
विधेयात्मक चिंतन- प्रगति का द्वार
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यह दुनिया बड़ी खराब है। बहुत बड़ी जलील है। अच्छाई भी है, भगवान् का रूप भी है। ये तो मैं नहीं कहता कि भगवान् का रूप नहीं है। उसमें कमियाँ कम हैं क्या, बुराइयाँ कम हैं क्या? एक से एक दुष्ट, एक से एक बेईमान दुनिया में भरे पड़े हैं। तो क्या करें फिर! दूसरों के प्रति द्वेष? द्वेष करेंगे तो भी आप ही जल जायेंगे। ईर्ष्या? ईर्ष्या से भी आप जल जायेंगे। प्रतिशोध? प्रतिशोध से भी आप जल जायेंगे। इससे आप सामने वाले का जितना नुकसान करेंगे, उससे ज्यादा अपना नुकसान कर लेंगे। एक तो दूसरे आदमी ने आपको नुकसान पहुँचाया- नुकसान नम्बर एक। और एक आपने फिर नई बीमारियाँ और शुरू कर दीं। डाह की, ईर्ष्या की, प्रतिशोध की, घृणा की। ये सारी की सारी चीजों को आप बनाये रखेंगे, फिर आप कैसे जीयेंगे, बताइये न? बाहर से भी पिसेंगे और भीतर से भी पिसेंगे तो आप मरेंगे नहीं? आप ऐसे मत कीजिए।
आप क्या करें? आप बुराइयों को बरदाश्त करें? नहीं, यह तो मैं नहीं कहता कि बुराइयों को बरदाश्त करें। आप बुराइयों से संघर्ष जरूर कीजिए। फिर! संघर्ष करने का दूसरा तरीका है। कौन- सा? वो तरीका है, जो कि डॉक्टर अख्तियार करता है। किसके लिये? मरीज के लिये। मरीज के रोगों को मार डालने के लिये हर क्षण कोशिश करता है। रोग बचने न पाये, विषाणु बचने न पाये, रक्त का प्रदूषण बचने न पाये। लेकिन रोगी को नुकसान होने न पाये। आप रोगी को नुकसान पहुँचाये बिना उसकी बुराइयों को दूर करने के लिये बराबर जद्दोजहद करते हैं। जब आप किसी व्यक्ति विशेष को हानि पहुँचाने की बात सोचते हैं तो वो द्वेष हो जाता है और आप उसके दोषों को, दुर्गुणों को, कमियों को हटाने की बात सोचते हैं तब, तब कोई दिक्कत नहीं पड़ती तो आप ऐसे कीजिए न।
आपको एक और काम करना चाहिए। आपको आत्मनिर्भर होना चाहिए। अपने ऊपर डिपेन्ड कीजिए। क्या करें? बाहर के आदमियों से मत उम्मीदें कीजिए, मत विश्वास कीजिए, मत अविश्वास कीजिए। आप यह मानकर चलिये कि उन्नति करेंगे तो हम ही करेंगे। किसी आदमी से आप यह आशा लगाये बैठे हैं, कि वो आदमी आपकी सहायता करेगा। क्यों आपकी सहायता करेगा?
आस बिरानी जो करै, जीयत ही मर जाये।
यह इतिहास की कहावत है। अब ठीक है, वक्त मिल जायेगा तो सहायता मिल भी सकती है, नहीं भी मिल सकती है और जो भी आप कदम उठायें, अपने पैरों पर भरोसा रख कर के उठायें। उम्मीद ये करें, ये काम हमको करना है और हम ही करेंगे। अगर आपका यह आत्मविश्वास है तब, तब फिर आपको आत्मनिर्भर व्यक्ति कहा जायेगा। सूरज किसी पर डिपेन्ड नहीं करता कि हमको कोई अर्घ्य चढ़ायेगा कि नहीं चढ़ायेगा। हवा किसी पर डिपेन्ड नहीं करती, किसी की अपेक्षा नहीं करती। चन्द्रमा किसी की अपेक्षा नहीं करता। जमीन किसी की अपेक्षा नहीं करती। आप किसी की अपेक्षा मत कीजिए, इसका अर्थ यह नहीं है कि आप सहयोगी जीवन न जीयें, परस्पर मिलना- जुलना न करें।
विधेयात्मक चिंतन, जिससे कि आदमी देवता बन जाते हैं। खराब आदमी है, उसको हम अच्छा बनायेंगे, सज्जन बनायेंगे, यह क्यों नहीं सोचते? खराब आदमी है, उसको मार डालेंगे, उसकी हत्या कर डालेंगे, यह क्यों सोचते हैं? यह मत सोचिए। आप दृष्टिकोण को बदलिये न। जो कुछ भी आपके पास मिला हुआ है, वह कम नहीं है। बहुत मिला हुआ है। आप देखिए न। जरा दूसरे जानवरों को देखिए न, कीड़े- मकोड़ों को देखिए न, पशु- पक्षियों को देखिए न। कैसी घिनौनी और कैसी गई- बीती और कैसी छोटी जिन्दगी व्यतीत करते हैं। फिर आप! आप क्यों ऐसी जिन्दगी जीयेंगे?
