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Magazine - Year 2000 - Version 2

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ऊर्जा तरंगों के महासागर में रह रहे हम सब

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जिस प्रकार जलीय जंतु सरोवर और सागर में रहते हैं, उसी प्रकार हम ऊर्जा के महासागर में रह रहे है । यहाँ का प्रत्येक पदार्थ ऊर्जावान है । उसके कण-कण से यह निस्सृत होती और समस्त प्राणियों को प्रभावित करती है ।

ऊर्जा के संदर्भ में पदार्थों की दो प्रकार की प्रकृति होती है-लाभकारी एवं हानिकारक । कुछ पदार्थ ऐसे है, जिनसे लाभकारी ऊर्जा निकलती है, फलतः मनुष्य के लिए उनका सान्निध्य उत्तम माना जाता है, जबकि कई पदार्थ अपनी नकारात्मक ऊर्जा तरंगों के कारण कष्टकारक होते हैं, इसलिए ऐसे पदार्थों से परहेज करना और दूरी बनाए रखना आवश्यक होता है । दैनिक जीवन में आदमी यदि इस तथ्य की उपेक्षा करे, तो स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से उसे दो-चार होना पड़ सकता है ।

यों तो वस्तुओं की अच्छी-बुरी तरंगें काफी हद तक मनुष्य की समझ पर निर्भर है, अतएव यह कहना गलत न होगा कि साधारण बुद्धि द्वारा उसमें हेर-फेर संभव है । कमरे में ढेर सारी चीजें पड़ी रहती है-कुछ अव्यवस्थित । अरविंद आश्रम की श्री माँ कहा करती थी कि व्यवस्थित ढंग से रखी हुई वस्तुओं से उत्पन्न होने वाली तरंगें मन को सरसता और शाँति प्रदान करती है । इसके विपरित इधर-उधर अस्त−व्यस्त पड़ी चीजों से निकलने वाली ऊर्जा तरंगें निषेधात्मक प्रकृति की होती है, इसलिए ऐसे स्थानों पर निवास करने वाले लोगों के मन में वह उमंग और उत्साह नहीं दिखाई पड़ता, जो आमतौर पर दिखलाई पड़ना चाहिए । इसी कारण से सज्जा, सुव्यवस्था और स्वच्छता को अध्यात्म का एक अविच्छिन्न अंग माना गया है और उसे सुविकसित व्यक्तित्व के अनुरूप बतलाया गया है ।

जिस प्रकार वस्तुओं की अस्तव्यस्तता नकारात्मक तरंगें पैदा करती है, उसी प्रकार कई बार स्थान विशेष भी अपनी अप्रिय तरंगों के लिए कुख्यात होते हैं । मरघट, कब्रिस्तान आदि ऐसी ही जगहें है । उनके आस-पास रहने या उधर से होकर गुजरने से मन में भय, रोमाँच, शंका, निराशा जैसी मनःस्थिति पैदा होती है, जो उस सीमाक्षेत्र को पार करते ही स्वतः शाँत हो जाती है । ऐसे ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे जैसी उपासना स्थलियों में निवास करने से मन उत्फुल्लता से ओतप्रोत रहता है । चेतना विज्ञानियों का इस संबंध में मत है कि दीर्घकालीन मानवी गतिविधियाँ स्थानीय तरंगों की प्रकृति को अपने स्वभाव के अनुरूप प्रभावित-परिवर्तित करती या यों कहें कि उन पर हावी हो जाती है, तो अत्युक्ति न होगी । इस प्रकार किसी स्थान पर लंबे काल तक चलने वाले जप, तप, ध्यान, व्रत, अनुष्ठान वहाँ की तरंगों को अपने अनुरूप मोड़ लेते हैं । इसके विपरीत जहाँ हर प्रकार की दुरभिसंधियाँ रची जाती या हत्या, व्यभिचार, अत्याचार, उत्पीड़न जैसे पाप किए जाते अथवा उनकी योजनाएँ बनाई जाती है, वहाँ की अवाँछनीय तरंगें व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर सवार होकर उन्हें तद्नुरूप दुरित करने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करती है ।

पृथ्वी से निकलने वाली ऊर्जा तरंगें या विकिरण समान प्रकृति वाली स्थानीय तरंगों से मिलकर और प्रबल हो उठती है और वहाँ निवास करने वाले मनुष्यों को ही नहीं, पशुओं एवं वनस्पतियों तक को प्रभावित करती है ।

