
मौत से डरने की कोई आवश्यकता नहीं
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“इस संसार में वही बुद्धिमान है, जो जीवन और मरण के रहस्य को जानता है; भय एवं आसक्तिरहित होकर जीवन जीता है और उसी आधार पर अपनी गतिविधियों को नियोजित करता है।” गायत्री गीता के अंतर्गत गायत्री मंत्र के प्रथम पद ‘तत्’ की विवेचना करते हुए उपर्युक्त सार निकलकर आता है। सामान्यतया देखा जाता है कि लोग जीवन से बहुत प्यार करते हैं और मृत्यु से बहुत डरते हैं। असाध्य रोगों से ग्रस्त रोगियों से मिलने पर उनके अंतस्तल की दशा-वेदना को समझने वाले जानते हैं। कि लोग मृत्यु से कितना डरते हैं। कभी खतरे की संभावना सामने आए, सिंह-व्याघ्र सर्प-चोर-डाकू आदि का भय सामने आने पर प्राण संकट अनुभव करके लोग थर-थर काँपने लगते हैं, होश उड़ जाते हैं। मृत्यु चाहे प्रत्यक्ष रूप से सामने न हो पर उसका कल्पना मात्र से इतना भय मालूम होता है, जो मृत्यु के वास्तविक कष्ट से किसी भी प्रकार कम नहीं होता।
प्राणों का भय सामने उपस्थित होने पर अधिकाँश लोग अपने कर्त्तव्य-उत्तरदायित्व, धर्म-आचार, आत्मगौरव आदि को तिलाँजलि देने में नहीं झिझकते। हम ऐसे धर्मप्राण बनने वाले व्यक्तियों को जानते हैं, जिन्होंने डॉक्टरों द्वारा रोग को प्राणघातक बता देने पर शरीर जाने के भय से माँस, अंडे, मछली का तेल, मद्य आदि का सेवन किया। पिछले समय धर्मोन्मादी व्यक्तियों द्वारा जो पैशाचिकताएँ बरती गई, उनका सबको पता है। अत्याचारियों के चंगुल में फँसने पर कितनों ने ही अपना आत्मगौरव, धर्म, कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व आदि को छोड़कर बड़े-से-बड़ा अत्याचार अपनी आँख से देखते हुए भी प्राणी भिक्षा के लिए गिड़गिड़ाते हुए आत्मार्पण किया।
मृत्यु का भय साधारण भय नहीं है। अविकसित, क्षुद्र हृदय व्यक्ति तो उससे भयभीत रहते ही हैं, पर वे लोग जो अपने सिद्धाँतवादी, वीर, कर्त्तव्यनिष्ठ और धर्मप्रेमी समझते हैं, परीक्षा का समय आने पर विचलित हो जाते हैं। ईसामसीह ईश्वर से प्रार्थना करते थे “हे प्रभु! हमें बुराइयों से बचा, पर परीक्षा में न डाल।” क्योंकि वे जानते थे कि मनुष्य बड़ा डरपोक है। प्राण त्याग तो दूर- शारीरिक कष्ट, आर्थिक क्षति या इच्छापूर्ति में प्रतिरोध दिखाई ही वह विचलित हो जाता है।
जीवन का निर्माण इस प्रकार हुआ है कि निरंतर खतरे उपस्थित होते रहते हैं। निर्माण और विनाश दोनों ही एक-दूसरे से प्रगाढ़ रूप से संबद्ध है। बीज गले बिना वृक्ष नहीं होता और फल टूटे बिना बीज नहीं बनता। नया जीवन धारण तब होता है, जब किसी की मृत्यु होती है और मृत्यु तब होती है, जब कोई जीवन नष्ट होता है। रात्रि और दिन की भाँति, सुख-दुख, हानि-लाभ का भी जोड़ा है। लोग सुखकर अवसरों का तो प्रसन्नतापूर्वक उपभोग कर लेते हैं, पर डरते-काँपते-भयभीत होते रहते हैं।
विघटनात्मक, विनाशात्मक स्थितियों से डरने-घबराने का कारण मनुष्य की एक आध्यात्मिक भूल है। वह भूल यह है कि वह शरीर को ही ‘मैं’ मान बैठता है। अपने आपको शरीर समझने के फलस्वरूप आत्मलाभ, आत्माँद, आत्मरक्षा, आत्मपरायणता, आत्मप्रतिष्ठा, जैसी वृत्तियों का परिवर्तित स्वरूप शरीर लाभ, शारीरिक आनंद, शरीर रक्षा, शरीर परायण, शरीर प्रतिष्ठा बन जाता है। जब ऐसा हो जाता है, तो वही अज्ञान संभव परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे आज जनसाधारण ग्रस्त है।
स्वार्थ मनुष्य की सर्वप्रिय वस्तु है। ‘अपनापन’ सबको प्यारा है। संसार का जो भी पदार्थ प्रिय लगता है, वह अपनेपन की भावना के कारण ही प्रिय लगता है। जब शरीर को ‘स्व’ मान लिया गया, तो उसके नष्ट होने का भय आत्मनाश के समान लगना चाहिए। जब शरीर ही ‘स्व’ है, तो शारीरिक इंद्रियों के भोग विलासों को आत्मानंद समझा ही जाना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के लिए शारीरिक-साँसारिक सुख पाने के लिए धर्म-कर्त्तव्य आदि शारीरिक-सांसारिक सुख पाने के लिए धर्म-कर्त्तव्य आदि को छोड़ देना और हत्या, डकैती तथा खतरे से भर दुस्साहसी कार्य कर डालना साधारण बात होती है।
आत्मा और प्रकृति के समन्वय का नाम ही जीवन है। जीवन इतना आनंदमय, इतना उल्लासमय, इतना सरस है कि उसका रसास्वादन करने के लिए जीवन संसार में बार-बार आता है। बार-बार जन्म लेता है। यदि ऐसा बात न होती, जीवन का मूल रूप दुःख, भय चिंता और क्लेशमय होता, तो निश्चय ही परमात्मा का अमर युवराज आत्मा उसे ग्रहण करने को कदापि तैयार न होता।
गायत्री मंत्र का प्रथम ‘तत्’ हमें बताता है कि हम जीवन और मरण के रहस्य को समझें, भय और आसक्तिरहित जीवन जिएँ और वास्तविकता के सुदृढ़ आधार पर अपनी गतिविधियों का निमार्ण करें।