भगवान् ने तो आपको राजकुमार बनाया है न, आपको बुद्धि दी है न, आपको वाणी दी है न, आपको हाथ- पाँव दिये हैं न। आप तो घर में रहते हैं न। आपके पास जीविका है, पहली तारीख को तनख्वाह मिल जाती है, रोटी खा लेते हैं न। दूसरे जानवरों को देखिए। उन बेचारों को न कोई तनख्वाह है, न कोई नौकरी है, न कोई कपड़ा है, न कोई बोलने का ढंग है। इन सबकी तुलना में आपको कितना मिला हुआ है? आप इन पर खुशी नहीं मना सकते? आप प्रसन्न नहीं हो सकते? आपके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं आ सकती? कि जो हमारी वर्तमान परिस्थितियाँ हैं, उसमें हमको प्रसन्न रहने का हक है।
आप तो हमेशा अभावों को सोचते रहते हैं। अभावों को सोचने का अर्थ होता है- नरक। अभावों को ध्यान में नहीं रखना चाहिए, उसको दूर नहीं करना चाहिए। यह मैं नहीं कहता हूँ। मैं तो यह कहता हूँ। आप हमेशा अपने आपको अभावग्रस्त, अभावग्रस्त, दरिद्र और कंगाल मानते बैठे रहेंगे तो आप दरिद्र और कंगाल ही रह जायेंगे। आप मत अपने आपको दरिद्र मानिए और मत अपने आपको कंगाल मानिए। फिर आप ये मान के चलिये कि आप देवता हैं। देवता हुए, तो आप देने में समर्थ हैं। आपके पास देने को बहुत है। रुपया- पैसा हमारे पास कम है, तो पैसा कौन माँग रहा है आपसे? और पैसा देकर के आप क्या भला करेंगे आदमी का? आप दूसरों को प्यार दीजिए न, आप दूसरों को सम्मान दीजिए न। देखिए सम्मान की दुनियाँ कितनी प्यासी है। लोगों को प्रोत्साहन दीजिए न। देखिए आपका प्रोत्साहन पाकर के छोटे- छोटे आदमी क्या से क्या बन सकते हैं। देने के लिये कुछ कम है क्या? आप मेहनत दे दीजिए, आप लोगों के लिये सहानुभूति दे दीजिए। देने के लिये कुछ भी कम नहीं है। आपके पास देने की अगर मनोवृत्ति हो तो आप कुछ भी दे सकते हैं। आप चार रोटी खाते हैं, तीन रोटी खाइये और एक रोटी बचा दीजिए गरीबों के लिये। फिर आप देखेंगे, किस तरीके से आपको शान्ति मिलती है और किस तरीके से आप प्रसन्नता के नजदीक चले आते हैं।
भगवान् का नाम प्यार है। प्यार आप भीतर पैदा कीजिए न। जिस दिन आप प्यार पैदा करेंगे, उस दिन आपके मन में से एक ही उमंग और ऐसी हिलोरें उत्पन्न होंगी, कि हमको कैसे दूसरों की सहायता करनी चाहिए? जब दूसरों की सहायता करने के लिये आमादा होंगे तो आपको अपने में से कटौती करनी पड़ेगी, फिर साधु और ब्राह्मण का जीवन जीना पड़ेगा। ब्राह्मण किफायतसार को कहते हैं, मितव्ययी को कहते हैं, अपरिग्रही को कहते हैं, स्वल्प संतोषी को कहते हैं।
आप ब्राह्मण बनिए और भूदेव- पृथ्वी के देवताओं में अपने नाम को लगा दीजिए। और संत किसे कहते हैं? परोपकारियों को कहते हैं, लोकहित में लगे हुए आदमियों को कहते हैं। सत्प्रवृत्तियों में अपने आपको खपा देने वाले को संत कहते हैं। आप संत और ब्राह्मण के रूप में अथवा दोनों के संयुक्त जीवन- यापन करने के रूप में अगर आप जीयें तो मजा आ जायेगा। उम्मीद ऐसी है, आप यही करेंगे।
