
गुमनामी के गर्त्त में छिपा एक बलिदान
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वह किशोरवय का बालक था। उसकी अवस्था यह कोई बारह साल रही होगी। अभी वह अपने घर की छत तले दहलीज में बैठा हुआ सामने की राह को निहार रहा था। रहा से गुजरते हुए अपने हमउम्र बालकों को अपने पिता के साथ जाते हुए देखता, तो उसका भी नन्हा सा दिल पिता का प्यार पाने को मचल उठता। जब कभी उसके गाँव के आप-पास मेले लगते या हाट-बाजार होता, तो सभी बच्चों अपने माता-पिता के साथ जाते। वह मेले से लौटते हुए इन बच्चों के हाथों में फिरकी, लट्टू या खिलौने लिए हुए देखता, तो यह मासूम बालक भी अपने आप में गहरी तड़प-सी महसूस कर लेता।
वह बार-बार अपनी माँ से अपने पिता के बारे में पूछता। तब माँ कहती- ‘बेटे! तुम्हारे पिता बहुत बड़े शिल्पकार हैं। हम लोग बहुत गरीब है, इसलिए अर्थोपार्जन हेतु तुम्हारे पिता सुदूर नगर में गए हैं। लेकिन वे जब जल्दी ही लौट आएँगे। तब देखना वे तुम्हारे लिए ढेर सारे खिलौने व मिठाई भी लाएँगे।”‘ माँ की प्यारी-प्यारी बातें सुनकर उसका मन जैसे-तैसे बहल जाता, पर स्वयं माँ के चेहरे पर एक वेदना भरी उदासी की धुँध छा जाती। इन्हीं बातों में समय बीतता जा रहा था। वह रोज ही अपने पिता के बारे में सवाल करता और माँ कोई नया बहाना बनाकर उसे खुश करने की कोशिश करती। उसे कहानियाँ सुनाती या फिर उसके हाथों में छोटी-सी छैनी-हथौड़ी थमाकर, उसको अनगढ़ पत्थरों से खेलने के लिए भेज देती और वह खेल ही खेल में उन पत्थरों को तराशकर उन्हें कोई नया ही रूप दे डालता। माँ अपने बेटे की कारीगरी देखकर खुश हो जाती। वह सोचने लगती कि आखिर वंशानुगत गुण पुत्र में विद्यमान् हैं। शिल्पकार का बेटा शिल्पकार ही बने, यह स्वयं उसकी भी इच्छा थी।
अपने पिता के बारे में जिज्ञासा करते, उनकी चर्चा सुनते उसे काफी साल हो गए थे। अब तो वह बारह वर्ष का भी हो चुका था। एक दिन उसने अपने पिता के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए भोजन-पानी का त्याग कर दिया और अपनी माता से इस बात के लिए जिद ठान ली कि वह भी अपने पिता के पास जाएगा। माँ घबरा गई। आखिर घर का यही तो एक चिराग है, भला इसकी लौ को वह कैसे कँपकँपाने दे।
वह कहने लगी- बेटा! तुम्हारे पिता तुम्हारा जन्म होते ही कलिंग के एक नगर कोणार्क गए हैं। वहाँ सूर्य-मंदिर का निर्माण हो रहा है। अब तो बारह साल भी बीत चुके। तुम्हारे पिता अपना काम समाप्त करके आने वाले ही होंगे। तुम वहाँ जाकर क्या करोगे? फिर वहाँ का रास्ता भी बहुत लम्बा और भयानक है। जंगल में हिंसक जानकर भी रहते हैं। कितने ही नदी-नाले और पहाड़ हैं। तू तो छोटा-सा बालक है, ऐसी परेशानियों के बीच वहाँ कैसे जा सकता है?”