सन् 1980 में जर्मन भौतिकशास्त्री अन्स्ट हार्टमैन ने धरती से निकलने वाले इस ऊर्जा ग्रिड को मापने के लिए एक अति सुग्राहक यंत्र बनाया । इसका नाम ‘लोब एंटीना’ रखा गया । इस उपकरण के माध्यम से पिछले दिनों यह जाना जा सका कि जैवविद्युत, चुँबकीय ऊर्जा ग्रिडस् बीस प्रकार के होते हैं, जिनमें से चार मनुष्य के लिए अत्यधिक उपयोगी और महत्वपूर्ण है । पृथ्वी के धरातल से संवाहित होने वाली ऊर्जा को ‘टेलुरिक ऊर्जा’ कहते हैं । चुँबकीय दृष्टि से यह ऊर्जा तरंगें उत्तर-दक्षिण तथा पूरब-पश्चिम दिशा में संकेंद्रित होती है । वास्तुशास्त्र वास्तव में इन्हीं ऊर्जा तरंगों के दोहन और स्वास्थ्यसंवर्द्धन, सफलता, शाँति एवं उन्नति की दिशा में उनके उपयोग का नाम है । प्राचीनकाल में इसलिए भवननिर्माण के समय उक्त तथ्य का बराबर ध्यान रखा जाता था, ताकि नकारात्मक ऊर्जा तरंगों से सुरक्षा और सकारात्मक तरंगों से लाभान्वित हुआ जा सकें । लंबे अध्ययनों से यह विदित हुआ है कि समय के प्रहर विशेष से इस ऊर्जा-प्रवाह का गहन संबंध है और उस दौरान इसकी तीव्रता अत्यंत उच्च तथा सकारात्मक होती है । कदाचित् इसी कारण से शास्त्रों में ब्रह्ममुहूर्त में जागने पर इतना बल दिया गया है और उसके मध्य पूजा-उपासना की इतनी महत्ता बताई गई है, ताकि उस प्रवाह का अधिकाधिक उपयोग स्वास्थ्य संवर्द्धन और आत्मिक उन्नयन की दिशा में किया जा सकें । मानवेत्तर प्राणी इस ऊर्जा ग्रिडस् के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं । अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि चींटी, दीमक, सर्प जैसे जीवधारी सदा नकारात्मक ऊर्जाक्षेत्र में रहते हैं, जबकि कुत्ते, घोड़े, गाय, बकरी जैसे पालतू जीव सदैव सकारात्मक ऊर्जाक्षेत्र को पसंद करते और उसमें सुख अनुभव करते हैं । अध्ययनों से यह भी पता चला है कि भूकंप आने से लगभग बारह घंटे पूर्व टेलुरिक ग्रिडस् पृथ्वी के अंदर की भूकंपीय हलचलों को ग्रहण कर लेते हैं, जिसके कारण उसमें स्पष्ट रूप से परिवर्तन आ जाता है । मानवेत्तर प्राणी इस सूक्ष्म परिवर्तन को पकड़ लेते हैं । यही कारण है कि भूकंप से पहले उनमें एक अजीब बेचैनी दिखाई पड़ने लगती है । इसलिए भवननिर्माण के समय इस बात पर विशेष रूप से विचार किया जाता है । साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि उसमें कोई ऐसी सामग्री या पदार्थ न लग जाए, जो नकारात्मक ऊर्जा-स्रोत हो । विशेषज्ञ बताते हैं । कि ग्रेनाइट, क्वार्ट्ज एवं कुछ विशेष प्रकार के रत्नों से ऐसी तरंगें उद्भूत होती है, जो काया पर अप्रिय प्रभाव डालती और रक्तसंचरण से लेकर मस्तिष्कीय गतिविधियों तक में अवरोध पैदा करती है, किन्तु विडंबना यह है कि आज ये बड़प्पन के प्रतीक बने हुए है और आदमी सब कुछ जानते-समझते हुए भी इन्हें मकानों, दुकानों और गहनों में लगाकर गौरवान्वित अनुभव करता है । यह ठीक नहीं । इसके विपरित कई ऐसे पदार्थ भी है, जो ऐसे ऊर्जाक्षेत्र का निर्माण करते हैं, जिन्हें लाभकारी कहा गया है । बालू,, पत्थर, संगमरमर आदि ऐसी ही वस्तुएँ है । इनका सामीप्य स्वास्थ्यवर्द्धक होता है । यही कारण है कि साधना-उपासना, ध्यान जैसे आत्मोत्थानपरक उपचार नदियों, पहाड़ों पर करने का आप्तवचन है । आजकल इसकी उपेक्षा हो रही है, अतः उस लाभ से वंचित रह जाना पड़ता है ।