आज की बात समाप्त ।। ॥ॐ शान्तिः॥
आप क्या करें? आप बुराइयों को बरदाश्त करें? नहीं, यह तो मैं नहीं कहता कि बुराइयों को बरदाश्त करें। आप बुराइयों से संघर्ष जरूर कीजिए। फिर! संघर्ष करने का दूसरा तरीका है। कौन- सा? वो तरीका है, जो कि डॉक्टर अख्तियार करता है। किसके लिये? मरीज के लिये। मरीज के रोगों को मार डालने के लिये हर क्षण कोशिश करता है। रोग बचने न पाये, विषाणु बचने न पाये, रक्त का प्रदूषण बचने न पाये। लेकिन रोगी को नुकसान होने न पाये। आप रोगी को नुकसान पहुँचाये बिना उसकी बुराइयों को दूर करने के लिये बराबर जद्दोजहद करते हैं। जब आप किसी व्यक्ति विशेष को हानि पहुँचाने की बात सोचते हैं तो वो द्वेष हो जाता है और आप उसके दोषों को, दुर्गुणों को, कमियों को हटाने की बात सोचते हैं तब, तब कोई दिक्कत नहीं पड़ती तो आप ऐसे कीजिए न।
आपको एक और काम करना चाहिए। आपको आत्मनिर्भर होना चाहिए। अपने ऊपर डिपेन्ड कीजिए। क्या करें? बाहर के आदमियों से मत उम्मीदें कीजिए, मत विश्वास कीजिए, मत अविश्वास कीजिए। आप यह मानकर चलिये कि उन्नति करेंगे तो हम ही करेंगे। किसी आदमी से आप यह आशा लगाये बैठे हैं, कि वो आदमी आपकी सहायता करेगा। क्यों आपकी सहायता करेगा?
आस बिरानी जो करै, जीयत ही मर जाये।
यह इतिहास की कहावत है। अब ठीक है, वक्त मिल जायेगा तो सहायता मिल भी सकती है, नहीं भी मिल सकती है और जो भी आप कदम उठायें, अपने पैरों पर भरोसा रख कर के उठायें। उम्मीद ये करें, ये काम हमको करना है और हम ही करेंगे। अगर आपका यह आत्मविश्वास है तब, तब फिर आपको आत्मनिर्भर व्यक्ति कहा जायेगा। सूरज किसी पर डिपेन्ड नहीं करता कि हमको कोई अर्घ्य चढ़ायेगा कि नहीं चढ़ायेगा। हवा किसी पर डिपेन्ड नहीं करती, किसी की अपेक्षा नहीं करती। चन्द्रमा किसी की अपेक्षा नहीं करता। जमीन किसी की अपेक्षा नहीं करती। आप किसी की अपेक्षा मत कीजिए, इसका अर्थ यह नहीं है कि आप सहयोगी जीवन न जीयें, परस्पर मिलना- जुलना न करें।
विधेयात्मक चिंतन, जिससे कि आदमी देवता बन जाते हैं। खराब आदमी है, उसको हम अच्छा बनायेंगे, सज्जन बनायेंगे, यह क्यों नहीं सोचते? खराब आदमी है, उसको मार डालेंगे, उसकी हत्या कर डालेंगे, यह क्यों सोचते हैं? यह मत सोचिए। आप दृष्टिकोण को बदलिये न। जो कुछ भी आपके पास मिला हुआ है, वह कम नहीं है। बहुत मिला हुआ है। आप देखिए न। जरा दूसरे जानवरों को देखिए न, कीड़े- मकोड़ों को देखिए न, पशु- पक्षियों को देखिए न। कैसी घिनौनी और कैसी गई- बीती और कैसी छोटी जिन्दगी व्यतीत करते हैं। फिर आप! आप क्यों ऐसी जिन्दगी जीयेंगे?
