
थकावट और कमजोरी क्यों?
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स्वास्थ्य ठीक न रहने की थकावट, कमजोरी आदि की कुछ न कुछ शिकायत प्रकट अथवा अप्रकट रूप से प्रायः अधिकांश लोग किया ही करते हैं। थोड़ा-सा काम किया कि थकावट? दफ्तर से लौटे कि बदल थकावट के मारे चूर हो रहा है? आजकल थकावट, कमजोरी, हारी-बीमारी, स्वास्थ्य की गड़बड़ी की शिकायत कितनी है उतनी शायद मनुष्य को दूसरी बात की नहीं होगी। शहरी जीवन में तो यह विभीषिका सर्वत्र नंगा नाच करती दिखाई देती है।
थकावट कमजोरी रुग्णता आदि का आधार कुछ अंशों में शारीरिक भी हो सकता है किन्तु सूक्ष्म विश्लेषण करने पर इस तरह की शिकायतों का आधार मुख्य रूप से मानसिक कमजोरी, जीवन जीने का गलत ढंग, शक्तियों का दुरुपयोग और अपव्यय ही प्रमुख मिलेगा। कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से दुबले-पतले होते हुए भी घण्टों मशीन की तरह काम करते रहते हैं। जबकि उनसे भी स्वस्थ, मोटे-ताजे थोड़े से काम में ही थकावट और घबराहट प्रकट करने लगते हैं। अधिकांश बुद्धिजीवी, महान पुरुषों की शारीरिक स्थिति सामान्य स्तर पर रहती है फिर भी उनमें गजब की कार्यक्षमता होती है। महात्मा गांधी शरीर से दुबले पतले थे किन्तु 16-18 घंटे काम करते रहने पर भी इस तरह की शिकायत उनसे कभी नहीं सुनी। मुन्शी प्रेमचन्द को रात के दो दो-तीन बजे तक भी बैठकर लिखते रहने में बेचैनी और थकावट महसूस नहीं होती थी जबकि उनका स्वास्थ्य सामान्य ही था। कई लोग तो बीमार, निर्बल, अस्वस्थ रहकर भी बड़े-बड़े देशों के नेता, संचालक, महान सृष्टा, विद्वान, कलाकार रहे हैं। वस्तुतः स्वास्थ्य की शिकायत का मूल कारण मानसिक कमजोरी ही है। मनोबल द्वारा कमजोर और दुर्बल शरीर भी असाधारण कार्यों का सम्पादन करने में समर्थ होता है।
प्रकृति का यह नियम है कि जो वस्तुयें काम में आती रहती हैं, गतिशील रहती हैं उनका जीवन-काल एवं क्षमतायें भी काफी समय तक बनी रहती हैं। जो पदार्थ काम में नहीं आते उन्हें प्रकृति अधिक दिनों तक नहीं रहने देती, उनको निरुपयोगी समझकर, उपलब्ध क्षमताओं से वंचित कर देती है। नित्य निरन्तर बहते रहने वाली पानी की धारा निर्मल स्वच्छ और जीवनयुक्त रहती है। एक गड्ढे में पड़ा रहने वाला पानी सड़ जाता है, अनुपयोगी दूषित हो जाता है। मानव शरीर का भी जब उपयोग नहीं होता उसे काम में नहीं लाया जाता तो गड्ढे के पानी की तरह उसमें सड़न, गन्दगी पैदा हो जाती हैं और धीरे-धीरे अनुपयोगी बन जाता है। आलसी, अकर्मण्य, बेकार बैठे रहने वाले लोग खासतौर से थकावट कमजोरी अस्वस्थता की शिकायत करते पाये जायेंगे। जब मनुष्य को अपना काम भार की तरह ‘बला’ जैसा लगता है तब जल्दी ही थकावट अनुभव होने लगती है। थोड़ा बहुत इधर-उधर का काम करके मजदूरी से समय काटने का बहाना करने वाले लोग सदैव थके मांदे से लगते हैं। सिर दर्द, शरीर टूटने, भूख न लगने, पेट की गड़बड़ी तथा अनेकों रोग उन्हें घेर लेते हैं।