सूर्यकिरणें प्राकृतिक ऊर्जा की अजय स्त्रोत है । इसी प्रकार अग्नि और दीपक भी सकारात्मक ऊर्जा के उत्तम उद्गम है यह असीम ऊर्जा संवहन करते हैं, अतएव भारतीय संस्कृति में पूजा-आरती एवं दूसरे धार्मिक कर्मकाँडों के समय दीप प्रज्वलित करने एवं हवन-यज्ञ करने का प्रावधान है । विषम संख्या में दीप प्रज्ज्वलन से ऊर्जामय वातावरण का निर्माण होता है-इस तथ्य की जानकारी ही वास्तव में उस प्रचलन के मूल में सन्निहित है, जिसमें प्रत्येक धार्मिक किया-कृत्य में विषम संख्या में दीप जलाने का विधान है । लौ की संख्या सम होने पर ऊर्जा-संवहन निष्क्रिय हो जाता है-इस बात का भी भलीभाँति ज्ञान हमारे पूर्वजों को था । अखण्ड दीप, अखण्ड अग्नि जैसे प्रावधानों के पीछे भी यही निहितार्थ है कि उनसे निकलने वाली सूक्ष्म ऊर्जा-तरंगों से लाभान्वित हुआ जा सके । जहाँ इस प्रकार की व्यवस्थाएँ है, वहाँ के वातावरण में हर कोई कुछ असाधारण अनुभव कर सकता है । यह कहने की नहीं, अनुभव करने की बात है ।

फूल, धूपबत्ती, अगरबत्ती जैसे तत्व भी ऊर्जा के अच्छे ओर उच्च संवाहक है । ऐसे वातावरण में रहने वालों के जैव विद्युत चुँबकीय ऊर्जा में अद्भुत वृद्धि देखी गई है । किरलियन फोटोग्राफी द्वारा किए गए अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि रंग-बिरंगे ओर सुगंधित पुष्पों वाले उद्यान में कुछ समय बिताकर बाहर आने वाले लोगों का प्रभामण्डल असामान्य रूप से बढ़ जाता और शरीर के चारों ओर उसका विस्तार अधिक व्यापक हो जाता है । यही बात धूपबत्ती, अगरबत्ती जैसे सुगंधित द्रव्यों के संदर्भ में भी देखी गई है । भीनी सुगंध वाली धूपबत्ती-अगरबत्ती के संपर्क में थोड़े समय तक रहने पर भी आभामंडल में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है, जो इस बात की प्रतीक है कि उसके जैव विद्युत चुंबकीय ऊर्जाक्षेत्र में अभिवृद्धि हुई है । शायद इसीलिए सुगंधित पुष्पों से युक्त प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है । इतना ही नहीं, जप-ध्यान के कक्ष में इन्हें रखने पर संभवतः इस कारण से बल दिया जाता है , ताकि इनसे निस्सृत होने वाली ऊर्जा तरंगों से जप-ध्यान द्वारा उद्भूत ऊर्जा को बढ़ाने में अतिरिक्त सहायता मिले और साधक थोड़े-से प्रयास से अधिक ऊर्जावान बन सकें ।

