
दीर्घ जीवन के स्वर्ण सूत्र
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जब हम कुछ व्यक्तियों को दीर्घजीवी रहते हुए सुनते हैं तो यह विचार सहज ही उत्पन्न हो जाता है कि क्या हम उतनी लम्बी आयु प्राप्त नहीं कर सकते? हम जानते हैं कि दीर्घ जीवन के लिए किन-किन उपायों का पालन करना चाहिए फिर भी हम उन उपायों की उपेक्षा करते हैं और दीर्घ जीवन के नियमों का पालन नहीं करते। हमारे पूर्वजों का तो यहां तक विश्वास था कि हम जब तक चाहें तब तक जीवित रह सकते हैं। इसके लिए भीष्म पितामह का उदाहरण प्रत्यक्ष है, जिन्हें इच्छा मृत्यु की सिद्धि प्राप्त थी।
दीर्घजीवन के लिए हमारे मन में वह विश्वास होना आवश्यक है कि हम कम आयु में मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे। यदि आप यह आस्था बनालें कि हम सौ वर्ष से कम आयु में मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे तो विश्वास मानिये कि आपकी आयु सौ वर्ष तक अवश्य पहुंचेगी। आपका यह विश्वास जितना ही दृढ़ होता जायगा, उतनी ही आयु बढ़ती जायगी। परन्तु, यदि आप यही मान बैठें कि कल का भी पता नहीं, शायद मृत्यु कल ही आ घेरे तो आपका ऐसा विश्वास आपको जीवितावस्था में ही मृत्यु के गड्ढे में धकेल देगा। दूसरे शब्दों में आप जीते जी ही मृतक के समान हो जायेंगे। आपका आंतरिक संशय ही आपको मृत्यु के मुख तक पहुंचाने में सहायक होगा।
दूसरा विश्वास शरीर के निरोग होने का है। जो लोग यह मानते हैं कि हमें कोई रोग नहीं है, उनके रोग-ग्रस्त होने पर भी, रोग के कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। परन्तु, इसके विपरीत जो लोग निरोग होते हुए भी अपने रोग-ग्रस्त होने की शंका से त्रस्त रहते हैं, वे धीरे-धीरे रोगी होते जाते हैं। उनका वहम ही उन्हें रोगी बना देता है। जो लोग क्षय-ग्रस्त नहीं हैं, उन्हें आधुनिक चिकित्सक टी.बी. को रोगी बतादे, तो उन्हें टी.बी. हो ही जाती है। ऐसा कई रोगियों के सम्बन्ध में हो चुका है। कहते भी हैं कि वहम की दवा तो लुकमान के पास भी नहीं थी।
जहां आशंका नहीं वहां रोग का क्या काम? जहां विश्वास नहीं वहां जीवन कैसा? साधारण-सा रोग होने पर आप उनके बढ़ने की शंका मत कीजिए, परन्तु रोग शामक उपाय अवश्य करते रहिये। इससे आपका रोग निर्मूल हुए बिना न रहेगा।
दीर्घजीवी होने की तीसरा उपाय है चिन्ता से निवृत्ति। मन में किसी प्रकार की चिन्ता है तो सम्पूर्ण प्रसन्नता नष्ट हो जाती है और धीरे-धीरे स्वास्थ्य भी चौपट हो जाता है। जो व्यक्ति लम्बे समय तक जीवित रहना चाहते हैं, उन्हें ऐसे प्रयत्न करने चाहिए कि वे चिन्ता से मुक्त रह सकें और यह तभी संभव है जब हम अपने कार्यों को परिश्रम पूर्वक और दत्तचित्त होकर करें। जो व्यक्ति न्यून प्राप्ति में अधिक संतोष अनुभव करता है, उसे चिन्ता का घुन नहीं लगता।
दीर्घजीवी होने के लिए खान-पान को भी नियमित रखना चाहिए। यह माना कि संसार में सभी वस्तुएं उपभोग के योग्य हैं, परन्तु किसी भी कार्य की अति हानिप्रद है। अधिक भोजन से बदहजमी होना संभव है ही। अधिक मीठा भी हानिप्रद है बार-बार खाने की प्रवृत्ति भी मनुष्य को रोगी बनाती है। इसलिए आचार्यों ने भोजन के समय निश्चित किये हैं। इसके अनुसार अधिक से अधिक प्रतिदिन तीन बार भोजन करना चाहिए।
शौच, स्नान, निद्रा, आहार, विहार सभी की सीमाएं बांधकर हमारे जीवन को सुव्यवस्थित कर दिया गया है, फिर भी हम नियमों का उल्लंघन कर रोगों को आमंत्रित करें तो इसमें हमारा अपना ही दोष समझा जाएगा।
हमारे ऋषियों ने योगासनों पर दीर्घजीवी होने के उपाय ढूंढ़ निकाले थे और आज भी आसन पद्धति से स्वास्थ्य लाभ किया जाता है। जो लोग आसन पद्धति को नहीं अपना सकते, उनके लिए विभिन्न व्यायामों की सृष्टि की गई है। प्राचीन भारतीय पद्धति के अनुसार दंड-कसरत का ऐसे ही व्यायामों में समावेश है। परन्तु आधुनिक प्रणाली के अनुसार विभिन्न खेलों को, भागदौड़, तैरना, कूदना आदि के रूप में व्यायामों को प्रश्रय दिया गया। यह सभी उपाय हमारे स्वस्थ रहने में सहायक सिद्ध होते हैं।
