
बिन्दुभेद की साधना-विधि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
दोनों के छिद्रों को यदि एक लकीर सीधी मस्तक के भीतर से खींचकर मिलाया जाये और भ्रू मध्य से पीछे को एक लकीर खींची जाये तो मस्तक के भीतर जहाँ दोनों लकीर एक दूसरे को काटेंगी, वहीं चेतन बिन्दु का स्थान है। यह बिन्दु शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। अष्टांग योग में इसी स्थान को त्रिकुटी कहते हैं। दृष्टा, दर्शन और दृश्य का मूल यही है। इससे ऊपर सहस्रार की ओर बढ़ने पर प्रकृति छूट जाती है। कुण्डलिनी योग में इस स्थान को शिव- लिंग का स्थान मानते हैं। व्यापक पुरुष प्रकृति के आधार पर यही चिह्न रूप में निवास करता है। सीधे शब्दों में यह कारण शरीर जो कि अहंकारात्मक है, उसी का केन्द्र है। इसी से सूक्ष्म और स्थूल दोनों संचालित होते हैं और यह स्वयं हृदयस्थ चेतन से शक्ति लेकर कार्यशील होता है। हृदय में ध्यान सबके लिए सुगम नहीं और यहाँ चमत्कार शीघ्र दृष्टि पड़ते हैं। अतः साधक के लिए यह सरल पड़ता है।
इसी बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करके मेस्मेराइजर किसी को निद्रित करता है। निद्रावस्था में सोते व्यक्ति के भ्रू मध्य पर दृष्टि जमाकर दी हुई आज्ञा अपना कुछ न कुछ प्रभाव प्रकट करके ही रहती है। अतः ठीक समय पर नियम पूर्वक इस बिन्दु पर ध्यान करते हुए दृढ़ संकल्प का उपयोग करने से मन को अभीष्ट दिशा में ले जाया जा सकता है।
इतना स्मरण रखना चाहिए कि जहाँ इस बिन्दु से महान लाभ उठाया जा सकता है, वहीं बहुत बड़ी हानि भी होती है। भ्रू मध्य में ध्यान करते समय जो साधक विषयों का या संसार का चिन्तन करेगा उस की वासनाऐं और दृढ़मूल होती जावेंगी। वह अत्यधिक आसक्त और विषयी हो जावेगा। अतएव जब तक भ्रू मध्य में ध्यान किया जाये, कोई विषय, अशुभ वासना मन में न आने पाये ! बल पूर्वक मन को लक्ष्य में अथवा शुभ संकल्पों में लगा रखना चाहिए। यदि मन अत्यधिक चंचल हो रहा हो और न मानता हो तो उस समय ध्यान करना बन्द कर देना चाहिये, अथवा खुली दृष्टि से नाक की नोक पर त्राटक करना चाहिये।
बहुधा इस बिन्दु पर ध्यान करने वालों को नाना प्रकार के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। शब्द सुनाई देते हैं। वे उनके देखने और सुनने में तल्लीन हो जाते हैं। वे समझते हैं कि उनकी उन्नति हो रही है। लेकिन परिणामतः रूप और शब्द में उनकी आसक्ति बढ़ती जाती है। वे संसार में अत्यधिक आसक्त होते जाते हैं। साधक को सावधानी पूर्वक उन शब्द और दृश्यों से ध्यान हटा रखना चाहिये। उसे अपने मन्त्र के जप और चेतन बिन्दु पर स्थिर रहना चाहिए। ये सब दृश्य चाहे वे कुछ भी हों (हंस, शिव, कृष्णादि) केवल मानसिक हैं, मनकी कल्पना हैं। भगवान का विशुद्ध रूप वासनाओं से परे होने पर ही प्राप्त हो सकता है।
