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Magazine - Year 2000 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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कालचक्र का गुह्य विज्ञान

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जलप्रवाह की दिशा को इच्छानुसार मोड़ा-मरोड़ा और आवश्यकतानुसार कहीं-से-कहीं ले जाया जा सकता है । यही बात कालप्रवाह के साथ भी है । प्राण कंपन के वेग को तीव्र करते हुए यदि उसकी गति को काफी बढ़ा दिया जाए, तो हम दूर अनागत में चले जाएँगे । ऐसे ही कंपन को कम करके उसकी गति घटा देने से दिशा सुदूर भूत की ओर मुड़ जाती है । सर्वसाधारण लोग इस जटिल प्रक्रिया से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिए ऐसा नहीं कर पाते; किन्तु योगी-यति के लिए ये सब सामान्य बातें है । वे क्षणार्द्ध में ही काल की गति को आगे-पीछे करके विगत-अनागत संबंधी ज्ञान प्राप्त कर सकते है; लेकिन कई बार कुछ विशिष्ट शारीरिक-मानसिक स्थिति में यह सब अनायास ही संपन्न हो जाता है ।

ऐसी ही एक घटना की चर्चा प्रख्यात इतिहासकार जॉन फोरमैन ने अपनी पुस्तक ‘दि मास्क ऑफ टाइम’ में की है । घटना सन् 1968 की है और पी.जे.चेज नामक एक व्यक्ति से संबंधित है । एक दिन वे सरे, वैलिंगटन के एक बस अड्डे पर बस का इंतजार कर रहे थे । बस आने में अभी देर थी, इस कारण टहलते हुए वे कुछ आगे निकल गए । शीघ्र ही उन्होंने स्वयं को फुस की दो सुँदर झोंपड़ियों के सम्मुख पाया । उसके चारों ओर आकर्षक उद्यान था, जिसमें भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे मोहक पुष्प खिले थे । बगीचे में एक मेज पर उन्होंने कुछ धार्मिक पुस्तकें रखी देखी । उपवन के एक कोने में एक माली काम कर रहा था और दूसरा पौधों की सिंचाई कर रहा था । झोंपड़े के द्वार पर एक वृद्धा अधलेटी स्थिति में धूप सेंक रही थी, जबकी दूसरे झोंपड़े से बातचीत की धीमी-धीमी आवाज आ रही थी । इसके दरवाजे पर एक तख्ती लगी थी, जिस का उसका निर्माणकाल-1837 लिखा हुआ था । इसे देखकर चेज कुछ चौंके कि फूस की झोंपड़ी की आयु इतनी लंबी कैसे हो सकती है ! किंतु इस विषय पर ज्यादा माथापच्ची न कर वे वहाँ से चल पड़े, क्योंकि बस आने का समय हो चुका था ।

अगले दिन चेज ने इन झोपड़ियों के संबंध में अपने एक सहकर्मी से उल्लेख किया । थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् उसने अस्वीकृति में सिर हिला दिया । उसका कहना था कि उस क्षेत्र में ईंटों के दो मकान तो है, पर झोंपड़ियाँ नहीं । दूसरे दिन सायंकाल चेज पुनः उस स्थान पर पहुँचे ताकि यह सुनिश्चित कर सकें कि उस रोज जो कुछ भी देखा था, वह सत्य था भ्रम । वहाँ पहुँचकर वे आश्चर्यचकित रह गए । वहाँ वास्तव में ईंटों के दो मकान ही थे, झोंपड़ियों नहीं; लेकिन चेज इतने स्पष्ट दृश्य को भ्रम नहीं मान पर रहे थे । उनका मन इसी उधेड़बुन में पड़ा हुआ था कि यदि यह भ्रम था, तो द्वारा पर अंकित सन् ‘1837’, बाग में कार्यरत माली, धूप सेंकती वृद्धा, बातचीत की आवाजें-यह सब क्या थे ? वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाए, तो उस ईट के मकान में निवास करने वाले एक वृद्ध से इस बारे पूछताछ की । उसने बताया कि लगभग 80 वर्ष पूर्व वहाँ दो टूटी-फूटी झोंपड़ियाँ अवश्य थी । इसके अतिरिक्त उस संबंध में उसे और कुछ पता नहीं । उसमें निवास करने वाले लोगों और उसके चारों ओर स्थित पुष्पवाटिका के बारे में वह कुछ भी नहीं बता सकता । केवल इतना भर कहा कि वे झोपड़ियाँ शायद बहुत पुरानी थी । इससे चेज आश्वस्त हुए । उन्हें लगा कि जो कुछ भी देखा, वह भ्रांति नहीं, वास्तविकता थी ओर यहां ‘टाइम स्लिप’ संबंधी कोई घटना थी, जिसमें वह कई दशाब्दी पीछे चले गए थे ।