“नहीं माँ-मैं जरूर जाऊँगा। अगर राह में किसी जंगली जानवर ने मेरी राह रोकी तो मेरे पास मेरा हथियार छैनी- हथौड़ी है। मैं उनको मारकर अपनी राह सुगम बना लूँगा। नदी-नाले-पहाड़ मैं हँसते-हँसते पार कर लूँगा और देखना वह दिन बहुत दूर नहीं, जब मैं अपने पिता जी को साथ लेकर लौटूँगा। अब तुम तुरंत अपने घर को सजाना-सँवारना शुरू कर दो। अब हमारे घर में खुशियाँ-ही-खुशियाँ होंगी।”
इस बालहठ के सामने माता की एक न चली और उसने मार्ग में खाने की पोटली देते हुए आँसू भरी आँखों से अपने बेटे को विदा कर दिया। कोणार्क के बारे में अनेकों कहानियाँ-किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार सूर्यदेव एवं भगवान् शिव ने यहाँ पर कठोर तपश्चर्या की थी।
लागुँला राजा नरसिंहदेव इन दिनों यही पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करा रहे थे। कहा जाता है कि नरसिंह देव का जन्म उनके माता-पिता के द्वारा सूर्य की आराधना करने से हुआ था। जब ये राजगद्दी पर बैठे, तब उनकी माता ने आदेश दिया कि तुम्हारे पिता अनंगदेव ने पुरी के मंदिर का फिर से जीर्णोद्धार कराया था। तुम भगवान् सूर्यदेव का मंदिर बनाकर अपनी कीर्ति और यश का ध्वज फहराओ। अपनी माता की इस आज्ञा से प्रेरित होकर नरसिंहदेव उन दिनों यह निर्माण करा रहे थे। उन दिनों इस क्षेत्र को आकर क्षेत्र कहा जाता था। पहले इस गाँव का नाम भी कण-कण था, पर धरती के कोने में स्थित होने के कारण कोण + आरक संधि से इनका नाम कोणार्क हो गया। इसके अलावा यह भी एक सच्चाई है कि ‘अर्क’ शब्द सूर्य का पर्याय है। यानि कि ‘अर्क’ सूर्य भगवान् का ही एक नाम है। इस तरह कोण+अर्क होकर इसका नाम कोणार्क हुआ।
इस भव्य निर्माण से पहले यहाँ सूर्य प्रतिमा का एक छोटा सा देवालय था। कोणार्क सूर्य मंदिर के निर्माण के लिए जगह-जगह से शिल्पकार बुलाए गए थे। बारह सौ शिल्पकारों में इस बालक आर्जव का पिता वसुषेण भी था, जो इन शिल्पकारों का मुखिया था। इस मंदिर को बनाने में बारह वर्ष लग गए थे। शिल्पकला एवं वास्तुकला के नमूनों से इसे सजाया गया।
सारा मंदिर तो तैयार हो गया, पर शिखरकलश नहीं बन पा रहा था। सारे शिल्पकार मिल-जुलकर अथक कोशिश करके उसे बनाते, पर रात भर में वह ध्वस्त हो जाता। उनकी समझ के अनुसार वे कहीं भी भूल नहीं कर रहे थे, पर कलश था कि ठीक ही नहीं रहा था।
उस दिन शाम की देवी अपनी सुरमई रथ पर सवार होकर धरती पर आने की तैयारी कर रही थी। तभी किशोरवय के आर्जव ने कोणार्क की धरती को प्रणाम किया। सामने उत्तुँग लहरों से अपनी जलराशि को उड़ेलता विशाल महासागर और उसके किनारे पर यह विराट् मंदिर देखकर वह विस्मय-विमुग्ध हो गया।
मंदिर से बाहर पास के परिसर में बारह सौ शिल्पकार सिर झुकाए बैठे थे। उनके मुख पर उदासी एवं भय की स्याही पुत रही थी। किसी के चेहरे पर हर्ष का नामोनिशान नहीं था। आर्जव ने अपनी माँ द्वारा बताए गए लक्षणों से अपने पिता को पहचाना और चरणरज मस्तक से लगाते हुए पूछा- “पूज्यवर! आप सभी ऐसे क्यों बैठे हैं? क्या कुछ अघटित घट गया है! प्रकृति का सबसे सुँदर दृश्य आपके सामने उपस्थित है। डूबते हुए सूर्य ने मानो समुद्र पर स्वर्णराधि बिखेर दी हैं। ऐसा मोहक दृश्य आपके सामने है और आप लोग उदास और चिंतातुर! हो सके तो कृपया अपनी परेशानी मुझे भी बताइए। आप सबको ऐसे बैठे हुए देखकर मेरा मन भी उद्वेलित और विक्षुब्ध हो रहा है।” बच्चे की मधुर वाणी ने मुखिया वसुषेण को बोलने पर विवश कर दिया।
