
व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण
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अपनी जिन्दगी में कुछ नये काम शामिल करिये। क्या काम शामिल करें? व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण। एक काम आपका है-व्यक्ति निर्माण। अपने आपके निर्माण की कसम खा के जाइए। हम अपने स्वभाव को बदल दें। हम अपने चिंतन को बदल दें। हम अपने आचरण को बदल दें, एक ।।दूसरा परिवर्तन जो आपको यहाँ से ले के जाना चाहिए वो ये परिवर्तन ले के जाना चाहिए कि आपका परिवार के सम्बन्ध में जो मान्यताएँ हैं, जो आधार हैं, उनको बदल दें। परिवार के व्यक्ति तो नहीं बदले जा सकते। केवल पुराने परिवार के व्यक्तियों को बरखास्त कर दें और नये व्यक्तियों को उसमें शामिल कर दें या उनका रवैया बदल दें, मकान बदल दें या शिक्षा बदल दें या उनका स्वरूप बदल दें। यह तो नहीं हो सकता। पर आपका अपने कुटुम्ब के प्रति जो रवैया है। जो आपके सोचने का तरीका है, उसको आप आसानी से बदल सकते हैं।
समाज के प्रति आपके कुछ कर्तव्य हैं, दायित्व हैं। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों से आप छुटकारा पा नहीं सकेंगे। समाज की उपेक्षा करते रहेंगे, तो फिर आप विश्वास रखिए, समाज आपकी उपेक्षा करेगा और आपको कोई वजन नहीं मिलेगा। आप सम्मान नहीं पा सकेंगे। आप सहयोग नहीं पा सकेंगे। उपेक्षा करते रहिए, अपने आप में सीमाबद्ध हो जाइए, इक्कड़ हो जाइए, अकेले रहिए, खुद ही खाइए और खुद ही मजा उड़ाइए। फिर, फिर आप ये और भूल जाइए। फिर हमको समाज में सहयोग नहीं मिल सकेगा। न ही सम्मान मिल सकेगा।
सम्मान और सहयोग ही मनुष्य की जीवात्मा की भूख और प्यास है। अगर आप उनको खरीदना चाहते हों तो कृपा करके यह विश्वास कीजिए कि जो समाज के प्रति आपके दायित्व हैं, जो कर्तव्य हैं, वो आपको निभाने चाहिए। आप उन कर्तव्यों और दायित्वों को निभा लेंगे तो बदले में सम्मान और सहयोग खरीद लेंगे। जिससे आपकी खुशी, आपकी प्रशंसा और आपकी प्रगति में चार चाँद लग जायेंगे। दो काम हुए न। अपने आपका निर्माण करना, अपने परिवार का निर्माण करना, दो और अपने समाज को प्रगतिशील बनाने के लिये, उन्नतिशील बनाने के लिये कुछ न कुछ योगदान देना, तीन।
तीन काम अगर आप कर पायें तो आपको समझना चाहिए कि आपने आत्मा की भूख को बुझाने के लिये और आत्मिक जीवन को समुन्नत बनाने के लिये कुछ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया। अन्यथा ठीक है, आप शरीर के लिये तो मरे ही हैं और शरीर के लिये तो जीये ही हैं। शरीर ही तो आपका इष्ट देव है। इन्द्रियों के सुख ही तो आपकी आकांक्षाएँ है। वासना और तृष्णा ही तो आपको सबसे प्यारे मालूम पड़ते हैं। इनमें तो आपका जीवन खर्च हो गया और किस काम में खर्च हुआ?