ऐसी ही एक अन्य घटना की चर्चा मूर्द्धन्य जीव-विज्ञानी इवान सैंडरसन ने अपनी रचाना ‘मोर थिंग्स’ में की है । ग्रंथ के अंतिम अध्याय में इसका उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि गुह्य विज्ञान की उनकी कभी कोई रुचि नहीं रही; पर उक्त प्रसंग के बाद इस क्षेत्र में उनका रुझान बढ़ा एवं काफी अध्ययन-अनुसंधान किए । घटना का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं । कि एक बार उन्हें जीववैज्ञानिक सर्वेक्षण के सिलसिले में हैती जाना पड़ा । साथ में पत्नी भी थी । एक दिन दोनों वहाँ की प्रसिद्ध अजूए झील देखने के लिए निकले कि शार्टकट के चक्कर में अपनी गाड़ी दलदल में फँसा बैठे । सारी रात उन्हें पैदल चलना पड़ा । पति-पत्नी साथ-साथ चल रहे थे, जबकि उनके सहायक फ्रेडरिक जी. आँलसाप उनसे कुछ आगे । आकाश स्वच्छ था और शुक्ल पक्ष की रात थी, अतः सब कुछ स्पष्ट दीख रहा था एवं चलने में किसी प्रकार की कोई कठिनाई महसूस नहीं हो रही थी । चलते-चलते अचानक सैंडरसन की गरदन ऊपर उठी, तो सड़क के दोनों और विभिन्न आकार-प्रकार की तीन मंजिली इमारतें दिखलाई पड़ी । एलिजाबेथ काल की लग रही थीं, किंतु कुछ कारणों से वे इंग्लैण्ड में न होकर पेरिस में स्थित प्रतीत हो रही थी । उनकी छतें ढलुआ थीं, ड्योढ़ी लकड़ी की तथा छोटी खिड़कियों वाली थी । खिड़कियों में छोटे काँच लगे हुए थे । इनके पीछे हलके लाल रंग का प्रकाश यहाँ-वहाँ चमक रहा था, मानो मोमबत्तियाँ जल रही हो । कुछ मकानों पर लोहे की चौखट वाली लालटेंने लटक रही थी । वे सभी हवा में झूल रही थी, किंतु बाहर तनिक भी हवा चलती प्रतीत नहीं हो रही थी ।

सैंडरसन यह सब देखकर चकित थे, तभी उनकी पत्नी उनकी ओर देखते हुए रुक गई और हाँफने लगी । सैंडरसन तत्काल उसके निकट पहुँचे और तबियत के बारे में पूछा, किंतु तब तक उसका बोलना बंद हो चुका था, पर यह अवस्था अधिक देर नहीं रही और तुरंत ही वह सामान्य हो गई । इसके बाद उसने पति का हाथ थामा एवं इमारतों की ओर संकेत करते हुए हूबहू वही वर्णन किया, जो सैंडरसन ने दिखा था ।

पति ने पूछा कि वह क्या सोच रही है, यह सब कैसे हो गया ? पत्नी ने जो कुछ उत्तर दिया, उससे वे हैरान रह गए । सैंडरसन लिखते हैं थ्क वह वाक्य उन्हें अभी भी याद है । पत्नी का प्रतिप्रश्न था कि वे लोग पाँच सौ वर्ष पूर्व के पेरिस में कैसे पहुँच गए ?

दोनों खड़े-खड़े विस्मय-विमूढ़-से उस दृश्य की परस्पर चर्चा कर रहे थे, जो सामने दिखलाई पड़ रहा था । उसकी बारीकियों और उसकी एक-एक वस्तु पर विस्तार से बातचीत कर रहे थे । तभी उन्हें ऐसा मालूम पड़ा, जैसे वे झूम रहे हों और इसी के साथ गहरी थकान महसूस होने लगी । फ्रेडरिक काफी आगे चल रहे थे । सैंडरसन ने उन्हें आवाज लगाई ।