कई लोग एक से अधिक काम अपने सामने देखकर घबरा जाते हैं। वे लोग काम न करके इस उलझन में घबड़ा से जाते हैं कि ‘‘यह करें या वह।’’ इतने काम कैसे होंगे, और इसी उलझन में उनकी मानसिक शक्तियां लग जाती हैं। इससे वे थोड़ी ही देर में भारी मानसिक और शारीरिक थकान अनुभव करने लगते हैं। ऐसे लोगों को रक्तचाप, दिल की धड़कन, स्नायविक बीमारियां हो जाती हैं क्योंकि काल्पनिक परेशानियों के बोझ से मनुष्य का स्नायविक संस्थान अधिक काम करने लगता है। रक्त की गति तीव्र हो जाती है। दिल की धड़कन बढ़ जाती है। इन अस्वाभाविक आवेगों से उक्त संस्थान भी अव्यवस्थित हो जाता है। इसी से घबराहट की आदत पैदा हो जाती है जो मनुष्य को किसी उपयोगी काम में नहीं लगने देती।
मानव जीवन एकांगी नहीं वरन् बहुमुखी है। दिन भर में उसे कई कार्यों में से गुजरना पड़ता है। घर की व्यवस्था, बच्चों को स्कूल भेजना, पढ़ाना, अपने पेशे में लगना, सामाजिक राजनैतिक कार्यक्रमों, आत्म सुधार अध्ययन, ज्ञान वृद्धि आदि अनेकों क्षेत्रों में मनुष्य को प्रतिदिन काम करना पड़ता है। कई व्यक्ति अपने सामने आये एक ही काम में आवश्यकता से अधिक इतना ध्यान दे देते हैं कि उनकी सारी शक्ति उसी में उलझ जाती है। गृहस्थ की समस्या या अन्य छोटी मोटी समस्याओं में ही जिसका दिमाग हर समय उलझा रहेगा वह अन्य कोई महत्वपूर्ण कार्य न कर सकेगा। एक ही तरफ उलझे रहने वाले व्यक्तियों के दूसरे काम पूरे नहीं हो पाते और वे अक्सर थके मांदे क्लान्त परेशान अस्वस्थ से नजर आते हैं।
कई लोग अपने सम्मान बढ़ाने वाले, अपने ‘अहं’ को तुष्ट करने वाले कार्यों में ही सन्तुष्ट रहते हैं। किन्तु व्यवहार क्षेत्र में तो सदैव एक-सा समय रहता नहीं। मनुष्य को सभी तरह की परिस्थितियों में होकर गुजरना पड़ता है। सामान्य कार्यों में उक्त लोगों को बड़ी परेशानी, एक तरह का भार-सा, विवशता जान पड़ती है और वे तुरन्त थकावट का अनुभव करने लगते हैं। उनका चेहरा उदास सुस्त नीरस बना रहता है।
अपने कार्यों में भूलें हो जाना, असफलतायें मिलना, कठिनाईयां आना एक स्वाभाविक बात है। कई लोग इनके बारे में सोच विचार कर इतने खो जाते हैं कि सारा शक्ति प्रवाह उसी केन्द्र पर लग जाता है। अन्य कार्यों का ध्यान भी नहीं रहता। अपनी भूलों गल्तियों के पश्चात्ताप ग्लानि में ही सारी शक्ति नष्ट हो जाती है। इससे दुहरी हानि होती है। काम की प्रगति रुक जाती है। और चिन्ता क्लेश परेशानियां सुरसा की तरह घेर लेती हैं। मनुष्य को थकावट कमजोरी, बीमारियां सताने लगती हैं।
मानव शरीर में कुछ न कुछ गड़बड़ी हो जाना स्वाभाविक है किन्तु कई लोग इसे इतना तूल दे देते हैं कि स्वास्थ्य की चिन्ता में ही उनकी शारीरिक शक्तियां घुलने लगती हैं और मनुष्य निर्बलता कमजोरी थकावट का शिकार बन जाता है। स्वास्थ्य की अति चिन्ता करने वाले ही अधिक अस्वस्थ पाये जाते हैं। इसके विपरीत कई लोग असंयमित, अप्राकृतिक जीवन बिताते हुए भी अपनी निश्चिन्तता के कारण चाहे थोड़ा ही सही प्रसन्नता और प्रफुल्लता का जीवन बिता लेते हैं। वस्तुतः स्वास्थ्य के बनाने बिगाड़ने में असंयम, अव्यवस्था, बुराइयां आदि इतनी अधिक महत्वपूर्ण नहीं होती जितनी मनमें बुराइयों के प्रति होने वाली हीन भावना युक्त प्रतिक्रिया और स्वास्थ्य की अत्यधिक चिन्ता।
