
शब्द साधना
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एकान्त स्थान में जाइये जहाँ किसी प्रकार शब्द या कोलाहल न होते हों। बाहर के शब्द भी न सुनाई पड़ते हों। रात्रि को जब चारों ओर शांति हो जाती हो तब इस साधना के लिए बड़ा अच्छा अवसर मिलता है। दिन में करना हो तो कमरे के किवाड़ बन्द कर लेना चाहिए ताकि बाहर से शब्द भीतर न आवें।
१- शांत चित्त से पद्मासन लगाकर बैठिये। नेत्र बन्द कर लीजिए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले जाइये और उसक टिक-टिक की ध्यानपूर्वक सुनिये। अब धीरे- धीरे घड़ी को कान से दूर हटाते जाइये और ध्यान देकर उसकी टिक-टिक को सुनने का प्रयत्न कीजिए। घड़ी और कान की दूरी को बढ़ाते जाइये। धीरे-धीरे अभ्यास से बड़ी बहुत दूर रखी होने पर भी टिक-टिक कान में आती रहेगी। बीच में जब ध्वनि प्रभाव शिथिल हो जाय, तो घड़ी को कान के पास लगाकर कुछ देर तक उस ध्वनि को अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और फिर दूर हटा कर सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से उस शब्द प्रवाह को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए।
२- घड़ियाल में एक चोट मारकर, उसकी आवाज को बहुत देर तक सुनते रहना और फिर बहुत देर तक उसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना। जब पूर्व ध्यान शिथिल हो जाय तो फिर घड़ियाल में हथौड़ी मारकर, फिर उस ध्यान को ताजा कर लेना, इसी साधना का 'मुष्टि योग' नाम से योग ग्रन्थों में वर्णन है।
किसी झरने के निकट या नहर की झील के निकट जाइये जहाँ प्रपात का शब्द हो रहा हो। शान्त चित्त से इस शब्द-प्रवाह को कुछ देर सुनते रहिए। फिर कानों को उँगली डालकर बन्द कर लीजिए और सूक्ष्म कणन्द्रिय द्वारा उस ध्वनि को सुनिये। बीच में जब शब्द शिथिल हो जाय तो उँगली ढीली करके उसे सुनिये और कान बन्द करके फिर उसी प्रकार ध्यान द्वारा ध्वनि ग्रहण कीजिए। इन शब्द साधनाओं में लगे रहने से मन एकाग्र होता है। साथ ही सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय जाग्रत होती है, जिनके कारण दूर बैठकर बात करने वाले लोगों के शब्द सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आ जाते हैं। सुदूर हो रही गुप्त वार्ताओं का अभ्यास हो जाता है। देश-विदेश में हो रहे नृत्य, गीत, वाद्य आदि की ध्वनि तरंगे कानों में आकर चित्त को उल्लास-आनन्द से भर देती हैं। आगे चलकर यही साधना 'कर्ण पिशाचिनी' सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। कहाँ क्या हो रहा है, किसके मन में क्या विचार उठ रहा है, किसकी वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियाँ क्या-क्या कर रही हैं, भविष्य में क्या होने वाला है ? आदि बातों को कोई शक्ति सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आकर इस प्रकार कह जाती है मानो कोई अदृश्य प्राणी कान पर मुँह रखकर सारी बात कह रहा है। इस सफलता को 'कर्ण पिशाचिनी सिद्धि' कहते हैं।
१- शांत चित्त से पद्मासन लगाकर बैठिये। नेत्र बन्द कर लीजिए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले जाइये और उसक टिक-टिक की ध्यानपूर्वक सुनिये। अब धीरे- धीरे घड़ी को कान से दूर हटाते जाइये और ध्यान देकर उसकी टिक-टिक को सुनने का प्रयत्न कीजिए। घड़ी और कान की दूरी को बढ़ाते जाइये। धीरे-धीरे अभ्यास से बड़ी बहुत दूर रखी होने पर भी टिक-टिक कान में आती रहेगी। बीच में जब ध्वनि प्रभाव शिथिल हो जाय, तो घड़ी को कान के पास लगाकर कुछ देर तक उस ध्वनि को अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और फिर दूर हटा कर सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से उस शब्द प्रवाह को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए।
२- घड़ियाल में एक चोट मारकर, उसकी आवाज को बहुत देर तक सुनते रहना और फिर बहुत देर तक उसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना। जब पूर्व ध्यान शिथिल हो जाय तो फिर घड़ियाल में हथौड़ी मारकर, फिर उस ध्यान को ताजा कर लेना, इसी साधना का 'मुष्टि योग' नाम से योग ग्रन्थों में वर्णन है।
किसी झरने के निकट या नहर की झील के निकट जाइये जहाँ प्रपात का शब्द हो रहा हो। शान्त चित्त से इस शब्द-प्रवाह को कुछ देर सुनते रहिए। फिर कानों को उँगली डालकर बन्द कर लीजिए और सूक्ष्म कणन्द्रिय द्वारा उस ध्वनि को सुनिये। बीच में जब शब्द शिथिल हो जाय तो उँगली ढीली करके उसे सुनिये और कान बन्द करके फिर उसी प्रकार ध्यान द्वारा ध्वनि ग्रहण कीजिए। इन शब्द साधनाओं में लगे रहने से मन एकाग्र होता है। साथ ही सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय जाग्रत होती है, जिनके कारण दूर बैठकर बात करने वाले लोगों के शब्द सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आ जाते हैं। सुदूर हो रही गुप्त वार्ताओं का अभ्यास हो जाता है। देश-विदेश में हो रहे नृत्य, गीत, वाद्य आदि की ध्वनि तरंगे कानों में आकर चित्त को उल्लास-आनन्द से भर देती हैं। आगे चलकर यही साधना 'कर्ण पिशाचिनी' सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। कहाँ क्या हो रहा है, किसके मन में क्या विचार उठ रहा है, किसकी वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियाँ क्या-क्या कर रही हैं, भविष्य में क्या होने वाला है ? आदि बातों को कोई शक्ति सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आकर इस प्रकार कह जाती है मानो कोई अदृश्य प्राणी कान पर मुँह रखकर सारी बात कह रहा है। इस सफलता को 'कर्ण पिशाचिनी सिद्धि' कहते हैं।