इसके उपराँत उन्हें यह याद नहीं कि क्या हुआ ? शायद वे उनकी ओर दौड़ने लगे थे और फिर चक्कर आने के कारण एक लंबे-टेढ़े पत्थर पर बैठ गए । तत्पश्चात् फ्रेडरिक दौड़कर आये और परेशानी का कारण पूछा, किंतु वे तत्काल कोई जवाब न दे पाए । उसके पास सिगरेटें थी । दोनों को एक-एक दी, लाइटर जलाया । उसके प्रकाश में सैंडरसन की आँखों के आगे प्रत्येक वस्तु स्पष्ट हो चुकी थी । वहाँ पंद्रहवीं शताब्दी का पेरिस न होकर कँटीली, झाड़ियों और जंगली पौधों से युक्त विस्तृत मैदान था । उनकी पत्नी भी लाइटर के प्रकाश को देखकर पूर्व स्थिति में वापस आ गई । फ्रेडरिक को कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ा । बाद में पूछताछ के ज्ञात हुआ कि हैती कभी फ्राँस का उपनिवेश था, अतः संभव है, इस सूनी देहाती सड़क पर उन दिनों फ्राँसीसी वास्तुशिल्प की प्रधानता वाले मकान पर उन दिनों फ्राँसीसी वास्तुशिल्प की प्रधानता वाले मकान रहे होंगे ।

काँलिन विल्सन ने अपने ग्रंथ ‘वियोंड दि आँकल्ट’ में ‘टाइम स्लिप’ से संबंधित एक अन्य प्रसंग का उल्लेख किया है । घटना सन् 1973 के वंसत की है और केंब्रिज की जेन ओ नींल नामक एक शिक्षिका से संबंधित है । एक बार जेन अपनी एक मित्र के साथ फोदरिधें चर्च देखने गई, जहाँ कभी ‘मरी क्वीन ऑफ स्काँटस्’ को फाँसी दी गई थी । वहाँ वह वेदी के पीछे एक क्रूसारोपण के चित्र को देखकर अत्यंत प्रभावित हुई । बाद में जब इसका उल्लेख अपनी मित्र से किया, तो उसने ऐसी किसी चित्र के वहाँ मौजूद होने से स्पष्ट इनकार किया । तदुपराँत जेन ने चर्च की व्यवस्थापिका को फोन किया ओर वस्तुस्थिति की जानकारी चाही । उसने बताया कि चर्च में इस प्रकार की कोई तस्वीर नहीं है । एक वर्ष पश्चात् दोनों महिलाएँ पुनः फोदरिंधे चर्च गई है । अब और तब के चर्च की अंतःस्थिति में जमीन-आसमान जितना अंतर देखकर जेन चौंक पड़ी और इतनी जल्दी इतना व्यापक फेरबदल का कारण जानना चाहा । व्यवस्थापिका ने बताया कि एक साल पूर्व भी गिरजाघर की अंतःव्यवस्था आज जैसी ही थी । उसमें कोई अंतर नहीं हुआ है । इस पर वह और ज्यादा हैरान हुई । ऐतिहासिक अध्ययनों से बाद में ज्ञात हुआ कि सन् 1973 में जेन को जिस चर्च के दर्शन हुए थे, वह वास्तव में वही था, जिसे सन् 1553 में गिरवा दिया गया था, अर्थात् जेन अचानक चार शताब्दी पूर्व के कालख्ड में पहुँच गई थी । यह सब कैसे हुआ ? इस बारे में जेन कुछ न बता सकी । यह कालचक्र का गुह्य पक्ष ही है, जिसे विज्ञान सुलझा नहीं पाता ।

प्रसिद्ध साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा (‘दशद्वार से सोपान तक’) में अपनी एक अनुभूति को उद्धृत करते हुए लिखा है कि जब वे विदेश मंत्रालय में अवर सचिव के पद पर कार्यरत थे, तब उनका निवास 219, डी. 1, डिप्लोमैटिक इन्क्लेव, सफदरजंग था । यहीं रहकर उन्होंने गीता का पद्यानुवाद ‘जनगीता’ के नाम से किया था । जब वे यह अनुवाद कार्य कर रहे थे, तो अनेक बार उन्हें ये स्पष्ट अनुभव हुआ कि जहाँ वे बैठे है, वहाँ कभी द्वारिका से हस्तिनापुर जाते हुए भगवान् कृष्ण का रथ खड़ा हुआ था । इस क्रम में यदा-कदा रथ की, रथ में जुते थके घोड़ों की, सवार और सारथी दोनों रूपों में रथ पर बैठे भगवान् श्रीकृष्ण की स्फुट झलकी मिलती थी; मानो वह साक्षात् द्वापर में उपर्युक्त तथ्य के साक्षी के रूप में विराजमान हों ।