मनुष्य की क्षति और क्षमतायें एक सीमा तक होती हैं। जो व्यर्थ ही समय से पहले इन्हें नष्ट कर डालते हैं उन्हें जीवन पथ चलने में थकावट होने लगती है। जीवन और संसार कष्टकारक मालूम पड़ने लगते हैं। शक्ति और क्षमता के अभाव में मनुष्य को निराशा असफलता, अशान्ति असन्तोष आदि घेर लेते हैं जिनसे उसकी शारीरिक और मानसिक दशा भी झटके के साथ गिर जाती है।
काम का सही-सही तारतम्य क्रम व्यवस्था न बैठाकर मनचाहे ढंग से काम करना अपनी शक्तियों को व्यर्थ में ही नष्ट करना है। जो लोग अपनी सामर्थ्य की सीमा को ध्यान में न रखकर अन्धाधुन्ध काम में पिल पड़ते हैं, काम से लड़ने लगते हैं, वे जल्दी ही अशक्त होकर बैठ जाते हैं। थकावट कमजोरी से ग्रस्त होकर जीवन पथ पर चलने में असमर्थ हो जाते हैं।
पहाड़ पर रहने वाले बड़ी मन्थर गति से धीरे-धीरे चलकर पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाते हैं। किन्तु फिर भी उनके मुंह पर थकान के चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते न उनकी सांस फूलती हैं। इसके विपरीत वे लोग जो तेजी से दौड़ते हैं जल्दबाजी करते हैं भागते हैं वे अधूरी मंजिल पर ही आकर चूर हो जाते हैं, उनका दम लगता है। खरगोश और कछुये की कहानी प्रसिद्ध है। धीरे-धीरे चलने वाले कछुये ने मंजिल पार करली थी किन्तु दौड़ने वाला खरगोश थककर मार्ग में ही सुस्ताने लगा और सो गया। जब वह जागा तब तक कछुआ मंजिल पर पहुंच चुका था। प्रत्येक मील छोटे-छोटे कदमों से बनता है। तेजी, उतावलेपन के साथ काम में पिल पड़ना, भाग दौड़ जल्दबाजी करने से मानसिक अस्थिरता पैदा होती है और इससे कई मानसिक, शारीरिक रोग पैदा हो जाते हैं।
कई लोग अपने काम को कल पर टालते रहते हैं और इस तरह काम का ढेर लग जाता है। इस ढेर को देख-देखकर ही मनुष्य की चिन्ता परेशानी बढ़ने लगती है और उसकी शक्तियां घुलने लगती है। कई दिनों का काम भारी बोझ-सा इकट्ठा हो जाता है जिससे मनुष्य थकान और परेशानी अनुभव करने लगता है।
कोई काम यदि वह अपनी रुचि का नहीं है तो चाहे वह कितना ही सरल और सहज हो मनुष्य को बड़ा भार लगने लगेगा। वस्तुतः यह एक मानसिक कमजोरी है। सभी लोगों को खास कर आज के समय में इच्छानुसार कार्य मिलना प्रायः कठिन होता है। वैसे प्रत्येक कार्य अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है, उससे महत्वपूर्ण सफलतायें भी प्राप्त की जा सकती हैं। क्योंकि जो काम एक को बोझ लगता है उसी से दूसरे असाधारणता प्राप्त कर उन्नत बन जाते हैं।
