
एक विशेष समय
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एक विशेष समय
हममें से प्रत्येक परिजन को कुछ मान्यताएँ अपने मन में गहराई तक उतार लेनी चाहिए, इसलिये कि जिस समय में हम और आप जीवित रह रहे हैं, एक ऐसा समय है, जिसमें युग बदल रहा है और युग परिवर्तन की वेला है। हम में से प्रत्येक साधक को यह मानकर चलना चाहिए कि हमारा व्यक्तित्व विशेष है। हमको भगवान् ने किसी विशेष काम के लिये भेजा है। कीड़े-मकोड़े और दूसरे सामान्य तरह के प्राणी पेट भरने के लिये और औलाद पैदा करने के लिये पैदा होते हैं। मनुष्यों में से भी बहुत सारे ऐसे ही नर-पामर और नरकीटक हैं, उनके जीवन का कोई लेखा-जोखा नहीं, पेट भरने के अलावा और औलाद पैदा करने के अलावा दूसरा कोई काम वो न कर सकेगा, लेकिन कुछ विशेष व्यक्तियों के ऊपर भगवान् विश्वास करते हैं और ये मानकर भेजते हैं कि ये हमारे भी कुछ काम आ सकते हैं, अपने ही गोरख-धंधे में ही नहीं फँसे रहेंगे।
युग निर्माण परिवार के हर व्यक्ति को अपने बारे में ऐसी मान्यता बनानी चाहिए कि हमको भगवान् ने कोई विशेष काम के लिये भेजा है। ये कोई विशेष समय है और हममें से हर आदमी को यह अनुभव करना चाहिए कि युग की आवश्यकताओं को पूरा करने का उत्तरदायित्व हमारे कंधे पर है। अगर ये विश्वास कर सकें तो आपकी प्रगति का द्वार खुल सकता है और आप महामानवों के रास्ते पर चल सकते हैं और इस अपने परिवार के निर्माण का उद्देश्य आप सफलतापूर्वक पूरा कर सकते हैं। आपको विशिष्ट व्यक्तित्व मिलेगा, जो सामान्य मनुष्यों जैसा नहीं होगा।
ये विशेष समय है, सामान्य जैसे शान्ति के समय होते हैं, वैसा नहीं। ये आपत्तिकाल जैसा समय है और आपत्तिकाल में आपातकालीन उत्तरदायित्व होते हैं। हमारे ऊपर की जिम्मेदारियाँ, सामान्य जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। पेट भरने मात्र की जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। इस युग की भी जिम्मेदारियाँ हैं, ये मानकर हमको चलना चाहिए और ये मानकर के चलना चाहिए कि रीछ-वानर जिस तरीके से विशेष भूमिका निभाने के लिये आये थे और ग्वाल-बाल, श्रीकृष्ण भगवान् के साथ में विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिये आये थे। आप लोग इस तरह का अनुभव और विश्वास कर सकें कि आप लोग उसी तरीके से जुड़े हुए हैं और विशेष उत्तरदायित्व महाकाल का सौंपा हुआ है, उसे पूरा करने के लिये हम लोग आये हुए हैं। अगर ये बात मान सके तो फिर आपके सामने नये प्रश्न उत्पन्न होंगे और नई समस्याएँ उत्पन्न होंगी और नये आधार और नये कारण उत्पन्न होंगे।
पहला कदम आपको जो बढ़ाना पड़ेगा, वो यह बढ़ाना पड़ेगा कि जिस तरीके से सामान्य मनुष्य जीते हैं, उसी तरीके से जीने से इन्कार कर दें और यह कहें-हम तो विशेष व्यक्ति और महामानवों के तरीके से जीयेंगे। पेट तो ऐसे ही भरना है। केवल मात्र पेट ही भरना रहा तो गन्दे तरीके से हम क्यों भरें? शेष तरीके से हम क्यों न भरें? हम जो बाकी पेट भरने के अलावा कार्य कर सकते हैं, वह क्यों न करें? यह प्रश्न हमारे सामने ज्वलंत रूप से आ खड़ा होगा और हमको यह आवश्यकता मालूम पड़ेगी कि हम अपनी मनःस्थिति में हेर-फेर कर डालें, अपनी मनःस्थिति को बदल डालें और हम लौकिक आकर्षणों की अपेक्षा ये देखें कि इन्हीं में भटकते रहने की अपेक्षा भगवान् का पल्ला पकड़ लेना ज्यादा लाभदायक है। भगवान् का सहयोगी बन जाना ज्यादा लाभदायक है। भगवान् को अपने जीवन में रमा देना ज्यादा लाभदायक है। संसार का इतिहास बताता है कि भगवान् का पल्ला पकड़ने वाले और भगवान् को अपना सहयोगी बनाने वाले कभी घाटे में नहीं रहे और न रहेंगे। ये विश्वास करें तो यह एक बहुत बड़ी बात है। जानना चाहिये, हमने एक बहुत बड़ा प्रकाश पा लिया।
