
प्राणाकर्षण की क्रियायें
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प्रातःकाल नित्य-कर्म निवृत होकर साधना के लिए किसी शान्तिदायक स्थान पर आसन बिछाकर बैठिये, दोनों हाथों को घुटनों पर रखिये, मेरुदण्ड सीधा रहे, नेत्र बन्द कर लीजिए।
फेफड़ों में भरी हुई सारी हवा बाहर निकाल दीजिए, अब धीरे-धीरे नासिका द्वारा साँस लेना आरम्भ कीजिए। जितनी अधिक मात्रा में भर सकें फेफड़ों में हवा भर लीजिए। अब कुछ देर उसे भीतर ही रोके रहिये। इसके पश्चात् साँस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा बाहर निकालना आरम्भ कीजिए। हवा को जितना अधिक खाली कर सकें, कीजिए। अब कछ देर साँस को बाहर ही रोक दीजिए अर्थात् बिना साँस के रहिये। इसके बाद पूर्ववत् वायु खींचना आरम्भ कर दीजिए। यह एक प्राणायाम हुआ।
साँस निकालने को रेचक, खींचने को पूरक और रोके रहने को कुम्भक कहते हैं। कुम्भक के दो भेद हैं। साँस को भीतर भरकर रोके रखना ‘अन्तः कुम्भक’ और खाली करके बिना साँस रहना ‘बाह्य कुम्भक’ कहलाता है। रेचक और पूरक में समय बराबर लगना चाहिये पर कुम्भक में उसका आधा समय ही पर्याप्त है।
पूरक करते समय भावना करनी चाहिये कि मैं जन शून्य लोक में अकेला बैठा हूँ और मेरे चारों ओर विद्युत जैसी चैतन्य जीवनी शक्ति का समुद्र लहरें ले रहा है। साँस द्वारा वायु के साथ-साथ प्राण शक्ति को मैं अपने अन्दर खींच रहा हूँ।
अन्तः कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिये कि उस चैतन्य प्राण-शक्ति को मैं अपने भीतर भरे हूँ। समस्त नस-नाडियों में अंग-प्रत्यंगों में वह शक्ति स्थिर हो रही है। उसे सोखकर देह का रोम-रोम चैतन्य, प्रफुल्ल, सतेज एवं परिपुष्ट हो रहा है।
रेचक करते समय भावना करनी चाहिये कि शरीर में संचित मल, रक्त में मिले हुए विष, मन में धँसे हुए विचार साँस छोड़ने पर वायु के साथ-साथ बाहर निकाले जा रहे हैं।
बाह्य कुंभक करते समय भावना करनी चाहिए कि अन्दर के दोष साँस के द्वारा बाहर निकलकर भीतर का दरवाजा बन्द कर दिया गया है ताकि वे विकार वापिस न लौटने पावें।
इन भावनाओं के साथ प्राणाकर्षण प्राणायाम करने चाहिये। आरम्भ में पाँच प्राणायाम करें फिर क्रमशः सुविधानुसार बढ़ाते जावें।
कहीं एकान्त में जाओ। समतल भूमि पर नरम बिछौना बिछाकर पीठ के बल लेट जाओ, मुँह ऊपर की ओर रहे। पैर कमर छाती सिर सब रष्क सीध में रहें। दोनों हाथ सूर्य चक्र पर (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलता है) रहें। मुँह बन्द रखो। शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दो। मानो वह कोई निर्जीव वस्तु है और उससे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। कुछ देर शिथिलता की भावना करने पर शरीर बिलकुल ढीला पड़ जायगा। अब धीरे-धीरे नाक द्वारा साँस खींचना आरम्भ करो और दृढ़ शक्ति के साथ भावना करो कि विश्व व्यापी महान् प्राण-भण्डार में से मैं स्वच्छ प्राण साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त-प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्य चक्र में इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को कल्पना लोक में इतनी दृढता के साथ उतारो कि प्राण शक्ति की बिजली जैसी किरणें नासिका द्वारा देह में छूती हुई चित्रवत् दीखने लगें तथा उसमें प्राणप्रवाह बहता हुआ आए। भावना की जितनी अधिकता होगी उतनी ही अधिक मात्रा में तुम प्राण खींच सकोगे।
फेफड़ो को वायु से अच्छी तरह भर तो और पाँच से दस सेकण्ड तक उसे रोके रहो। आरम्भ में पाँच सेकण्ड काफी हैं। पश्चात् अभ्यास बढ़ने पर दस सेकेण्ड तक रोक सकते हैं। साँस के रोकने के संमय अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में प्राण भरा हुआ है, यह अनुभव करना चाहिये। अब वायु को धीरे-धीरे बाहर निकालो। निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि शरीर के सारे दोष, रोग और विष इनके द्वारा निकाल बाहर किए जा रहे है। दस सेकण्ड तक बिना हवा के रहो और पूर्ववत् प्राणाकर्षण का मूलतत्व साँस खींचने-छोड़ने में नहीं वरन् आकर्षण की उस भावना में है जिसके अनुसार शरीर में प्राण का प्रवेश होता हुआ चित्रवत् दिखाई देने लगता है।
