंध में कुछ भी कहना पुनरुक्ति ही कहलाएगा। चाणक्य, जिन्होंने भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने लिए चंद्रगुप्त का मार्गदर्शन किया, हमेशा एक कुटिया में रहे। यदि वे चाहते, तो अपने लिए प्रचुर साधन-सुविधाएँ जुटा सकते थे और सुविधासंपन्न जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन लोकसेवियों की आदर्श परंपरा की रक्षा के लिए उन्होंने न्यूनतम आवश्यकता की मर्यादा का ही पालन किया।

इस युग में भी न्यूनतम आवश्यकताओं को रखते हुए जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुष हुए हैं और उन्हें भरपूर श्रद्धा मिली है। गोपालकृष्ण गोखले, महर्षि अरविन्द, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, गाँधी आदि मनीषी महामानवों का जीवन तो तीस-चालीस वर्ष पूर्व की ही बात हैं। उन्होंने अच्छी संपन्न स्थिति में रहते हुए भी न्यूनतम साधनों का उपयोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया। गोपालकृष्ण गोखले अच्छी संपन्न स्थिति के थे और आमदनी भी उन्हें पर्याप्त होती थी। पर उन्होंने अपने लिए यह मर्यादा बना ली थी कि परिवार के लिए तीस रुपये से अधिक खरच नहीं करेंगे। उन्होंने आजीवन इसी मर्यादा का पालन किया। महर्षि अरविंद जब इंग्लैण्ड से शिक्षा प्राप्त कर लौटे, तो उनकी नियुक्ति बड़ौदा के एक कॉलेज में 500 रुपये माहवार पर हुई।

चाहते तो वे अच्छा ठाठ-बाट बाद का जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन उन्होंने निश्चित किया कि पचहत्तर रुपये में अपना गुजारा चलाएँगे ओर वास्तव में उन्होंने अपने निश्चय के अनुसार ही जीवनस्तर रखा। ईश्वरचंद्र विद्यासागर को पाँच सौ रुपये प्रतिमाह मिलते थे, लेकिन उन्होंने अपने लिए पचास रुपये की ही व्ययसीमा रखी और आजीवन उसी स्तर को कायम रखते हुए सेवाधर्म का पालन करते रहे।

महात्मा गाँधी एक सस्ता-सा कपड़ा-धोती ही पहनते थे और सादे-से-सादे भोजन करते थे। इसी में उन्हें संतोष की अनुभूति अपने लिए पचास रुपये की ही व्ययसीमा रखी और आजीवन उसी स्तर को कायम रखते हुए सेवाधर्म का पालन करते रहे।

महात्मा गाँधी एक सस्ता-सा-कपड़ा-धोती ही पहनते थे और सादे-से-सादा भोजन करते थे। इसी में उन्हें संतोष की अनुभूति होती थी और जनसाधारण से निकट की आत्मीयता की अनुभूति भी प्राप्त होती रही थी। अपने बीच का अपनी स्थिति का व्यक्ति मानकर लोगों ने उन्हें जो सम्मान दिया, वह बीसवीं शताब्दी में शायद ही किसी व्यक्ति को मिला है।

यहाँ दो-चार महापुरुषों की ही चर्चाएं की गई हैं, अन्यथा संसार में जितने भी महान् व्यक्तित्व हुए हैं, उन्होंने आवश्यकताओं के संबंध में अनिवार्यता का दृष्टिकोण अपनाया। सुकरात के संबंध में अनिवार्यता का दृष्टिकोण अपनाया। सुकरात के संबंध में कहते हैं, जब भी वे कोई वस्तु खरीदते या कोई नया साधन जुटाते, तो उसके पहले अपने आप से यह प्रश्न करते कि क्या इस वस्तु के बिना मेरा काम नहीं चल सकता है? यदि उत्तर हाँ में मिलता तो वे खरीदते अन्यथा उस विचार को छोड़ देते थे। कम साधनों में निर्वाह, गौरव और गरिमा की बात है, यह दृष्टिकोण विकसित किया जा सके, तो न अभावों की समस्या रह जाती है और न किसी बात की कमी होने की शिकायत रह जाती है।

यह समझा जाता है कि यदि साधारण स्तर का जीवन व्यतीत किया जाए, तो लोग हमें घटिया, दरिद्र या कंजूस समझेंगे। लोगों की मान्यताएँ बनती और बिगड़ती रहती हैं, अन्यथा न सादगी का कभी अपमान हुआ है और न उसके प्रति किसी में घृणा उत्पन्न हुई है। बल्कि सादगीपूर्ण कम आवश्यकताओं में ही अपना गुजारा चला लेने वाले व्यक्तियों को असाधारण सम्मान मिला है। महात्मा गाँधी खद्दर की एक धोती भर पहनते थे और जनसाधारण जिन्हें अनुपयोगी ओर निम्नस्तरीय साधन-उपकरण समझते हैं, उनका प्रयोग करते थे। लेकिन इससे उनके सम्मान में कोई कमी नहीं आई। अपितु सर्वसाधारण भी उन्हीं साधनों को अपनाने में गौरव अनुभव करने लगे।