इस तरह मनुष्य थकावट अस्वस्थता आदि का मूल कारण उसकी मानसिक स्थिति, मानसिक प्रतिक्रिया ही मुख्य होती हैं। शारीरिक कारण बहुत थोड़े होते हैं उन्हें आहार-विहार रहन-सहन में सुधार, प्राकृतिक नियमों का अवलम्बन लेकर जल्दी ही दुरुस्त किया जा सकता है। मानसिक स्थिति का अवलम्बन लेकर जल्दी ही दुरुस्त किया जा सकता है। मानसिक स्थिति का सुधार, जीवन को सही ढंग से जीने का सलीका जानना, स्वस्थ और सक्षम रहने के लिए आवश्यक है, अनिवार्य है।
थकावट कमजोरी रुग्णता आदि का आधार कुछ अंशों में शारीरिक भी हो सकता है किन्तु सूक्ष्म विश्लेषण करने पर इस तरह की शिकायतों का आधार मुख्य रूप से मानसिक कमजोरी, जीवन जीने का गलत ढंग, शक्तियों का दुरुपयोग और अपव्यय ही प्रमुख मिलेगा। कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से दुबले-पतले होते हुए भी घण्टों मशीन की तरह काम करते रहते हैं। जबकि उनसे भी स्वस्थ, मोटे-ताजे थोड़े से काम में ही थकावट और घबराहट प्रकट करने लगते हैं। अधिकांश बुद्धिजीवी, महान पुरुषों की शारीरिक स्थिति सामान्य स्तर पर रहती है फिर भी उनमें गजब की कार्यक्षमता होती है। महात्मा गांधी शरीर से दुबले पतले थे किन्तु 16-18 घंटे काम करते रहने पर भी इस तरह की शिकायत उनसे कभी नहीं सुनी। मुन्शी प्रेमचन्द को रात के दो दो-तीन बजे तक भी बैठकर लिखते रहने में बेचैनी और थकावट महसूस नहीं होती थी जबकि उनका स्वास्थ्य सामान्य ही था। कई लोग तो बीमार, निर्बल, अस्वस्थ रहकर भी बड़े-बड़े देशों के नेता, संचालक, महान सृष्टा, विद्वान, कलाकार रहे हैं। वस्तुतः स्वास्थ्य की शिकायत का मूल कारण मानसिक कमजोरी ही है। मनोबल द्वारा कमजोर और दुर्बल शरीर भी असाधारण कार्यों का सम्पादन करने में समर्थ होता है।
प्रकृति का यह नियम है कि जो वस्तुयें काम में आती रहती हैं, गतिशील रहती हैं उनका जीवन-काल एवं क्षमतायें भी काफी समय तक बनी रहती हैं। जो पदार्थ काम में नहीं आते उन्हें प्रकृति अधिक दिनों तक नहीं रहने देती, उनको निरुपयोगी समझकर, उपलब्ध क्षमताओं से वंचित कर देती है। नित्य निरन्तर बहते रहने वाली पानी की धारा निर्मल स्वच्छ और जीवनयुक्त रहती है। एक गड्ढे में पड़ा रहने वाला पानी सड़ जाता है, अनुपयोगी दूषित हो जाता है। मानव शरीर का भी जब उपयोग नहीं होता उसे काम में नहीं लाया जाता तो गड्ढे के पानी की तरह उसमें सड़न, गन्दगी पैदा हो जाती हैं और धीरे-धीरे अनुपयोगी बन जाता है। आलसी, अकर्मण्य, बेकार बैठे रहने वाले लोग खासतौर से थकावट कमजोरी अस्वस्थता की शिकायत करते पाये जायेंगे। जब मनुष्य को अपना काम भार की तरह ‘बला’ जैसा लगता है तब जल्दी ही थकावट अनुभव होने लगती है। थोड़ा बहुत इधर-उधर का काम करके मजदूरी से समय काटने का बहाना करने वाले लोग सदैव थके मांदे से लगते हैं। सिर दर्द, शरीर टूटने, भूख न लगने, पेट की गड़बड़ी तथा अनेकों रोग उन्हें घेर लेते हैं।