भगवान् ने तो आपको राजकुमार बनाया है न, आपको बुद्धि दी है न, आपको वाणी दी है न, आपको हाथ- पाँव दिये हैं न। आप तो घर में रहते हैं न। आपके पास जीविका है, पहली तारीख को तनख्वाह मिल जाती है, रोटी खा लेते हैं न। दूसरे जानवरों को देखिए। उन बेचारों को न कोई तनख्वाह है, न कोई नौकरी है, न कोई कपड़ा है, न कोई बोलने का ढंग है। इन सबकी तुलना में आपको कितना मिला हुआ है? आप इन पर खुशी नहीं मना सकते? आप प्रसन्न नहीं हो सकते? आपके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं आ सकती? कि जो हमारी वर्तमान परिस्थितियाँ हैं, उसमें हमको प्रसन्न रहने का हक है।
आप तो हमेशा अभावों को सोचते रहते हैं। अभावों को सोचने का अर्थ होता है- नरक। अभावों को ध्यान में नहीं रखना चाहिए, उसको दूर नहीं करना चाहिए। यह मैं नहीं कहता हूँ। मैं तो यह कहता हूँ। आप हमेशा अपने आपको अभावग्रस्त, अभावग्रस्त, दरिद्र और कंगाल मानते बैठे रहेंगे तो आप दरिद्र और कंगाल ही रह जायेंगे। आप मत अपने आपको दरिद्र मानिए और मत अपने आपको कंगाल मानिए। फिर आप ये मान के चलिये कि आप देवता हैं। देवता हुए, तो आप देने में समर्थ हैं। आपके पास देने को बहुत है। रुपया- पैसा हमारे पास कम है, तो पैसा कौन माँग रहा है आपसे? और पैसा देकर के आप क्या भला करेंगे आदमी का? आप दूसरों को प्यार दीजिए न, आप दूसरों को सम्मान दीजिए न। देखिए सम्मान की दुनियाँ कितनी प्यासी है। लोगों को प्रोत्साहन दीजिए न। देखिए आपका प्रोत्साहन पाकर के छोटे- छोटे आदमी क्या से क्या बन सकते हैं। देने के लिये कुछ कम है क्या? आप मेहनत दे दीजिए, आप लोगों के लिये सहानुभूति दे दीजिए। देने के लिये कुछ भी कम नहीं है। आपके पास देने की अगर मनोवृत्ति हो तो आप कुछ भी दे सकते हैं। आप चार रोटी खाते हैं, तीन रोटी खाइये और एक रोटी बचा दीजिए गरीबों के लिये। फिर आप देखेंगे, किस तरीके से आपको शान्ति मिलती है और किस तरीके से आप प्रसन्नता के नजदीक चले आते हैं।
भगवान् का नाम प्यार है। प्यार आप भीतर पैदा कीजिए न। जिस दिन आप प्यार पैदा करेंगे, उस दिन आपके मन में से एक ही उमंग और ऐसी हिलोरें उत्पन्न होंगी, कि हमको कैसे दूसरों की सहायता करनी चाहिए? जब दूसरों की सहायता करने के लिये आमादा होंगे तो आपको अपने में से कटौती करनी पड़ेगी, फिर साधु और ब्राह्मण का जीवन जीना पड़ेगा। ब्राह्मण किफायतसार को कहते हैं, मितव्ययी को कहते हैं, अपरिग्रही को कहते हैं, स्वल्प संतोषी को कहते हैं।
आप ब्राह्मण बनिए और भूदेव- पृथ्वी के देवताओं में अपने नाम को लगा दीजिए। और संत किसे कहते हैं? परोपकारियों को कहते हैं, लोकहित में लगे हुए आदमियों को कहते हैं। सत्प्रवृत्तियों में अपने आपको खपा देने वाले को संत कहते हैं। आप संत और ब्राह्मण के रूप में अथवा दोनों के संयुक्त जीवन- यापन करने के रूप में अगर आप जीयें तो मजा आ जायेगा। उम्मीद ऐसी है, आप यही करेंगे।
आज की बात समाप्त ।। ॥ॐ शान्तिः॥