निशीथ की नीरवता में अथवा ब्रह्ममुहूर्त में जब आप ध्यान करने बैठते हैं, नेत्रों को बन्द करके मन को चेतन बिन्दु पर एकत्र कीजिये। प्रणव, गायत्री या सोऽहम् का जप कीजिये। दृढ़ धारणा कीजिये कि आपके मन से संसाराशक्ति दूर रही है। संसार में आपकी कोई आसक्ति नहीं। दो- चार मिनट वैराग्य प्रधान विचारों का चिन्तन कीजिए। फिर ध्यान कीजिये कि आपका मन चंचलता छोड़कर शान्त हो रहा है। मैं शान्त हूँ। मुझमें चंचलता का लेश नहीं। कोई भी विचार, मुझे अपनी ओर नहीं खींच- सकता। मुझमें कोई विचार नहीं है।’ इन भावनाओं की बार- बार आवृत्ति कीजिये।
थोड़े दिन के अभ्यास के पश्चात् ज्योतिर्मय चेतन बिन्दु दृष्टि पड़ेगा। यदि कोई और दृश्य भी सामने आये तो मन को उधर से हटाकर केवल बिन्दु पर स्थिर करें। केवल बिन्दु पर एकाग्र हों। कोई विचार न उठे तो अच्छा। मन न माने तो वैराग्य, तत्व विचार या भक्ति के पवित्र विचार ही उठने देना चाहिए। मंत्र का जप यदि ध्यान की एकाग्रता के कारण छट जाये तो उसकी कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए। उस छूट जाने दीजिए।
प्रथम दिखाई पड़ने के पश्चात् बिन्दु कभी बढ़ेगा, कभी घटेगा कभी हिलता जान पड़ेगा, कभी लुप्त हो जायेगा, कभी बहुत से बिन्दु दृष्टि पड़ेंगे आप इन सब परिवर्तनों पर ध्यान न देकर केवल बिन्दु का तटस्थ निरीक्षण कीजिये। लगातार ऐसा करने से कुछ काल में बिन्दु अपनी समस्त विकृतियों को छोड़कर स्थिर एवं उज्ज्वल हो जायेगा। मन को उसी प्रकार पूर्णतः एकाग्र कर दीजिये। इस पूर्ण एकाग्रता में आप देखेंगे कि बिन्दु फट गया है। उसके भीतर छिद्र हो गया है। इसी को बिन्दु- वेध कहते हैं। बिन्दु के मध्य का की छिद्र सहस्रार के भीतर जाने का मार्ग हैं बिन्दु वेध होते ही स्वयं सहस्रार का आकर्षण उस मार्ग से आपको उत्थित कर लेगा और परमाभीष्ट अनिर्वचनीय स्थिति आपको प्राप्त होगी।
बिन्दुयोग की प्रारम्भिक साधना प्रकाशदीप के माध्यम से होती है। बार-बार दीप- शिखा देखने, आँखें बन्द करने और भ्रू मध्य भाग में ध्यान जमाने की आवश्यकता पड़ती है। जब वह भूमिका परिपक्व हो जाती है तो प्रकाश स्वतः दृष्टिगोचर होता है और दीपक की आवश्यकता नहीं रहती
इसी बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करके मेस्मेराइजर किसी को निद्रित करता है। निद्रावस्था में सोते व्यक्ति के भ्रू मध्य पर दृष्टि जमाकर दी हुई आज्ञा अपना कुछ न कुछ प्रभाव प्रकट करके ही रहती है। अतः ठीक समय पर नियम पूर्वक इस बिन्दु पर ध्यान करते हुए दृढ़ संकल्प का उपयोग करने से मन को अभीष्ट दिशा में ले जाया जा सकता है।
इतना स्मरण रखना चाहिए कि जहाँ इस बिन्दु से महान लाभ उठाया जा सकता है, वहीं बहुत बड़ी हानि भी होती है। भ्रू मध्य में ध्यान करते समय जो साधक विषयों का या संसार का चिन्तन करेगा उस की वासनाऐं और दृढ़मूल होती जावेंगी। वह अत्यधिक आसक्त और विषयी हो जावेगा। अतएव जब तक भ्रू मध्य में ध्यान किया जाये, कोई विषय, अशुभ वासना मन में न आने पाये ! बल पूर्वक मन को लक्ष्य में अथवा शुभ संकल्पों में लगा रखना चाहिए। यदि मन अत्यधिक चंचल हो रहा हो और न मानता हो तो उस समय ध्यान करना बन्द कर देना चाहिये, अथवा खुली दृष्टि से नाक की नोक पर त्राटक करना चाहिये।
