
सामाजिक क्रान्ति
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सामाजिक क्रान्ति
धर्मतंत्र का तीसरा कार्य जो करने का है, जिससे कि मनुष्य की अन्तःचेतना विकसित होती हो, वो है ‘सामाजिक क्रान्ति’। समाज की छुट-पुट बुराइयाँ जो सामने दिखाई पड़ती हैं, इनको दूर करने के लिये विरोध और आंदोलन करने की तो जरूरत है ही, लेकिन श्रेष्ठ समाज बनाने के लिये जिन रचनात्मक वस्तुओं को जीवन में धारण करने की जरूरत है, वो उच्चस्तरीय सिद्धान्त हैं, जो व्यक्ति को समाजपरक बनाते हैं। ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की मान्यता जन-जन के अन्तःकरण में जगायी जानी चाहिए। हरेक के मन में ये विश्वास होना चाहिये कि जो हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, वही हमें दूसरों के साथ में व्यवहार करना चाहिए। सामाजिक क्रान्ति के लिये ये सिद्धान्त आवश्यक है कि हर आदमी के मन में गहराई तक प्रवेश कर जाए।
हममें से हर आदमी के मन में एक विचार उत्पन्न किया जाना चाहिये कि ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ ‘सारा विश्व ही हमारा कुटुम्ब है’। दो-पाँच आदमी नहीं, बल्कि यह सारी वसुधा ही हमारा कुटुम्ब है और जिस तरीके से अपने घर का और बाल-बच्चों का हम ध्यान रखते हैं, उसी तरीके से समस्त विश्व में सुख और शान्ति के लिये ध्यान रखना और प्रयत्न करना आवश्यक है। सामाजिक क्रान्ति के लिये उन आध्यात्मिक सिद्धान्तों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए, जिसमें कि महत्त्वपूर्ण ऐसे सिद्धान्त बने हुए हैं, जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तिवाद के ऊपर अंकुश करके समाजपरक बनता चला जाये। ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाम् नः समाचरेत्’ का सिद्धान्त अगर हम अपने जीवन में धारण कर लें तो हमारे सामाजिक जीवन में श्रेष्ठता का आ जाना स्वाभाविक है। मिल-बाँट कर खाने की वृत्ति अगर हमारे भीतर हो तो जो आज हम सबके पास है, उसी से सबका गुजारा बड़े मजे से हो सकता है। हम उदारता से उपार्जन करें। उपार्जन का उपयोग करना सीखें, उपभोग नहीं।
समता हमारे जीवन का अंग रहनी चाहिए। सर्व समाजों में समता। जिसमें नर-नारी की समता और आर्थिक समता का भी ऊँचा स्थान होना चाहिये। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनना चाहिये और सहकारिता के सिद्धान्तों को अपनाकर पारिवारिक जीवन में और सामाजिक जीवन में हर काम की व्यवस्था बनानी चाहिए। अनीति और अन्याय जहाँ कहीं भी दिखाई पड़े, उससे लड़ने के लिये हमको जटायु जैसा साहस एकत्रित करना चाहिए।
भगवान् का अवतार जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ ये मान्यता निश्चित रूप से रहती है कि भगवान् के अवतार जितने भी हुए हैं, अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना करने के लिये, हमारे भीतर भगवान् की प्रेरणा आये तो दोनों ही क्रियाकलाप हमको समान रूप से अपनाने पड़ेंगे। श्रेष्ठ आचरण अपने में और दूसरों में स्थापित करना, साथ ही साथ में अवांछनीयता और अनैतिकताएँ अपने भीतर अथवा अपने आस-पास के वातावरण में अगर हमको दिखाई पड़ती हैं तो उनसे संघर्ष करने के लिये डट जाना चाहिये। अनीति के सामने हम सिर न झुकायें। जहाँ कहीं भी अनाचार हमको दिखाई पड़ता हो उससे लोहा लेने के लिये अपनी परिस्थिति के अनुसार असहयोग, विरोध अथवा जो भी सम्भव हो, उसे करने के लिये साहस एकत्रित करें। समाज की सुव्यवस्था इसी प्रकार से सम्भव है।
डरपोक आदमी, कायर आदमी और मुसीबत से डरने वाले आदमी, पाप से भयभीत होने वाले आदमी, गुंडागर्दी से अपना मुँह छिपाने वाले आदमी कभी उन बुराइयों को दूर न कर सकेंगे और समाज में जहाँ सुव्यवस्था की आवश्यकता है और जहाँ अनीति के निराकरण की आवश्यकता है, वो पूरी न हो सकेगी। सामाजिक क्रान्ति के लिये हमको ऐसा शौर्य और साहस जन-मानस में जगाने की आवश्यकता है, भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिये।
मनुष्य जाति सामूहिक आत्महत्या के लिये बढ़ती सी मालूम पड़ती है, उसको रोकने के लिये हमको धर्मतंत्र को पुनर्जीवंत करना चाहिए। बड़ा काम बड़े साधनों से ही होता है और बड़े साधन केवल बड़े व्यक्तित्व ही जुटा सकने में सम्भव होते हैं। यही हमारा लक्ष्य है, जिसके अनुरूप हम चाहते हैं, हर व्यक्ति के अन्दर महानता जागृत हो। हर व्यक्ति अपनी वैयक्तिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा सामाजिक जीवन के लिये कुछ अधिक त्याग-बलिदान करने की हिम्मत जुटाये। पुनर्गठन से हमारा यही मतलब है कि हम नया व्यक्ति बनायें, नया समाज बनायें, नया युग लायें। इसके लिये आवश्यकता है कि हम सब व्यक्ति निर्माण करने के कार्य पे जुट जायें और व्यक्ति को श्रेष्ठ-समुन्नत बनाने के लिये भरसक प्रयत्न करें। आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्तिः।।