इस प्रकार श्वास-प्रश्वास की क्रियायें दस मिनट से लेकर धीरे-धीरे आध घण्टे तक बढ़ा लेनी चाहिये। श्वास द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य चक्र में जमा होता जा रहा है, इसकी विशेष रूप से भावना करो। मुँह द्वारा साँस छोड़ते समय आकर्षित प्राण को छोड़ने की भी कल्पना करने लगें तो यह सारी क्रिया व्यर्थ हो जायगी और कुछ लाभ न मिलेगा।
ठीक तरह से प्राणाकर्षण करने पर सूर्य-चक्र जागृत होने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पसलियों के जोड़ और आमाशय के स्थान पर जो गड्ढा है वह सूर्य के समान एक छोटा-सा प्रकाश बिन्दु मानव नेत्रों से दीख रहा है। यह गोला आरम्भ में छोटा, थोड़े प्रकाश का और धुँधला मालूम होता है किन्तु जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ने लगता है वैसे-वैसे साफ, स्वच्छ, बड़ा और प्रकाशवान् होता है। जिनका अभ्यास बढ़ा-चढ़ा है उन्हे आँखें बन्द करते ही अपना सूर्य साक्षात् सूर्य की तरह तेजपूर्ण दिखाई देने लगता है। वह प्रकाशित तत्व सचमुच प्राण शक्ति है। इसकी शक्ति से कठिन कार्यो में अद्भुत सफलता प्राप्त होगी।
अभ्यास पूरा करके उठ बैठो। तुम्हें मालूम पड़ेगा कि रक्त का दौरा तेजी से हो रहा है सारे शरीर में रक बिजली सी दौड़ रही है। अभ्यास के उपरान्त कुछ देर शान्तिमय स्थान में बैठना चाहिये। अभ्यास से उठकर एक दम किसी काम में जुट जाना, स्नान, भोजन, मैथुन करना निषिद्ध है।
ऊपर सर्वसाधारण के उपयोग की श्वास-प्रश्वास क्रियाओं का वर्णन हो चुका है। इसके उपयोग से गायत्री साधकों की आन्तरिक दुर्बलता दूर होती है और प्राणवान् होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। प्राणमय कोश की भूमिका को पार करते हुए दस प्राणों को संशोधित करना पड़ता है।
फेफड़ों में भरी हुई सारी हवा बाहर निकाल दीजिए, अब धीरे-धीरे नासिका द्वारा साँस लेना आरम्भ कीजिए। जितनी अधिक मात्रा में भर सकें फेफड़ों में हवा भर लीजिए। अब कुछ देर उसे भीतर ही रोके रहिये। इसके पश्चात् साँस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा बाहर निकालना आरम्भ कीजिए। हवा को जितना अधिक खाली कर सकें, कीजिए। अब कछ देर साँस को बाहर ही रोक दीजिए अर्थात् बिना साँस के रहिये। इसके बाद पूर्ववत् वायु खींचना आरम्भ कर दीजिए। यह एक प्राणायाम हुआ।
साँस निकालने को रेचक, खींचने को पूरक और रोके रहने को कुम्भक कहते हैं। कुम्भक के दो भेद हैं। साँस को भीतर भरकर रोके रखना ‘अन्तः कुम्भक’ और खाली करके बिना साँस रहना ‘बाह्य कुम्भक’ कहलाता है। रेचक और पूरक में समय बराबर लगना चाहिये पर कुम्भक में उसका आधा समय ही पर्याप्त है।
पूरक करते समय भावना करनी चाहिये कि मैं जन शून्य लोक में अकेला बैठा हूँ और मेरे चारों ओर विद्युत जैसी चैतन्य जीवनी शक्ति का समुद्र लहरें ले रहा है। साँस द्वारा वायु के साथ-साथ प्राण शक्ति को मैं अपने अन्दर खींच रहा हूँ।
अन्तः कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिये कि उस चैतन्य प्राण-शक्ति को मैं अपने भीतर भरे हूँ। समस्त नस-नाडियों में अंग-प्रत्यंगों में वह शक्ति स्थिर हो रही है। उसे सोखकर देह का रोम-रोम चैतन्य, प्रफुल्ल, सतेज एवं परिपुष्ट हो रहा है।
रेचक करते समय भावना करनी चाहिये कि शरीर में संचित मल, रक्त में मिले हुए विष, मन में धँसे हुए विचार साँस छोड़ने पर वायु के साथ-साथ बाहर निकाले जा रहे हैं।
बाह्य कुंभक करते समय भावना करनी चाहिए कि अन्दर के दोष साँस के द्वारा बाहर निकलकर भीतर का दरवाजा बन्द कर दिया गया है ताकि वे विकार वापिस न लौटने पावें।
