
उपवास का आध्यात्मिक महत्त्व
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जिनके शरीर में मलों का भाग संचित हो रहा हो उस रोगी की चिकित्सा आरम्भ करने से पहले ही चिकित्सक उसे जुलाब देते हैं। ताकि दस्त होने से पेट साफ हो जाय और औषधि अपना काम कर सके। यदि चिर संचित मल के ढेर की सफाई न की जाय तो औषधि भी उस मल के ढेर में मिलकर प्रभावहीन हो जायेगी। अन्नमय कोश की अनेक सूक्ष्म विकृतियों का परिवर्तन करने में उपवास वही काम करता है जो चिकित्सा के पूर्व जुलाब लेने से होता है।
मोटे रूप से उपवास के लाभों से सभी परिचित हैं। पेट में रुका अपच पच जाता है, विश्राम से पाचन अंग नव चेतना के साथ दूना काम करते हैं, आमाशय में भरे हुए अपक्व अन्न से जो विष उत्पन्न होता है वह नहीं बनता, आहार की बचत से आर्थिक लाभ होता है। ये उपवास के लाभ ऐसे हैं जो हर किसी को मालूम हैं। डाक्टरों का यह भी निष्कर्ष प्रसिद्ध है कि स्वल्पाहारी दीर्घजीवी होते हैं। जो बहुत खाते हैं, पेट को ठूँस-ठूँसकर भरते हैं, कभी पेट को चैन नहीं लेने देते, एक दिन को भी उसे छुट्टी नहीं देते वे अपनी जीवनी सम्पत्ति को जल्दी ही समाप्त कर लेते हैं और स्थिर आयु की अपेक्षा बहुत जल्दी उन्हें दुनियाँ से बिस्तर बाँधना पड़ता है।
आज के राष्ट्रीय अन्न-संकट में तो उपवास देश भक्ति भी है। यदि लोग सप्ताह में एक दिन उपवास करने लगें तो विदेशों से करोड़ों रुपये का अन्न न माँगना पड़े और अन्न सस्ता होने के साथ-साथ अन्य सभी चीजें भी सस्ती हो जायें।
गीता में 'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य दोहान:' श्लोक में बताया है कि उपवास से विषय-विकारों की निवृत्ति होती है। मन का विषय-विकारों से रहित होना एक बहुत बड़ा मानसिक लाभ है। उसे ध्यान में रखते हुए भारतीय धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य के साथ उपवास को जोड़ दिया है। कन्यादान के दिन माता-पिता उपवास रखते हैं अनुष्ठान के दिन यजमान तथा आचार्य उपवास रखते हैं। नवदुर्गा के नौ दिन कितने ही स्त्री-पुरुष पूर्ण या आंशिक उपवास रखते हैं। ब्राह्मण भोजन कराने से पूर्व उस दिन घर वाले भोजन नहीं करते। स्त्रियाँ अपने पति तथा सास-ससुर आदि पूज्यों को भोजन कराये बिना भोजन नहीं करती। यह आंशिक उपवास भी चित्त शुद्धि की दृष्टि से बड़े उपयोगी होते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास का असाधारण महत्त्व है। रोगियों के लिये तो इसे जीवन मूरि भी कहते हैं। चिकित्साशास्त्र का रोगियों को एक दैवी उपदेश है कि 'बीमारी को भूखा मारो।' भूखा रहने से बीमारी मर जाती है और रोगी बच जाता है। संक्रामक, कष्ट साध्य एवं खतरनाक रोगों में लंघन भी चिकित्सा का एक अंग है। मोतीझाला, निमोनियाँ, विशूचिका, प्लेग, सन्निपात, टाइफ़ाइड जैसे रोगों में कोई भी चिकित्सक उपवास कराये बिना रोग को आसानी से अच्छा नहीं कर पाता। प्राकृतिक चिकित्सा-विज्ञान में तो समस्त रोगों में पूर्ण या आंशिक उपवास को ही प्रधान उपचार माना गया है।
मोटे रूप से उपवास के लाभों से सभी परिचित हैं। पेट में रुका अपच पच जाता है, विश्राम से पाचन अंग नव चेतना के साथ दूना काम करते हैं, आमाशय में भरे हुए अपक्व अन्न से जो विष उत्पन्न होता है वह नहीं बनता, आहार की बचत से आर्थिक लाभ होता है। ये उपवास के लाभ ऐसे हैं जो हर किसी को मालूम हैं। डाक्टरों का यह भी निष्कर्ष प्रसिद्ध है कि स्वल्पाहारी दीर्घजीवी होते हैं। जो बहुत खाते हैं, पेट को ठूँस-ठूँसकर भरते हैं, कभी पेट को चैन नहीं लेने देते, एक दिन को भी उसे छुट्टी नहीं देते वे अपनी जीवनी सम्पत्ति को जल्दी ही समाप्त कर लेते हैं और स्थिर आयु की अपेक्षा बहुत जल्दी उन्हें दुनियाँ से बिस्तर बाँधना पड़ता है।
आज के राष्ट्रीय अन्न-संकट में तो उपवास देश भक्ति भी है। यदि लोग सप्ताह में एक दिन उपवास करने लगें तो विदेशों से करोड़ों रुपये का अन्न न माँगना पड़े और अन्न सस्ता होने के साथ-साथ अन्य सभी चीजें भी सस्ती हो जायें।
गीता में 'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य दोहान:' श्लोक में बताया है कि उपवास से विषय-विकारों की निवृत्ति होती है। मन का विषय-विकारों से रहित होना एक बहुत बड़ा मानसिक लाभ है। उसे ध्यान में रखते हुए भारतीय धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य के साथ उपवास को जोड़ दिया है। कन्यादान के दिन माता-पिता उपवास रखते हैं अनुष्ठान के दिन यजमान तथा आचार्य उपवास रखते हैं। नवदुर्गा के नौ दिन कितने ही स्त्री-पुरुष पूर्ण या आंशिक उपवास रखते हैं। ब्राह्मण भोजन कराने से पूर्व उस दिन घर वाले भोजन नहीं करते। स्त्रियाँ अपने पति तथा सास-ससुर आदि पूज्यों को भोजन कराये बिना भोजन नहीं करती। यह आंशिक उपवास भी चित्त शुद्धि की दृष्टि से बड़े उपयोगी होते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास का असाधारण महत्त्व है। रोगियों के लिये तो इसे जीवन मूरि भी कहते हैं। चिकित्साशास्त्र का रोगियों को एक दैवी उपदेश है कि 'बीमारी को भूखा मारो।' भूखा रहने से बीमारी मर जाती है और रोगी बच जाता है। संक्रामक, कष्ट साध्य एवं खतरनाक रोगों में लंघन भी चिकित्सा का एक अंग है। मोतीझाला, निमोनियाँ, विशूचिका, प्लेग, सन्निपात, टाइफ़ाइड जैसे रोगों में कोई भी चिकित्सक उपवास कराये बिना रोग को आसानी से अच्छा नहीं कर पाता। प्राकृतिक चिकित्सा-विज्ञान में तो समस्त रोगों में पूर्ण या आंशिक उपवास को ही प्रधान उपचार माना गया है।