धर्मतंत्र का तीसरा कार्य जो करने का है, जिससे कि मनुष्य की अन्तःचेतना विकसित होती हो, वो है ‘सामाजिक क्रान्ति’। समाज की छुट-पुट बुराइयाँ जो सामने दिखाई पड़ती हैं, इनको दूर करने के लिये विरोध और आंदोलन करने की तो जरूरत है ही, लेकिन श्रेष्ठ समाज बनाने के लिये जिन रचनात्मक वस्तुओं को जीवन में धारण करने की जरूरत है, वो उच्चस्तरीय सिद्धान्त हैं, जो व्यक्ति को समाजपरक बनाते हैं। ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की मान्यता जन-जन के अन्तःकरण में जगायी जानी चाहिए। हरेक के मन में ये विश्वास होना चाहिये कि जो हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, वही हमें दूसरों के साथ में व्यवहार करना चाहिए। सामाजिक क्रान्ति के लिये ये सिद्धान्त आवश्यक है कि हर आदमी के मन में गहराई तक प्रवेश कर जाए।
हममें से हर आदमी के मन में एक विचार उत्पन्न किया जाना चाहिये कि ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ ‘सारा विश्व ही हमारा कुटुम्ब है’। दो-पाँच आदमी नहीं, बल्कि यह सारी वसुधा ही हमारा कुटुम्ब है और जिस तरीके से अपने घर का और बाल-बच्चों का हम ध्यान रखते हैं, उसी तरीके से समस्त विश्व में सुख और शान्ति के लिये ध्यान रखना और प्रयत्न करना आवश्यक है। सामाजिक क्रान्ति के लिये उन आध्यात्मिक सिद्धान्तों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए, जिसमें कि महत्त्वपूर्ण ऐसे सिद्धान्त बने हुए हैं, जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तिवाद के ऊपर अंकुश करके समाजपरक बनता चला जाये। ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाम् नः समाचरेत्’ का सिद्धान्त अगर हम अपने जीवन में धारण कर लें तो हमारे सामाजिक जीवन में श्रेष्ठता का आ जाना स्वाभाविक है। मिल-बाँट कर खाने की वृत्ति अगर हमारे भीतर हो तो जो आज हम सबके पास है, उसी से सबका गुजारा बड़े मजे से हो सकता है। हम उदारता से उपार्जन करें। उपार्जन का उपयोग करना सीखें, उपभोग नहीं।
समता हमारे जीवन का अंग रहनी चाहिए। सर्व समाजों में समता। जिसमें नर-नारी की समता और आर्थिक समता का भी ऊँचा स्थान होना चाहिये। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनना चाहिये और सहकारिता के सिद्धान्तों को अपनाकर पारिवारिक जीवन में और सामाजिक जीवन में हर काम की व्यवस्था बनानी चाहिए। अनीति और अन्याय जहाँ कहीं भी दिखाई पड़े, उससे लड़ने के लिये हमको जटायु जैसा साहस एकत्रित करना चाहिए।
भगवान् का अवतार जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ ये मान्यता निश्चित रूप से रहती है कि भगवान् के अवतार जितने भी हुए हैं, अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना करने के लिये, हमारे भीतर भगवान् की प्रेरणा आये तो दोनों ही क्रियाकलाप हमको समान रूप से अपनाने पड़ेंगे। श्रेष्ठ आचरण अपने में और दूसरों में स्थापित करना, साथ ही साथ में अवांछनीयता और अनैतिकताएँ अपने भीतर अथवा अपने आस-पास के वातावरण में अगर हमको दिखाई पड़ती हैं तो उनसे संघर्ष करने के लिये डट जाना चाहिये। अनीति के सामने हम सिर न झुकायें। जहाँ कहीं भी अनाचार हमको दिखाई पड़ता हो उससे लोहा लेने के लिये अपनी परिस्थिति के अनुसार असहयोग, विरोध अथवा जो भी सम्भव हो, उसे करने के लिये साहस एकत्रित करें। समाज की सुव्यवस्था इसी प्रकार से सम्भव है।
डरपोक आदमी, कायर आदमी और मुसीबत से डरने वाले आदमी, पाप से भयभीत होने वाले आदमी, गुंडागर्दी से अपना मुँह छिपाने वाले आदमी कभी उन बुराइयों को दूर न कर सकेंगे और समाज में जहाँ सुव्यवस्था की आवश्यकता है और जहाँ अनीति के निराकरण की आवश्यकता है, वो पूरी न हो सकेगी। सामाजिक क्रान्ति के लिये हमको ऐसा शौर्य और साहस जन-मानस में जगाने की आवश्यकता है, भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिये।
मनुष्य जाति सामूहिक आत्महत्या के लिये बढ़ती सी मालूम पड़ती है, उसको रोकने के लिये हमको धर्मतंत्र को पुनर्जीवंत करना चाहिए। बड़ा काम बड़े साधनों से ही होता है और बड़े साधन केवल बड़े व्यक्तित्व ही जुटा सकने में सम्भव होते हैं। यही हमारा लक्ष्य है, जिसके अनुरूप हम चाहते हैं, हर व्यक्ति के अन्दर महानता जागृत हो। हर व्यक्ति अपनी वैयक्तिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा सामाजिक जीवन के लिये कुछ अधिक त्याग-बलिदान करने की हिम्मत जुटाये। पुनर्गठन से हमारा यही मतलब है कि हम नया व्यक्ति बनायें, नया समाज बनायें, नया युग लायें। इसके लिये आवश्यकता है कि हम सब व्यक्ति निर्माण करने के कार्य पे जुट जायें और व्यक्ति को श्रेष्ठ-समुन्नत बनाने के लिये भरसक प्रयत्न करें। आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्तिः।।