वह कहने लगा- “बेटा! तुम छोटे-से बालक हो। तुमको बता देने भर से हम सबकी यह विपदा टलने वाली नहीं है, फिर भी तुम्हारा आग्रह है, तो तुम्हें बता देते हैं। यह जो सामने विराट् मंदिर है, उसका निर्माण करने-बनाने-सँवारने में हम बारह सौ शिल्पकारों को पूरे बारह वर्ष लग गए। हमारे परिश्रम ने इस मंदिर शिल्पकला का एक अद्वितीय रूप दिया है। फिर भी एक कमी रह गई है, जो हमारे लगातार के प्रयासों के बावजूद किसी भी तरह पूरी नहीं हो पा रही है।”
“हम लोग मंदिर का शिखरकलश बनाते हैं, पर वह ढह जाता है। कलिंग के अधिपति महाराज नरसिंहदेव ने हमें आज की रात और बख्शी है। कल सूर्योदय होने तक अगर शिखरकलश नहीं बना, तो हम सबको फाँसी दे दी जाएगी। हम अपनी घर-गृहस्थी से दूर, यहाँ बारह वर्षों से पड़े हैं। सोचा था मंदिर पूर्ण होते ही हम सब अपने-अपने घरों को लौट जाएँगे, उनके सुख-दुःख में साझीदार बनेंगे। मैं तो जब घर से चला था, तब मेरे घर पुत्र ने जन्म लिया था। अब तो वह तुम्हारे उम्र का हो गया होगा। उसे देखने की कितनी उमंग है। पर लगता है कि सारी उमंग धरी रह जाएगी। सुबह की पहली किरण के साथ हमारी देहलीला समाप्त हो जाएगी। संभवतः हमारे प्रारब्ध में यही सब लिखा था। होनी को भला कौन टाल सकता है। मुखिया ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
इस बालक की बातें सुनकर मुखिया के उदास चेहरे पर हलकी-सी मुसकराहट तैर गई। वह कहने लगा- “तुम भी अपना मन बहला सकते हो, बेटा! पर जो काम हम निपुण शिल्पकार नहीं कर सके, वह तुम्हारे छोटे-छोटे हाथ किस तरह और कैसे पूरा करेंगे? यह भी प्रभु की लीला है, जो एक नन्हा-सा बालक आज हमें साँत्वना दे रहा है, कोई बात नहीं तुम भी कोशिश कर देखो, बेटे!”
आर्जव अपनी छैनी-हथौड़ी ले मंदिर के शिखर पर चढ़ गया और सभी शिल्पियों की तरफ से विश्वकर्मा को नमन करता हुआ अपने काम में जुट गया।
पता नहीं, कितनी अनजान पहेलियाँ काल के गर्भ में छुपी हैं, कोई नहीं जानता। पूर्णिमा की उज्ज्वल चाँदनी में शिखरकलश चमकने लगा। सुबह होने तक आर्जव ने मंदिर का शिखरकलश बनाकर मंदिर को एक नई छटा दे दी। सारे शिल्पकार चकित रह गए। मुखिया ने अपने सारे औजार आर्जव के चरणों में रखते हुए गदगद स्वर में कहा- “छोटे विश्वकर्मा! हम तुम्हें प्रणाम करते हैं। हमारी मौत तो निश्चित है, पर हमें मरते हुए भी खुशी है कि हमारा अधूरा कार्य तुमने पूरा किया। लोग युगों-युगों तक तुम्हारा नाम याद रखेंगे।”
अब ऐसा क्या बाकी रह गया है, पूज्यवर, जो आप इतनी निराशा की बातें कर रहे हैं। अब तो आप सबको अपने परिवार एवं प्रियजनों से मिलने से कोई नहीं रोक सकता है।” नन्हें-से आर्जव ने बड़ी बात कही।
“हमारी मृत्यु फिर भी निश्चित है। पुत्र! जब सुबह राजा को मालुम होगा कि जो काम हम सब मिलकर नहीं कर पाए, उसे एक छोटे से बालक ने पूरा कर दिया, तो वह हमारी नियत पर संदेह करेगा अथवा हमारी कार्यकुशलता पर, दोनों ही हालत में हमें मरना पड़ेगा, पर अब हमें मरने का कोई दुःख नहीं है। हमारी साधना सफल हो गई हैं। मंदिर का निर्माण पूर्ण हो गया है।”