बहुधा इस बिन्दु पर ध्यान करने वालों को नाना प्रकार के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। शब्द सुनाई देते हैं। वे उनके देखने और सुनने में तल्लीन हो जाते हैं। वे समझते हैं कि उनकी उन्नति हो रही है। लेकिन परिणामतः रूप और शब्द में उनकी आसक्ति बढ़ती जाती है। वे संसार में अत्यधिक आसक्त होते जाते हैं। साधक को सावधानी पूर्वक उन शब्द और दृश्यों से ध्यान हटा रखना चाहिये। उसे अपने मन्त्र के जप और चेतन बिन्दु पर स्थिर रहना चाहिए। ये सब दृश्य चाहे वे कुछ भी हों (हंस, शिव, कृष्णादि) केवल मानसिक हैं, मनकी कल्पना हैं। भगवान का विशुद्ध रूप वासनाओं से परे होने पर ही प्राप्त हो सकता है।
निशीथ की नीरवता में अथवा ब्रह्ममुहूर्त में जब आप ध्यान करने बैठते हैं, नेत्रों को बन्द करके मन को चेतन बिन्दु पर एकत्र कीजिये। प्रणव, गायत्री या सोऽहम् का जप कीजिये। दृढ़ धारणा कीजिये कि आपके मन से संसाराशक्ति दूर रही है। संसार में आपकी कोई आसक्ति नहीं। दो- चार मिनट वैराग्य प्रधान विचारों का चिन्तन कीजिए। फिर ध्यान कीजिये कि आपका मन चंचलता छोड़कर शान्त हो रहा है। मैं शान्त हूँ। मुझमें चंचलता का लेश नहीं। कोई भी विचार, मुझे अपनी ओर नहीं खींच- सकता। मुझमें कोई विचार नहीं है।’ इन भावनाओं की बार- बार आवृत्ति कीजिये।
थोड़े दिन के अभ्यास के पश्चात् ज्योतिर्मय चेतन बिन्दु दृष्टि पड़ेगा। यदि कोई और दृश्य भी सामने आये तो मन को उधर से हटाकर केवल बिन्दु पर स्थिर करें। केवल बिन्दु पर एकाग्र हों। कोई विचार न उठे तो अच्छा। मन न माने तो वैराग्य, तत्व विचार या भक्ति के पवित्र विचार ही उठने देना चाहिए। मंत्र का जप यदि ध्यान की एकाग्रता के कारण छट जाये तो उसकी कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए। उस छूट जाने दीजिए।
प्रथम दिखाई पड़ने के पश्चात् बिन्दु कभी बढ़ेगा, कभी घटेगा कभी हिलता जान पड़ेगा, कभी लुप्त हो जायेगा, कभी बहुत से बिन्दु दृष्टि पड़ेंगे आप इन सब परिवर्तनों पर ध्यान न देकर केवल बिन्दु का तटस्थ निरीक्षण कीजिये। लगातार ऐसा करने से कुछ काल में बिन्दु अपनी समस्त विकृतियों को छोड़कर स्थिर एवं उज्ज्वल हो जायेगा। मन को उसी प्रकार पूर्णतः एकाग्र कर दीजिये। इस पूर्ण एकाग्रता में आप देखेंगे कि बिन्दु फट गया है। उसके भीतर छिद्र हो गया है। इसी को बिन्दु- वेध कहते हैं। बिन्दु के मध्य का की छिद्र सहस्रार के भीतर जाने का मार्ग हैं बिन्दु वेध होते ही स्वयं सहस्रार का आकर्षण उस मार्ग से आपको उत्थित कर लेगा और परमाभीष्ट अनिर्वचनीय स्थिति आपको प्राप्त होगी।
बिन्दुयोग की प्रारम्भिक साधना प्रकाशदीप के माध्यम से होती है। बार-बार दीप- शिखा देखने, आँखें बन्द करने और भ्रू मध्य भाग में ध्यान जमाने की आवश्यकता पड़ती है। जब वह भूमिका परिपक्व हो जाती है तो प्रकाश स्वतः दृष्टिगोचर होता है और दीपक की आवश्यकता नहीं रहती