कई लोग एक से अधिक काम अपने सामने देखकर घबरा जाते हैं। वे लोग काम न करके इस उलझन में घबड़ा से जाते हैं कि ‘‘यह करें या वह।’’ इतने काम कैसे होंगे, और इसी उलझन में उनकी मानसिक शक्तियां लग जाती हैं। इससे वे थोड़ी ही देर में भारी मानसिक और शारीरिक थकान अनुभव करने लगते हैं। ऐसे लोगों को रक्तचाप, दिल की धड़कन, स्नायविक बीमारियां हो जाती हैं क्योंकि काल्पनिक परेशानियों के बोझ से मनुष्य का स्नायविक संस्थान अधिक काम करने लगता है। रक्त की गति तीव्र हो जाती है। दिल की धड़कन बढ़ जाती है। इन अस्वाभाविक आवेगों से उक्त संस्थान भी अव्यवस्थित हो जाता है। इसी से घबराहट की आदत पैदा हो जाती है जो मनुष्य को किसी उपयोगी काम में नहीं लगने देती।
मानव जीवन एकांगी नहीं वरन् बहुमुखी है। दिन भर में उसे कई कार्यों में से गुजरना पड़ता है। घर की व्यवस्था, बच्चों को स्कूल भेजना, पढ़ाना, अपने पेशे में लगना, सामाजिक राजनैतिक कार्यक्रमों, आत्म सुधार अध्ययन, ज्ञान वृद्धि आदि अनेकों क्षेत्रों में मनुष्य को प्रतिदिन काम करना पड़ता है। कई व्यक्ति अपने सामने आये एक ही काम में आवश्यकता से अधिक इतना ध्यान दे देते हैं कि उनकी सारी शक्ति उसी में उलझ जाती है। गृहस्थ की समस्या या अन्य छोटी मोटी समस्याओं में ही जिसका दिमाग हर समय उलझा रहेगा वह अन्य कोई महत्वपूर्ण कार्य न कर सकेगा। एक ही तरफ उलझे रहने वाले व्यक्तियों के दूसरे काम पूरे नहीं हो पाते और वे अक्सर थके मांदे क्लान्त परेशान अस्वस्थ से नजर आते हैं।
कई लोग अपने सम्मान बढ़ाने वाले, अपने ‘अहं’ को तुष्ट करने वाले कार्यों में ही सन्तुष्ट रहते हैं। किन्तु व्यवहार क्षेत्र में तो सदैव एक-सा समय रहता नहीं। मनुष्य को सभी तरह की परिस्थितियों में होकर गुजरना पड़ता है। सामान्य कार्यों में उक्त लोगों को बड़ी परेशानी, एक तरह का भार-सा, विवशता जान पड़ती है और वे तुरन्त थकावट का अनुभव करने लगते हैं। उनका चेहरा उदास सुस्त नीरस बना रहता है।
अपने कार्यों में भूलें हो जाना, असफलतायें मिलना, कठिनाईयां आना एक स्वाभाविक बात है। कई लोग इनके बारे में सोच विचार कर इतने खो जाते हैं कि सारा शक्ति प्रवाह उसी केन्द्र पर लग जाता है। अन्य कार्यों का ध्यान भी नहीं रहता। अपनी भूलों गल्तियों के पश्चात्ताप ग्लानि में ही सारी शक्ति नष्ट हो जाती है। इससे दुहरी हानि होती है। काम की प्रगति रुक जाती है। और चिन्ता क्लेश परेशानियां सुरसा की तरह घेर लेती हैं। मनुष्य को थकावट कमजोरी, बीमारियां सताने लगती हैं।
मानव शरीर में कुछ न कुछ गड़बड़ी हो जाना स्वाभाविक है किन्तु कई लोग इसे इतना तूल दे देते हैं कि स्वास्थ्य की चिन्ता में ही उनकी शारीरिक शक्तियां घुलने लगती हैं और मनुष्य निर्बलता कमजोरी थकावट का शिकार बन जाता है। स्वास्थ्य की अति चिन्ता करने वाले ही अधिक अस्वस्थ पाये जाते हैं। इसके विपरीत कई लोग असंयमित, अप्राकृतिक जीवन बिताते हुए भी अपनी निश्चिन्तता के कारण चाहे थोड़ा ही सही प्रसन्नता और प्रफुल्लता का जीवन बिता लेते हैं। वस्तुतः स्वास्थ्य के बनाने बिगाड़ने में असंयम, अव्यवस्था, बुराइयां आदि इतनी अधिक महत्वपूर्ण नहीं होती जितनी मनमें बुराइयों के प्रति होने वाली हीन भावना युक्त प्रतिक्रिया और स्वास्थ्य की अत्यधिक चिन्ता।