गाय प्लेफेयर अपनी कृति ‘दि इनडेफिनिट बाउंड्री’ में लिखते हैं कि एक बार वे अपने एक मित्र के साथ डर्बीशायर से पोंडफ्रैक्ट जा रहे थे । रास्ते में उन्हें एक पार्क दिखाई पड़ा । वह बड़ा ही आकर्षक था । जगह-जगह उसमें चित्ताकर्षक फूल खिले थे । विशेष प्रकार के आकार दिए हुए वृक्षों के कारण उसकी सुषमा का चार चाँद लग गए थे । प्लेफेयर के मित्र एक स्थान पर बैठकर पार्क की शोभा निहारने लगे, जबकि स्वयं प्लेफेयर टहलते-टहलते पार्क के दूसरे छोर पर जा पहुँचे । पार्क के उस पार पुरानी शैली के कुछ मकानों को देखकर वे थोड़े चौंके, सोचने लगे इतनी पुरानी शैली की इमारतों के बारे उन्होंने सिर्फ पढ़ा भर था, आज उन्हें देखने का मौका मिल गया । वे भवनों की रचना और स्थापत्य कला का सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन करने लगे । उनमें स्थान-स्थान पर छोटे-छोटे कंगूरों को निर्माण जिस कुशलता से किया गया था, वह अद्वितीय था । छतों से झूलते नक्काशीदार छज्जे उस काल की वास्तुकला के उत्कर्ष को दर्शा रहे थे । तभी अचानक वे कुछ सतर्क हुए । उनकी बुद्धि कुछ गणना लगाने लगी-अभी सन् 1966 का मई महीना है, जबकि इंग्लैण्ड का इतिहास इस डिजाइन के मकानों को 14 वीं सदी के आस-पास का बताता है । इसका मतलब यह हुआ कि इन भवनों को बने लगभग छह सौ वर्ष गुजर चुके है । इतने लंबे कालखंड के बीत जाने पर भी इमारतें ज्यों-की-त्यों सुरक्षित है, मानो अभी-अभी उनका निर्माण हुआ हो । यह कैसे हो सकता है ? उनका कोई छोटा-सा हिस्सा भी इस विशाल अवधि में क्षतिग्रस्त नहीं हुआ-यह बुद्धिगम्य नहीं लगता । अभी वह इसी ऊहापोह में थे कि दूर से मित्र की आवाज सुनाई पड़ी । वे उन्हें बुला रहे थे । काफी देर हो चुकी थी । गंतव्य पर जल्दी पहुँचना था, अतः इस विषय पर बाद में विचार करने की सोचकर वे तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे । मित्र के साथ गाड़ी में सवार हुए, तो उनके ज्ञानतंतु पुनः सक्रिय हो उठे । वे उसी संबंध में फिर सोचने लगे । दोस्त से इसकी चर्चा की, तो कुछ क्षण विचारकर उन्होंने कहा कि पार्क के आसपास कोई मकान नहीं है । प्लेफेयर इसे मानने को तैयार नहीं थे । जिसे प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखा हो, भला उसे कोई कैसे झुठला सकता है ! असहमति के निवारण के लिए लौटते सम एक वार पुनः पार्क तक चलकर तथ्य-सत्य का पता लगाने का निर्णय किया गया । वापस आते सम जब वे पार्क में पहुँचें, तो दोनों ने चारों और घूम-घूमकर देखा, वहाँ सचमुच कोई इमारत नहीं थी, पर प्लेफेयर के इस दर्शन को भ्रम भी नहीं कहा जा सकता । वे छह सौ वर्ष पूर्व के कालखंड में प्रवेश कर उन भवनों को देख रहे थे, जो तब वहाँ मौजूद थे । इतिहासवेत्ताओं ने पीछे इस बात की पुष्टि की कि उन दिनों यहाँ एक विकसित शहर था ।

तरल प्रवाह की तरह समय भी एक प्रवाह है ओर उसकी स्वाभाविक गति पीछे से आगे की ओर-वर्तमान से भविष्यत् की ओर है । जलप्रवाह की तरह घेर-बाँधकर उसे भी दिशा बदलने के लिए विवश किया जा सकता है पर यह एक उच्चस्तरीय विज्ञान है । इसके जानकार ही ऐसा कर सकने में सफल होते हैं । सर्वसाधारण के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वे अपने चरित्र, चिंतन और व्यवहार को परिष्कृत भर कर लें । इतने से ही वे आज के इस दैवी मुहूर्त में वह सब कुछ हस्तगत कर सकते हैं, जिसके लिए जन्म-जन्माँतरों जितना समय चाहिए ।

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