अब कृपा कीजिए। सादा जीवन-उच्च विचार के सिद्धान्तों का परिपालन कीजिए। सादगी, सादगी, सादगी, किफायतसारी, मितव्ययिता। अगर आपने ये अपना सिद्धान्त बना लिया हो तो आप विश्वास रखिए, आपका बहुत कुछ काम हो जायेगा। बहुत समय बच जायेगा आपके पास। और उन तीनों कर्तव्यों को पूरा करने के लिये आप विचार भी निकाल सकेंगे। श्रम भी निकाल सकेंगे, पसीना भी निकाल सकेंगे, पैसा भी निकाल सकेंगे। और अगर आपने व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को जमीन-आसमान के तरीके से ऊँचा उठाकर के रखा होगा तो आपको स्वयं का ही पूरा नहीं पड़ेगा। इसके लिये आपको अपनी कमाई से गुजारा नहीं हो सकता आपका। फिर आपको बेईमानी करनी पड़ेगी। रिश्वत लेनी ही चाहिए, कम तोलना ही चाहिए, फिर दूसरों के साथ में दगाबाजी करनी ही चाहिए, फिर आपको कर्ज लेना ही चाहिए। जो भी आप बुरे से बुरे कर्म कर सकते हैं, वो करने चाहिए। अगर आप अपनी हविश को कम नहीं कर सकते और अपनी भौतिक खर्च की महत्त्वाकांक्षा को और बड़प्पन की महत्त्वाकांक्षा को काबू में नहीं कर सकते, फिर आत्मा की बात कहाँ चलती है? आत्मा की उन्नति की बात का सवाल कहाँ उठता है? आत्मा को भी मान्यता दीजिए।
शरीर ही सब कुछ नहीं है। शरीर की आकांक्षाएँ ही सब कुछ नहीं हैं। इन्द्रियाँ ही सब कुछ नहीं हैं। मन की लिप्सा और लालसा ही सब कुछ नहीं है। कहीं आत्मा भी आपके भीतर है और आत्मा अगर आपके भीतर है, तो आप ये भी विश्वास रखिए उसकी भी भूख और प्यास है। आत्मा के अनुदान भी असीम और असंख्य हैं। लेकिन उसकी भूख और प्यास भी है। पौधों के द्वारा, पेड़ों के द्वारा हरियाली भी मिलती है, छाया भी मिलती है, फल-फूल भी मिलते हैं, प्राणवायु भी मिलती है; पर उनकी जरूरत भी तो है न। आप जरूरत को क्यों भूल जाते हैं? खाद की जरूरत नहीं है? पानी की जरूरत नहीं है उनकी। रखवाली की जरूरत नहीं है उनकी। आप रखवाली नहीं करेंगे, खाद-पानी न देंगे तो पेड़ों से और पौधों से आप क्या आशा रखेंगे? इसी तरीके से जीवात्मा का पेड़ और वृक्ष तो है, पर अपनी खुराक माँगता है। और खुराक क्या माँगता है?
मैंने निवेदन किया न, व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के लिये आपकी गतिविधियाँ चलनी चाहिए और आपके प्रयत्नों को अग्रगामी होना चाहिए।
आज की बात समाप्त।॥ॐ शान्तिः॥
समाज के प्रति आपके कुछ कर्तव्य हैं, दायित्व हैं। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों से आप छुटकारा पा नहीं सकेंगे। समाज की उपेक्षा करते रहेंगे, तो फिर आप विश्वास रखिए, समाज आपकी उपेक्षा करेगा और आपको कोई वजन नहीं मिलेगा। आप सम्मान नहीं पा सकेंगे। आप सहयोग नहीं पा सकेंगे। उपेक्षा करते रहिए, अपने आप में सीमाबद्ध हो जाइए, इक्कड़ हो जाइए, अकेले रहिए, खुद ही खाइए और खुद ही मजा उड़ाइए। फिर, फिर आप ये और भूल जाइए। फिर हमको समाज में सहयोग नहीं मिल सकेगा। न ही सम्मान मिल सकेगा।
सम्मान और सहयोग ही मनुष्य की जीवात्मा की भूख और प्यास है। अगर आप उनको खरीदना चाहते हों तो कृपा करके यह विश्वास कीजिए कि जो समाज के प्रति आपके दायित्व हैं, जो कर्तव्य हैं, वो आपको निभाने चाहिए। आप उन कर्तव्यों और दायित्वों को निभा लेंगे तो बदले में सम्मान और सहयोग खरीद लेंगे। जिससे आपकी खुशी, आपकी प्रशंसा और आपकी प्रगति में चार चाँद लग जायेंगे। दो काम हुए न। अपने आपका निर्माण करना, अपने परिवार का निर्माण करना, दो और अपने समाज को प्रगतिशील बनाने के लिये, उन्नतिशील बनाने के लिये कुछ न कुछ योगदान देना, तीन।
तीन काम अगर आप कर पायें तो आपको समझना चाहिए कि आपने आत्मा की भूख को बुझाने के लिये और आत्मिक जीवन को समुन्नत बनाने के लिये कुछ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया। अन्यथा ठीक है, आप शरीर के लिये तो मरे ही हैं और शरीर के लिये तो जीये ही हैं। शरीर ही तो आपका इष्ट देव है। इन्द्रियों के सुख ही तो आपकी आकांक्षाएँ है। वासना और तृष्णा ही तो आपको सबसे प्यारे मालूम पड़ते हैं। इनमें तो आपका जीवन खर्च हो गया और किस काम में खर्च हुआ?
