
प्रतीक का निष्कर्ष
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यह गायत्री की दस भुजायें हुईं। अलंकार रूप से पाँच मुख और दस भुजाओं का चित्रण कलाकार तत्व ज्ञानियों ने इसी दृष्टि से किया है कि इस महाविद्या में सन्निहित तथ्यों, शक्तियों एवं सम्भावनाओं को लोग समझें उन्हें प्राप्त करने एवं उनसे लाभान्वित होने के लिए प्रयत्न करें।
वस्तुतः गायत्री परब्रह्म परमात्मा की विश्वव्यापिनी निराकार शक्ति है जो उच्चस्तर की साधना भूमिका में प्रकाश एवं आनन्द की अनुभूतियों में परिलक्षित होती है। साधारण उपासना क्रम में दो भुजी गायत्री का ध्यान ही उपयुक्त है क्योंकि वही मानव प्राणी के लिए सरल एवं स्वाभाविक है। ज्ञान की प्रतिबिम्ब, सद्भावनाओं की प्रेरणा, मानवता की आत्मा, आदर्शवादिता की आस्था, उत्कृष्टता की निष्ठा, सहृदयता एवं सज्जनता की सत्प्रवृत्ति के रूप में प्रकाश मण्डल के मध्य में विराजमान गायत्री का ध्यान ही उपयुक्त है। उसके एक हाथ में पुस्तक यह बताती है कि ज्ञान ही कल्याण का प्रधान अवलम्बन है। दूसरे हाथ में जल भरे कमण्डल का होना यह सन्देश देता है कि यह देवी प्रेम, शान्ति, त्याग एवं सद्भावना के प्रतीक कमण्डल को धारण करती है। जहाँ गायत्री होगी वहाँ उसकी वह अभिव्यंजना भी साथ रहेगी।
गायत्री का वाहन है हंस। हंस अर्थात नीर क्षीर का, उचित अनुचित का वर्गीकरण करने वाला विवेक। हंस के बारे में यह किम्वदन्ती है कि वह पानी मिले दूध में से जल का अंश छोड़ देता है और केवल दूध पीता है। यह प्रवृत्ति गायत्री ज्ञान धारण करने वाले की होनी चाहिए। वह इस बुराई भलाई मिले संसार में से केवल भलाई को ग्रहण करे और बुराई को छोड़ दे जिसमें ऐसी सूझ बूझ तथा क्षमता है वह गायत्री का वाहन हंस माना जायगा, भले ही वह मनुष्य- शरीर धारण किए क्यों न हो?
गायत्री का आसन खिले हुए कमल पुष्प का है। उपासक को खिले पुष्प की तरह प्रसन्न रहने का अभ्यस्त होना चाहिए। परोपकार के लिए जीवन धारण करना चाहिए और अन्त में अपने को देव पूजा एवं सन्तों की अभ्यर्थना में अपना अस्तित्व समर्पित करते हुए धन्य होना चाहिए। गायत्री कमल पुष्प पर बैठती हैं जिस साधक का जीवन कमल पुष्प जैसी विशेषताओं से सम्पन्न होगा गायत्री माता उसी हृदय- कमल में विराजमान रहेगी।
इन मान्यताओं के साथ हमें गायत्री उपासना के लिए एक मुख, दो हाथ वाली प्रतिमा का ध्यान करना चाहिए और पंचमुखी, दसभुजी प्रतिमा से उसका तत्व ज्ञान एवं उपासना क्रम अपनाना चाहिए।
वस्तुतः गायत्री परब्रह्म परमात्मा की विश्वव्यापिनी निराकार शक्ति है जो उच्चस्तर की साधना भूमिका में प्रकाश एवं आनन्द की अनुभूतियों में परिलक्षित होती है। साधारण उपासना क्रम में दो भुजी गायत्री का ध्यान ही उपयुक्त है क्योंकि वही मानव प्राणी के लिए सरल एवं स्वाभाविक है। ज्ञान की प्रतिबिम्ब, सद्भावनाओं की प्रेरणा, मानवता की आत्मा, आदर्शवादिता की आस्था, उत्कृष्टता की निष्ठा, सहृदयता एवं सज्जनता की सत्प्रवृत्ति के रूप में प्रकाश मण्डल के मध्य में विराजमान गायत्री का ध्यान ही उपयुक्त है। उसके एक हाथ में पुस्तक यह बताती है कि ज्ञान ही कल्याण का प्रधान अवलम्बन है। दूसरे हाथ में जल भरे कमण्डल का होना यह सन्देश देता है कि यह देवी प्रेम, शान्ति, त्याग एवं सद्भावना के प्रतीक कमण्डल को धारण करती है। जहाँ गायत्री होगी वहाँ उसकी वह अभिव्यंजना भी साथ रहेगी।
गायत्री का वाहन है हंस। हंस अर्थात नीर क्षीर का, उचित अनुचित का वर्गीकरण करने वाला विवेक। हंस के बारे में यह किम्वदन्ती है कि वह पानी मिले दूध में से जल का अंश छोड़ देता है और केवल दूध पीता है। यह प्रवृत्ति गायत्री ज्ञान धारण करने वाले की होनी चाहिए। वह इस बुराई भलाई मिले संसार में से केवल भलाई को ग्रहण करे और बुराई को छोड़ दे जिसमें ऐसी सूझ बूझ तथा क्षमता है वह गायत्री का वाहन हंस माना जायगा, भले ही वह मनुष्य- शरीर धारण किए क्यों न हो?
गायत्री का आसन खिले हुए कमल पुष्प का है। उपासक को खिले पुष्प की तरह प्रसन्न रहने का अभ्यस्त होना चाहिए। परोपकार के लिए जीवन धारण करना चाहिए और अन्त में अपने को देव पूजा एवं सन्तों की अभ्यर्थना में अपना अस्तित्व समर्पित करते हुए धन्य होना चाहिए। गायत्री कमल पुष्प पर बैठती हैं जिस साधक का जीवन कमल पुष्प जैसी विशेषताओं से सम्पन्न होगा गायत्री माता उसी हृदय- कमल में विराजमान रहेगी।
इन मान्यताओं के साथ हमें गायत्री उपासना के लिए एक मुख, दो हाथ वाली प्रतिमा का ध्यान करना चाहिए और पंचमुखी, दसभुजी प्रतिमा से उसका तत्व ज्ञान एवं उपासना क्रम अपनाना चाहिए।