सामान्य रूप से लोग फूहड़पन और गंदे रहन-सहन को जरूर घृणा की दृष्टि से देखते हैं, किन्तु सादगी को सम्मान देते हैं। छोटे तबके के लोगों को लोग गिरी हुई निगाह से इसलिए नहीं देखते कि उनके पास पर्याप्त वस्त्र नहीं होते अथवा और दूसरे साधनों का अभाव रहता है, उनके प्रति असम्मान की भावना तब उभरती है, जब वे आलसी होने के कारण, गंदे और मूर्ख होने के कारण अव्यवस्थित रहते हैं। कम वस्त्र या कम साधन होने से कोई छोटा या गिरा हुआ नहीं हो जाता। गिरावट आती है- अस्वच्छता और अव्यवस्था से। इस प्रकार लोकसेवी को बड़प्पन की मान्यता परिष्कृत करनी चाहिए। अपना जीवनस्तर सादा, स्वच्छ तथा सुव्यवस्थित रखना चाहिए। सादगीपूर्ण वेशभूषा और न्यूनतम आवश्यकताएँ, यह सिद्धान्त अपने जीवन में समाविष्ट कर लेना चाहिए। सुरुचिपूर्ण सादगी को ही अपनी गौरवगरिमा समझने की दृष्टि विकसित की जानी चाहिए।

लोकसेवियों को अपने स्वरूप की गौरवगरिमा का ध्यान रखने के लिए उज्ज्वल चरित्र और धवल व्यक्तित्व की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिए। इस संबंध में यह मान्यता बनाई और अपनाई जाए कि हम जो कुछ भी करना चाहें, जो कुछ भी शिक्षा दें वह वाणी से कम और व्यक्तित्व से अधिक उद्भव हो। कहने का अर्थ यह है कि लोकसेवी अपनी गरिमा को समझें और उसे अक्षुण्ण बनाएँ। अपने स्वरूप और वेष के गौरव को प्राचीनकाल में साधु-ब्राह्मण-लोकसेवियों की परंपरा में मानते थे, किंतु आजकल ये शब्द रूढ़ हो गए हैं और वर्गविशेष का अर्थबोध कराते हैं, क्योंकि इस नाम से संबोधित व्यक्तियों ने भी वही रीति-नीति अपनाना आरंभ कर दिया, जिसे कि सर्वसाधारण अपनाता रहा। बल्कि इस दृष्टि से तो उनकी रीति-नीति और भी विकृत हो गई। कारण कि यह वर्ग जनश्रद्धा का भी दोहन करने लगा, अन्यथा एक समय था, जबकि साधु वेश का अर्थ ही निस्पृह, अपरिग्रही और सेवाभावी व्यक्ति समझा जाता था। उस बहरूपिये की कहानी प्रसिद्ध है, जिसने एक राजा के कहने पर कोई बड़ा कमाल दिखाने और बड़ा इनाम लेने की बात कही थी। उस कमाल के लिए बहरूपिया साधु बनकर बैठ गया था और राजा ने उस साधु के सामने सिक्के, अशर्फियों तथा मुहरों का ढेर लगा दिया, पर साधु बने बहरूपिये ने उस ओर आँख तक उठाकर नहीं देखा। बाद में जब रहस्य खुला और राजा ने पूछा- तुम्हारे सामने इतनी संपदा का ढेर लगा हुआ था, यदि तुम चाहते, तो उसे ले सकते थे, अब तुम्हें कितना इनाम मिल सकता है? इनाम की तुलना में तो वह भेंट कई गुना ज्यादा थी।

बहरूपिये ने उत्तर दिया था कि- यदि मैं वह भेंट स्वीकार कर लेता तो उससे साधु वेश की मर्यादा समाप्त हो जाती और अब लोगों के हृदय में साधु के प्रति जो श्रद्धा है, वह कम हो जाती। कहने का अर्थ यह कि साधु ब्राह्मण-लोकसेवा ही जिनका जीवनलक्ष्य था, अपनी मर्यादाओं और नियमों के प्रति इतनी दृढ़निष्ठा रखते थे कि जनसामान्य उस वेश को देखकर ही श्रद्धानत हो उठता था। लोकसेवी को भी अपना स्वभाव, अपना रहन-सहन और अपना आचरण इस स्तर का रखना चाहिए कि उसे देखकर ही लोगों में लोकसेवी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो।

इसके लिए आत्मनिर्माण की साधना करनी पड़ेगी। अपनी कमियों को खोजना और दूर करना, दुष्प्रवृत्तियों को हटाना तथा सत्प्रवृत्तियों को आने स्वभाव का अंग बनाना होगा। व्यक्तित्व की दृष्टि से लोकसेवी को अपना विकास इतना प्रखर और उच्च करना चाहिए कि उसकी वाणी से अधिक उसके कर्म प्रेरक बनें।