अब कृपा कीजिए। सादा जीवन-उच्च विचार के सिद्धान्तों का परिपालन कीजिए। सादगी, सादगी, सादगी, किफायतसारी, मितव्ययिता। अगर आपने ये अपना सिद्धान्त बना लिया हो तो आप विश्वास रखिए, आपका बहुत कुछ काम हो जायेगा। बहुत समय बच जायेगा आपके पास। और उन तीनों कर्तव्यों को पूरा करने के लिये आप विचार भी निकाल सकेंगे। श्रम भी निकाल सकेंगे, पसीना भी निकाल सकेंगे, पैसा भी निकाल सकेंगे। और अगर आपने व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को जमीन-आसमान के तरीके से ऊँचा उठाकर के रखा होगा तो आपको स्वयं का ही पूरा नहीं पड़ेगा। इसके लिये आपको अपनी कमाई से गुजारा नहीं हो सकता आपका। फिर आपको बेईमानी करनी पड़ेगी। रिश्वत लेनी ही चाहिए, कम तोलना ही चाहिए, फिर दूसरों के साथ में दगाबाजी करनी ही चाहिए, फिर आपको कर्ज लेना ही चाहिए। जो भी आप बुरे से बुरे कर्म कर सकते हैं, वो करने चाहिए। अगर आप अपनी हविश को कम नहीं कर सकते और अपनी भौतिक खर्च की महत्त्वाकांक्षा को और बड़प्पन की महत्त्वाकांक्षा को काबू में नहीं कर सकते, फिर आत्मा की बात कहाँ चलती है? आत्मा की उन्नति की बात का सवाल कहाँ उठता है? आत्मा को भी मान्यता दीजिए।
शरीर ही सब कुछ नहीं है। शरीर की आकांक्षाएँ ही सब कुछ नहीं हैं। इन्द्रियाँ ही सब कुछ नहीं हैं। मन की लिप्सा और लालसा ही सब कुछ नहीं है। कहीं आत्मा भी आपके भीतर है और आत्मा अगर आपके भीतर है, तो आप ये भी विश्वास रखिए उसकी भी भूख और प्यास है। आत्मा के अनुदान भी असीम और असंख्य हैं। लेकिन उसकी भूख और प्यास भी है। पौधों के द्वारा, पेड़ों के द्वारा हरियाली भी मिलती है, छाया भी मिलती है, फल-फूल भी मिलते हैं, प्राणवायु भी मिलती है; पर उनकी जरूरत भी तो है न। आप जरूरत को क्यों भूल जाते हैं? खाद की जरूरत नहीं है? पानी की जरूरत नहीं है उनकी। रखवाली की जरूरत नहीं है उनकी। आप रखवाली नहीं करेंगे, खाद-पानी न देंगे तो पेड़ों से और पौधों से आप क्या आशा रखेंगे? इसी तरीके से जीवात्मा का पेड़ और वृक्ष तो है, पर अपनी खुराक माँगता है। और खुराक क्या माँगता है?
मैंने निवेदन किया न, व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के लिये आपकी गतिविधियाँ चलनी चाहिए और आपके प्रयत्नों को अग्रगामी होना चाहिए।
आज की बात समाप्त।॥ॐ शान्तिः॥