मनुष्य की क्षति और क्षमतायें एक सीमा तक होती हैं। जो व्यर्थ ही समय से पहले इन्हें नष्ट कर डालते हैं उन्हें जीवन पथ चलने में थकावट होने लगती है। जीवन और संसार कष्टकारक मालूम पड़ने लगते हैं। शक्ति और क्षमता के अभाव में मनुष्य को निराशा असफलता, अशान्ति असन्तोष आदि घेर लेते हैं जिनसे उसकी शारीरिक और मानसिक दशा भी झटके के साथ गिर जाती है।
काम का सही-सही तारतम्य क्रम व्यवस्था न बैठाकर मनचाहे ढंग से काम करना अपनी शक्तियों को व्यर्थ में ही नष्ट करना है। जो लोग अपनी सामर्थ्य की सीमा को ध्यान में न रखकर अन्धाधुन्ध काम में पिल पड़ते हैं, काम से लड़ने लगते हैं, वे जल्दी ही अशक्त होकर बैठ जाते हैं। थकावट कमजोरी से ग्रस्त होकर जीवन पथ पर चलने में असमर्थ हो जाते हैं।
पहाड़ पर रहने वाले बड़ी मन्थर गति से धीरे-धीरे चलकर पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाते हैं। किन्तु फिर भी उनके मुंह पर थकान के चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते न उनकी सांस फूलती हैं। इसके विपरीत वे लोग जो तेजी से दौड़ते हैं जल्दबाजी करते हैं भागते हैं वे अधूरी मंजिल पर ही आकर चूर हो जाते हैं, उनका दम लगता है। खरगोश और कछुये की कहानी प्रसिद्ध है। धीरे-धीरे चलने वाले कछुये ने मंजिल पार करली थी किन्तु दौड़ने वाला खरगोश थककर मार्ग में ही सुस्ताने लगा और सो गया। जब वह जागा तब तक कछुआ मंजिल पर पहुंच चुका था। प्रत्येक मील छोटे-छोटे कदमों से बनता है। तेजी, उतावलेपन के साथ काम में पिल पड़ना, भाग दौड़ जल्दबाजी करने से मानसिक अस्थिरता पैदा होती है और इससे कई मानसिक, शारीरिक रोग पैदा हो जाते हैं।
कई लोग अपने काम को कल पर टालते रहते हैं और इस तरह काम का ढेर लग जाता है। इस ढेर को देख-देखकर ही मनुष्य की चिन्ता परेशानी बढ़ने लगती है और उसकी शक्तियां घुलने लगती है। कई दिनों का काम भारी बोझ-सा इकट्ठा हो जाता है जिससे मनुष्य थकान और परेशानी अनुभव करने लगता है।
कोई काम यदि वह अपनी रुचि का नहीं है तो चाहे वह कितना ही सरल और सहज हो मनुष्य को बड़ा भार लगने लगेगा। वस्तुतः यह एक मानसिक कमजोरी है। सभी लोगों को खास कर आज के समय में इच्छानुसार कार्य मिलना प्रायः कठिन होता है। वैसे प्रत्येक कार्य अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है, उससे महत्वपूर्ण सफलतायें भी प्राप्त की जा सकती हैं। क्योंकि जो काम एक को बोझ लगता है उसी से दूसरे असाधारणता प्राप्त कर उन्नत बन जाते हैं।
इस तरह मनुष्य थकावट अस्वस्थता आदि का मूल कारण उसकी मानसिक स्थिति, मानसिक प्रतिक्रिया ही मुख्य होती हैं। शारीरिक कारण बहुत थोड़े होते हैं उन्हें आहार-विहार रहन-सहन में सुधार, प्राकृतिक नियमों का अवलम्बन लेकर जल्दी ही दुरुस्त किया जा सकता है। मानसिक स्थिति का अवलम्बन लेकर जल्दी ही दुरुस्त किया जा सकता है। मानसिक स्थिति का सुधार, जीवन को सही ढंग से जीने का सलीका जानना, स्वस्थ और सक्षम रहने के लिए आवश्यक है, अनिवार्य है।