व्यक्तिगत रूप से अपने दृष्टिकोण को साफ करने और उसमें उज्ज्वलता, धवलता का समावेश करने के साथ ही परिवार के संबंध में भी अपने दृष्टिकोण और रीति-नीति को परिष्कृत कर लेना चाहिए। कहा जा सकता है कि हम तो कष्टसाध्य जीवन जी लेंगे, लेकिन परिवार के लिए तो पर्याप्त साधन चाहिए। लोकसेवा का व्रत ग्रहण करने के नाते अपनी आवश्यकताओं को तो कम किया जा सकता है, लेकिन बच्चों की सुविधाओं में तो कटौती नहीं की जानी चाहिए।

यदि यह दृष्टिकोण अपनाया गया, तो सादगी नाममात्र की चिह्न−पूजा बनकर रह जाएगी। सेवा-साधना के लिए सादगी जिन कारणों से आवश्यक है, वे कारण भी पूरे नहीं हो सकेंगे- जैसे सादगी के कारण जनसाधारण में अपनत्व की भावना जागती है। कहना नहीं होगा कि लोग लोकसेवी के साथ-साथ परिवार के संपर्क में भी आएँगे। परिवार के संपर्क में आने पर जब ठाठ-बाट और वैभव-विलास ही दिखाई देगा, तो लोकसेवी के रहन-सहन को नाटकीय समझने लगेंगे। यह भी हो सकता है कि से सोचें-अपने और परिवार के लिए तो इन्होंने सारे साधन जुटा लिए हैं और सादगी से रहने का उपदेश दे रहे हैं।

वैसी भी परिवार के लिए साधन-संपत्ति इकट्ठी करना या पर्याप्त सुविधाएँ जुटाना अनावश्यक है। न केवल अनावश्यक, वरन् अनेक दृष्टि से तो घर के बच्चों और स्वजनों के संस्कार बिगाड़ने जैसा है। उदाहरण के लिए, आज परिवार में इतनी संपत्ति है या इतना धन इकट्ठा कर लिया गया कि बच्चों को कभी पैदल चलने की जरूरत ही न पड़े। साइकिल, रिक्शा या स्कूटर जैसे साधन जुटा दिए गए, सभी सुविधाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने से, एक तो बच्चे को शरीरश्रम से जी चुराने की आदत पड़ेगी, दूसरा कभी संघर्ष पूर्ण परिस्थितियाँ आई, तो उन परिस्थितियों में निर्वाह बड़ा ही मुश्किल हो जाएगा।

परिवार के लिए सुविधा जुटाने और धन-संपत्ति इकट्ठी करने के स्थान पर सदस्यों में सद्गुणों का संवर्द्धन और उत्कृष्टता का अभिवर्द्धन किया जाए, तो अधिक श्रेयस्कर है। धनसंचय और संपत्तिसंग्रह कर घर के बच्चों को निकम्मा और आलसी बना देने की अपेक्षा अच्छा है कि उन्हें परिश्रमी, पुरुषार्थी और जीवन वाला तथा सद्गुणी बनाया जाए। संतान सुयोग्य हो या अयोग्य, दोनों ही स्थिति में उनके लिए धन-संपत्ति एकत्रित कर छोड़ जाना व्यर्थ है। किसी संत ने इसी को लक्ष्य कर कहा है- ‘पूत सपूत तो क्यों धन संचय। पूत कपूत तो क्यों धन संचय॥” अर्थात् संतान यदि सुयोग्य है, तो उसके लिए संपत्ति संग्रह की क्या आवश्यकता, क्योंकि अपने निर्वाह लायक उपार्जन तो वह अपनी योग्यता द्वारा ही कर लेगी और संतान यदि अयोग्य है, तो उसके लिए भी संपत्ति संग्रह व्यर्थ है, क्योंकि वह सारी संपत्ति अपनी अयोग्यता के कारण शौक-मौजों में नष्ट कर देगी।

अपना आदर्श, परिवार के लिए भी प्रेरक बनता है। प्रायः अभिभावक स्वयं अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर बच्चों के लिए सुविधा-साधन एकत्र करते हैं। यदि बच्चों को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने की चेष्टा की जाए, उनके व्यक्तित्व को परिष्कृत और संस्कारित बनाने के लिए प्रयास किए जाएँ, तो उसके सुखद भविष्य की संभावना अधिक रहती है। धनसंपत्ति से नहीं, गुण और योग्यताओं से ही भविष्य का निर्माण होता है। इस दृष्टि से परिवार के सदस्यों को परिमार्जित करने में समय लग सकता है। उसके लिए मूर्तिकार का-सा धैर्य रखना चाहिए। एक साधारण से पत्थर को मूर्ति का रूप देने में मूर्तिकार लंबे समय तक परिश्रम करता है और अनोकल्पित स्वरूप को साकार हुआ देखने के लिए कोई पूर्वक प्रतीक्षा करता है। लोकसेवी को चाहिए कि वह भी संतान को, परिवार के सदस्यों को आदर्शों के साँचे निकलने के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता रहे, स्वयं भी वैसा जीवन जिए एवं घर में भी वैसा वातावरण विनिर्मित करता रहे।

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