अब आसपास के वातावरण में ऊर्जा क्षेत्र के विभिन्न स्तरों को मापना संभव हो गया है । इसके लिए लेसर एंटीना एवं बायोमीटर नामक दो प्रकार के यंत्र इस्तेमाल किये जाते हैं । दोनों में बायोमीटर अधिक प्रचलित एवं प्रसिद्ध है । इसे दो फ्राँसीसी वैज्ञानिक अंतायेन बोविस तथा आँद्रे सिमाँटन ने विकसित किया था, अस्तु ऊर्जा की इकाई ‘बोविस’ प्रचलित हो गई । उक्त उपकरण द्वारा किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्ति से संबंधित ऊर्जा आसानी से मापी जा सकती है । इस स्केल में एक स्वस्थ मानवी काया को ऊर्जा 9500 बोविस मापी गई है । इससे अधिक ऊर्जा उसके योगाभ्यासी होने की सूचक है और कम इस बात की ओर संकेत करती है कि वह बीमार है । उक्त यंत्र द्वारा जब षट्चक्रों के ऊर्जास्तर को नापा गया, तो उनमें 9900 बोविस से लेकर 14000 बोविस तक ऊर्जा देखी गई । विभिन्न धर्मों के उपासनास्थलों का जब तुलनात्मक अध्ययन किया गया, तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा कि उनमें से हरएक में सकारात्मक ऊर्जापुँज विद्यमान था और उनका स्तर सामान्य स्थानों की तुलना में काफी बढ़ा-चढ़ा था । उदाहरणार्थ, चर्च में क्रॉस के गिर्द लगभग 10000 बोविस ऊर्जा का पता चला । चर्च के घंटे से भी करीब इतनी ही ऊर्जा निकलती है । यह ऊर्जास्तर मानव−शरीर में हृदय के आसपास ‘अनाहत चक्र’ के समीप देखा गया । मस्जिदों में इसका स्तर 11000 बोविस रिकार्ड किया गया है, जो गले में स्थित ‘विशुद्धि चक्र’ की ऊर्जा के बराबर है । तिब्बती मंदिरों के गर्भगृह में यह माप लगभग 15000 बोविस के करीब होता है । यही भ्रूमध्य स्थित आज्ञाचक्र का ऊर्जास्तर है । तिब्बती परंपरा के प्रार्थनाचक्र यंत्र की स्थिति ऊर्जा की दृष्टि से काफी उच्च मानी गई है । शोध-अध्ययनों के दौरान यह 12000-14000 बोविस ऊर्जा उत्सर्जित करता पाया गया । शिव मंदिरों में शिवलिंग के निकट ऊर्जास्तर सर्वोच्च होता है । अनुसंधानों में यह 19000 बोविस एवं उससे अधिक प्राप्त हुआ । यही स्तर ‘शून्य चक्र’ अथवा सहस्रार का है ।

इसी प्रकार धार्मिक प्रतीकों, चिह्नों का जब अध्ययन किया गया, तो उनमें विद्यमान् ऊर्जा की प्रकृति न सिर्फ सकारात्मक थी, अपितु उसका स्तर भी अत्यंत उच्च था । स्वस्तिक चिह्न में यह ऊर्जा दस लाख बोविस पाई गई, जबकि उलटे बने स्वस्तिक में ऊर्जा-परिमाण तो उतना ही था, पर वह नकारात्मक था । इसके विपरित हिटलर द्वारा प्रयुक्त स्वस्तिक में ऊर्जास्तर अपेक्षाकृत कम था और वह एक हजार बोविस के बराबर था। इससे स्पष्ट है-क्यों भारतीय संस्कृति में इस चिह्न का इतना महत्व है और क्यों इसे धार्मिक कर्मकाँडों के दौरान, पर्व-त्यौहारों में, अल्पनाओं एवं मुँडन के उपराँत छोटे बच्चों के मुँडित मस्तक पर, गृहप्रवेश के दौरान दरवाजों पर और नए वाहनों की पूजा-अर्चा के समय वाहन पर इसे पवित्र प्रतीक के रूप में अंकित किया जाता है ।

इतना स्पष्ट हो जाने के उपराँत अब यह असमंजस करने की तनिक भी गुंजाइश नहीं है कि क्यों किन्हीं मकानों, स्थानों, दुकानों, पदार्थों और प्रतीकों के संपर्क में आकर व्यक्ति की मनःस्थिति गड़बड़ाने लगती है, जबकि किन्हीं अन्य वस्तुओं, व्यक्तियों, तीर्थों और भवनों के सान्निध्य में रहकर उसका मन उल्लास से भर उठता है । कारण एक ही है-उनके द्वारा विकीर्ण होने वाली उत्कृष्ट या निकृष्ट स्तर की ऊर्जा तरंगें ।

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