अगर हम यह अनुभव कर सकें कि अब मनःस्थिति बदलनी है और सांसारिकता का पल्ला पकड़े रहने की अपेक्षा भगवान् की शरण में जाना है। ये हमारा दूसरा कदम होगा, ऊँचा उठने के लिये। तीसरा वाला कदम आत्मिक उत्थान के लिये हमारा ये होना चाहिये कि हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ, हमारी कामनाएँ, हमारी इच्छाएँ बड़प्पन के केन्द्र से हटें और महानता के साथ जुड़ जायें। हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ ये नहीं होनी चाहिए कि हम वासनाओं को पूरा करते रहेंगे जिन्दगी भर और हम तृष्णा के लिये अपने समय, बुद्धि को खर्च करते रहेंगे और हम अपनी अहंता को, ठाठ-बाट को, रौब को और बड़प्पन को लोगों के ऊपर रौब-गालिब करने के लिये तरह-तरह के ताने-बाने बुनते रहेंगे। अगर हमारा मन इस बात को मान जाये और हमारा अंतःकरण स्वीकार कर ले, ये बचकानी बातें हैं, छिछोरी बातें हैं, छोटी बातें हैं। छिछोरापन, बचकानापन और ये छोटापन, क्षुद्रता का अगर हम त्याग कर सकें तो एक बात हमारे सामने खड़ी होगी कि अब हमको महानता ग्रहण करनी है।
महापुरुषों ने जिस तरीके से आचरण किये थे, महापुरुषों का चिंतन करने का जो तरीका था, वही तरीका हमारा होना चाहिये और हमारी गतिविधियाँ उसी तरीके से होनी चाहिये, जैसे कि श्रेष्ठ मनुष्यों की रही हैं और रहेंगी। ये विश्वास करने के बाद में हमको अपनी क्रियापद्धति में, दृष्टिकोण में ये मान्यताएँ ले आने के पश्चात्, इच्छाओं और आकांक्षाओं का केन्द्र बदल देने के बाद हमको व्यावहारिक जीवन में भी थोड़े से कदम उठाने चाहिये। साधकों के लिये यही मार्ग है। आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्तिः।।
हममें से प्रत्येक परिजन को कुछ मान्यताएँ अपने मन में गहराई तक उतार लेनी चाहिए, इसलिये कि जिस समय में हम और आप जीवित रह रहे हैं, एक ऐसा समय है, जिसमें युग बदल रहा है और युग परिवर्तन की वेला है। हम में से प्रत्येक साधक को यह मानकर चलना चाहिए कि हमारा व्यक्तित्व विशेष है। हमको भगवान् ने किसी विशेष काम के लिये भेजा है। कीड़े-मकोड़े और दूसरे सामान्य तरह के प्राणी पेट भरने के लिये और औलाद पैदा करने के लिये पैदा होते हैं। मनुष्यों में से भी बहुत सारे ऐसे ही नर-पामर और नरकीटक हैं, उनके जीवन का कोई लेखा-जोखा नहीं, पेट भरने के अलावा और औलाद पैदा करने के अलावा दूसरा कोई काम वो न कर सकेगा, लेकिन कुछ विशेष व्यक्तियों के ऊपर भगवान् विश्वास करते हैं और ये मानकर भेजते हैं कि ये हमारे भी कुछ काम आ सकते हैं, अपने ही गोरख-धंधे में ही नहीं फँसे रहेंगे।
युग निर्माण परिवार के हर व्यक्ति को अपने बारे में ऐसी मान्यता बनानी चाहिए कि हमको भगवान् ने कोई विशेष काम के लिये भेजा है। ये कोई विशेष समय है और हममें से हर आदमी को यह अनुभव करना चाहिए कि युग की आवश्यकताओं को पूरा करने का उत्तरदायित्व हमारे कंधे पर है। अगर ये विश्वास कर सकें तो आपकी प्रगति का द्वार खुल सकता है और आप महामानवों के रास्ते पर चल सकते हैं और इस अपने परिवार के निर्माण का उद्देश्य आप सफलतापूर्वक पूरा कर सकते हैं। आपको विशिष्ट व्यक्तित्व मिलेगा, जो सामान्य मनुष्यों जैसा नहीं होगा।