आर्जव को लगा, जैसे मंदिर का शिखरकलश उसी के सिर पर आकर गिरा है। मैं तो अपनी माँ को कितनी आशाएँ बाँधकर आया था। वह घर में बैठी हर पल हमारी बाट जोह रही होगी। मेरी कार्यदक्षता अकारथ जाएगी और मेरे सामने मेरे पिता को फाँसी होगी। इतना ही नहीं, पिता के साथ ग्यारह सौ निन्यानवे शिल्पकार भी बेकार में मारे जाएँगे। नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। फिर उसने एक वज्र की तरह कठोर निर्णय लिया, स्वयं के लिए। इन बारह सौ शिल्पियों की जीवनरक्षा के लिए उसके मन में एक दृढ़ निश्चय उभरा। वह मंदिर के शिखरकलश पर चढ़ गया और उसने मुखिया को संबोधित करते हुए कहा- ‘पिता जी! प्रणाम!!” इसी के साथ उसने समुद्र में छलाँग लगा दी। सागर अपनी लहरों की बांहें फैलाए उसके स्वागत के लिए तैयार था। सागर ने उसे बाँहों में लपककर अपनी गोद में छुपा लिया। इसके थोड़ी ही देर में आर्जन की माँ द्वारा भेजे गए सामान के माध्यम से मुखिया वसुषेण ने उसका यथार्थ परिचय जान लिया।
सुबह महल के झरोखे से राजा नरसिंहदेव ने मंदिरकलश देखा, तो उनकी खुशी का पारावार न रहा। जब वह मंदिर के प्राँगण में पहुँचे, तो सभी शिल्पकार खुशियाँ मना रहे थे, सिवाय मुखिया वसुषेण के। उसकी आत्मा चीत्कार कर रही थी, पर होंठ भिंचे हुए थे। राजा को कुछ संदेह हुआ। उसने पूछताछ करके जब वस्तुस्थिति जानी, तो उसका अंतर्मन बिलख उठा। नन्हें से बच्चे ने अपना बलिदान देकर इन सबको बचा लिया और मैं कितना अधम और नीच हूँ, जिसने इन सबको फाँसी का भय दिखाया। अगर फाँसी का यह भय न होता तो आर्जव भी जीवित होता।
राजा नरसिंहदेव का मन गहरी ग्लानि से भर गया जिस पूर्व अपूर्व उत्साह से उन्होंने मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर की समाप्ति ने उनके मन में वितृष्णा भर दी उन्होंने आदेश देकर तुरंत बड़ी-बड़ी शिलाओं से मंदिर का द्वार बंद करवा दिया और कहा- “आज से इस मंदिर में कोई पूजा-अर्चना नहीं होगी।” तभी से वह मंदिर शिलाओं से बंद है।
इस मंदिर की बाहरी दीवारों पर अद्वितीय शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं। यहाँ की दीवारों पर सूर्य के तीन प्रतीक चित्र उकेरे गए हैं। बाल सूर्य, मध्याह्न का युवा सूर्य और ढलता हुआ सूर्य। सूर्य के ये तीनों रूप इतनी सजीवता लिए हुए हैं कि देखने वाले शिल्पकला की सराहना किए बिना नहीं रह सकते। इस सूर्यमंदिर की वास्तुशिल्प संकल्पना अद्भुत है। पूरा मंदिर एक विशाल रथ पर खड़ा है, जिसमें सात घोड़े जुते हुए हैं, बारह पहिए हैं, प्रत्येक पहिए में तीस शहतीरें हैं। सूर्य की छाया के सहारे पहियों से समय का ज्ञान, एक घड़ी के समान ज्ञात किया जा सकता है।
मंदिर के भग्नावशेष अपनी उत्कृष्ट शिल्पविधा का बेजोड़ उदाहरण हैं। हजारों पर्यटक रोज ही यहाँ आते हैं हालाँकि अब तो अनेकों वृत्तियाँ यहाँ से गायब हो गई हैं, पर जो बाकी बची हैं वह कम मोहक नहीं हैं।
पुरी से तकरीबन 34 किमी. दूर उत्तरपूर्व में स्थित यह कोणार्क अपने आप में इतिहास समेटे हुए है- मानवीय संवेदना का इतिहास, त्याग और बलिदान का इतिहास, किशोरवय के बालक आर्जव की औरों के हित जीने-मरने वाली उत्सर्गपूर्ण भावनाओं का इतिहास।