इन भावनाओं के साथ प्राणाकर्षण प्राणायाम करने चाहिये। आरम्भ में पाँच प्राणायाम करें फिर क्रमशः सुविधानुसार बढ़ाते जावें।
कहीं एकान्त में जाओ। समतल भूमि पर नरम बिछौना बिछाकर पीठ के बल लेट जाओ, मुँह ऊपर की ओर रहे। पैर कमर छाती सिर सब रष्क सीध में रहें। दोनों हाथ सूर्य चक्र पर (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलता है) रहें। मुँह बन्द रखो। शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दो। मानो वह कोई निर्जीव वस्तु है और उससे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। कुछ देर शिथिलता की भावना करने पर शरीर बिलकुल ढीला पड़ जायगा। अब धीरे-धीरे नाक द्वारा साँस खींचना आरम्भ करो और दृढ़ शक्ति के साथ भावना करो कि विश्व व्यापी महान् प्राण-भण्डार में से मैं स्वच्छ प्राण साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त-प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्य चक्र में इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को कल्पना लोक में इतनी दृढता के साथ उतारो कि प्राण शक्ति की बिजली जैसी किरणें नासिका द्वारा देह में छूती हुई चित्रवत् दीखने लगें तथा उसमें प्राणप्रवाह बहता हुआ आए। भावना की जितनी अधिकता होगी उतनी ही अधिक मात्रा में तुम प्राण खींच सकोगे।
फेफड़ो को वायु से अच्छी तरह भर तो और पाँच से दस सेकण्ड तक उसे रोके रहो। आरम्भ में पाँच सेकण्ड काफी हैं। पश्चात् अभ्यास बढ़ने पर दस सेकेण्ड तक रोक सकते हैं। साँस के रोकने के संमय अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में प्राण भरा हुआ है, यह अनुभव करना चाहिये। अब वायु को धीरे-धीरे बाहर निकालो। निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि शरीर के सारे दोष, रोग और विष इनके द्वारा निकाल बाहर किए जा रहे है। दस सेकण्ड तक बिना हवा के रहो और पूर्ववत् प्राणाकर्षण का मूलतत्व साँस खींचने-छोड़ने में नहीं वरन् आकर्षण की उस भावना में है जिसके अनुसार शरीर में प्राण का प्रवेश होता हुआ चित्रवत् दिखाई देने लगता है।
इस प्रकार श्वास-प्रश्वास की क्रियायें दस मिनट से लेकर धीरे-धीरे आध घण्टे तक बढ़ा लेनी चाहिये। श्वास द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य चक्र में जमा होता जा रहा है, इसकी विशेष रूप से भावना करो। मुँह द्वारा साँस छोड़ते समय आकर्षित प्राण को छोड़ने की भी कल्पना करने लगें तो यह सारी क्रिया व्यर्थ हो जायगी और कुछ लाभ न मिलेगा।
ठीक तरह से प्राणाकर्षण करने पर सूर्य-चक्र जागृत होने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पसलियों के जोड़ और आमाशय के स्थान पर जो गड्ढा है वह सूर्य के समान एक छोटा-सा प्रकाश बिन्दु मानव नेत्रों से दीख रहा है। यह गोला आरम्भ में छोटा, थोड़े प्रकाश का और धुँधला मालूम होता है किन्तु जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ने लगता है वैसे-वैसे साफ, स्वच्छ, बड़ा और प्रकाशवान् होता है। जिनका अभ्यास बढ़ा-चढ़ा है उन्हे आँखें बन्द करते ही अपना सूर्य साक्षात् सूर्य की तरह तेजपूर्ण दिखाई देने लगता है। वह प्रकाशित तत्व सचमुच प्राण शक्ति है। इसकी शक्ति से कठिन कार्यो में अद्भुत सफलता प्राप्त होगी।
अभ्यास पूरा करके उठ बैठो। तुम्हें मालूम पड़ेगा कि रक्त का दौरा तेजी से हो रहा है सारे शरीर में रक बिजली सी दौड़ रही है। अभ्यास के उपरान्त कुछ देर शान्तिमय स्थान में बैठना चाहिये। अभ्यास से उठकर एक दम किसी काम में जुट जाना, स्नान, भोजन, मैथुन करना निषिद्ध है।
ऊपर सर्वसाधारण के उपयोग की श्वास-प्रश्वास क्रियाओं का वर्णन हो चुका है। इसके उपयोग से गायत्री साधकों की आन्तरिक दुर्बलता दूर होती है और प्राणवान् होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। प्राणमय कोश की भूमिका को पार करते हुए दस प्राणों को संशोधित करना पड़ता है।