ये विशेष समय है, सामान्य जैसे शान्ति के समय होते हैं, वैसा नहीं। ये आपत्तिकाल जैसा समय है और आपत्तिकाल में आपातकालीन उत्तरदायित्व होते हैं। हमारे ऊपर की जिम्मेदारियाँ, सामान्य जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। पेट भरने मात्र की जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। इस युग की भी जिम्मेदारियाँ हैं, ये मानकर हमको चलना चाहिए और ये मानकर के चलना चाहिए कि रीछ-वानर जिस तरीके से विशेष भूमिका निभाने के लिये आये थे और ग्वाल-बाल, श्रीकृष्ण भगवान् के साथ में विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिये आये थे। आप लोग इस तरह का अनुभव और विश्वास कर सकें कि आप लोग उसी तरीके से जुड़े हुए हैं और विशेष उत्तरदायित्व महाकाल का सौंपा हुआ है, उसे पूरा करने के लिये हम लोग आये हुए हैं। अगर ये बात मान सके तो फिर आपके सामने नये प्रश्न उत्पन्न होंगे और नई समस्याएँ उत्पन्न होंगी और नये आधार और नये कारण उत्पन्न होंगे।
पहला कदम आपको जो बढ़ाना पड़ेगा, वो यह बढ़ाना पड़ेगा कि जिस तरीके से सामान्य मनुष्य जीते हैं, उसी तरीके से जीने से इन्कार कर दें और यह कहें-हम तो विशेष व्यक्ति और महामानवों के तरीके से जीयेंगे। पेट तो ऐसे ही भरना है। केवल मात्र पेट ही भरना रहा तो गन्दे तरीके से हम क्यों भरें? शेष तरीके से हम क्यों न भरें? हम जो बाकी पेट भरने के अलावा कार्य कर सकते हैं, वह क्यों न करें? यह प्रश्न हमारे सामने ज्वलंत रूप से आ खड़ा होगा और हमको यह आवश्यकता मालूम पड़ेगी कि हम अपनी मनःस्थिति में हेर-फेर कर डालें, अपनी मनःस्थिति को बदल डालें और हम लौकिक आकर्षणों की अपेक्षा ये देखें कि इन्हीं में भटकते रहने की अपेक्षा भगवान् का पल्ला पकड़ लेना ज्यादा लाभदायक है। भगवान् का सहयोगी बन जाना ज्यादा लाभदायक है। भगवान् को अपने जीवन में रमा देना ज्यादा लाभदायक है। संसार का इतिहास बताता है कि भगवान् का पल्ला पकड़ने वाले और भगवान् को अपना सहयोगी बनाने वाले कभी घाटे में नहीं रहे और न रहेंगे। ये विश्वास करें तो यह एक बहुत बड़ी बात है। जानना चाहिये, हमने एक बहुत बड़ा प्रकाश पा लिया।
अगर हम यह अनुभव कर सकें कि अब मनःस्थिति बदलनी है और सांसारिकता का पल्ला पकड़े रहने की अपेक्षा भगवान् की शरण में जाना है। ये हमारा दूसरा कदम होगा, ऊँचा उठने के लिये। तीसरा वाला कदम आत्मिक उत्थान के लिये हमारा ये होना चाहिये कि हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ, हमारी कामनाएँ, हमारी इच्छाएँ बड़प्पन के केन्द्र से हटें और महानता के साथ जुड़ जायें। हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ ये नहीं होनी चाहिए कि हम वासनाओं को पूरा करते रहेंगे जिन्दगी भर और हम तृष्णा के लिये अपने समय, बुद्धि को खर्च करते रहेंगे और हम अपनी अहंता को, ठाठ-बाट को, रौब को और बड़प्पन को लोगों के ऊपर रौब-गालिब करने के लिये तरह-तरह के ताने-बाने बुनते रहेंगे। अगर हमारा मन इस बात को मान जाये और हमारा अंतःकरण स्वीकार कर ले, ये बचकानी बातें हैं, छिछोरी बातें हैं, छोटी बातें हैं। छिछोरापन, बचकानापन और ये छोटापन, क्षुद्रता का अगर हम त्याग कर सकें तो एक बात हमारे सामने खड़ी होगी कि अब हमको महानता ग्रहण करनी है।
महापुरुषों ने जिस तरीके से आचरण किये थे, महापुरुषों का चिंतन करने का जो तरीका था, वही तरीका हमारा होना चाहिये और हमारी गतिविधियाँ उसी तरीके से होनी चाहिये, जैसे कि श्रेष्ठ मनुष्यों की रही हैं और रहेंगी। ये विश्वास करने के बाद में हमको अपनी क्रियापद्धति में, दृष्टिकोण में ये मान्यताएँ ले आने के पश्चात्, इच्छाओं और आकांक्षाओं का केन्द्र बदल देने के बाद हमको व्यावहारिक जीवन में भी थोड़े से कदम उठाने चाहिये। साधकों के लिये यही मार्ग है। आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्तिः।।