आज के युग में व्यायाम का एक सरल रूप टहलना है। अधिकांश शहरी व्यक्ति टहलने जाते और स्वस्थ रहते हैं। इससे मन भी प्रफुल्लित रहता और ताजा वायु भी प्राप्त हो जाती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले ही भ्रमण कर लौट आया जाय तो मनुष्य को बहुत कुछ लाभ हो सकता है। जो लोग रोगी हैं, वे भी प्रातः भ्रमण द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ बना सकते हैं।
पानी का भी हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। हल्का पानी शरीर को भारी नहीं होने देता, इसके विपरीत भारी पानी, मीठा होते हुए भी शरीर में भारीपन ला देता है और उससे मन की प्रसन्नता नष्ट हो जाती है। यदि अच्छा और हल्का कूप-जल पीने की आदत डाली जाय तो शरीर में रोग भी प्रायः उत्पन्न न हो। यह ध्यान रहे कि जल में कृमियां न पड़ें, इसके लिए दो-तीन महीने में एक बार कोई कीटाणुनाशक दवा कुंए में डाल देनी चाहिए।
इस प्रकार कुछ सावधान रहने, नियम पालन करने और मन को प्रसन्न रखने में दीर्घजीवन प्राप्त किया जाना संभव है।
दीर्घजीवन के लिए हमारे मन में वह विश्वास होना आवश्यक है कि हम कम आयु में मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे। यदि आप यह आस्था बनालें कि हम सौ वर्ष से कम आयु में मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे तो विश्वास मानिये कि आपकी आयु सौ वर्ष तक अवश्य पहुंचेगी। आपका यह विश्वास जितना ही दृढ़ होता जायगा, उतनी ही आयु बढ़ती जायगी। परन्तु, यदि आप यही मान बैठें कि कल का भी पता नहीं, शायद मृत्यु कल ही आ घेरे तो आपका ऐसा विश्वास आपको जीवितावस्था में ही मृत्यु के गड्ढे में धकेल देगा। दूसरे शब्दों में आप जीते जी ही मृतक के समान हो जायेंगे। आपका आंतरिक संशय ही आपको मृत्यु के मुख तक पहुंचाने में सहायक होगा।
दूसरा विश्वास शरीर के निरोग होने का है। जो लोग यह मानते हैं कि हमें कोई रोग नहीं है, उनके रोग-ग्रस्त होने पर भी, रोग के कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। परन्तु, इसके विपरीत जो लोग निरोग होते हुए भी अपने रोग-ग्रस्त होने की शंका से त्रस्त रहते हैं, वे धीरे-धीरे रोगी होते जाते हैं। उनका वहम ही उन्हें रोगी बना देता है। जो लोग क्षय-ग्रस्त नहीं हैं, उन्हें आधुनिक चिकित्सक टी.बी. को रोगी बतादे, तो उन्हें टी.बी. हो ही जाती है। ऐसा कई रोगियों के सम्बन्ध में हो चुका है। कहते भी हैं कि वहम की दवा तो लुकमान के पास भी नहीं थी।
जहां आशंका नहीं वहां रोग का क्या काम? जहां विश्वास नहीं वहां जीवन कैसा? साधारण-सा रोग होने पर आप उनके बढ़ने की शंका मत कीजिए, परन्तु रोग शामक उपाय अवश्य करते रहिये। इससे आपका रोग निर्मूल हुए बिना न रहेगा।
दीर्घजीवी होने की तीसरा उपाय है चिन्ता से निवृत्ति। मन में किसी प्रकार की चिन्ता है तो सम्पूर्ण प्रसन्नता नष्ट हो जाती है और धीरे-धीरे स्वास्थ्य भी चौपट हो जाता है। जो व्यक्ति लम्बे समय तक जीवित रहना चाहते हैं, उन्हें ऐसे प्रयत्न करने चाहिए कि वे चिन्ता से मुक्त रह सकें और यह तभी संभव है जब हम अपने कार्यों को परिश्रम पूर्वक और दत्तचित्त होकर करें। जो व्यक्ति न्यून प्राप्ति में अधिक संतोष अनुभव करता है, उसे चिन्ता का घुन नहीं लगता।
दीर्घजीवी होने के लिए खान-पान को भी नियमित रखना चाहिए। यह माना कि संसार में सभी वस्तुएं उपभोग के योग्य हैं, परन्तु किसी भी कार्य की अति हानिप्रद है। अधिक भोजन से बदहजमी होना संभव है ही। अधिक मीठा भी हानिप्रद है बार-बार खाने की प्रवृत्ति भी मनुष्य को रोगी बनाती है। इसलिए आचार्यों ने भोजन के समय निश्चित किये हैं। इसके अनुसार अधिक से अधिक प्रतिदिन तीन बार भोजन करना चाहिए।
शौच, स्नान, निद्रा, आहार, विहार सभी की सीमाएं बांधकर हमारे जीवन को सुव्यवस्थित कर दिया गया है, फिर भी हम नियमों का उल्लंघन कर रोगों को आमंत्रित करें तो इसमें हमारा अपना ही दोष समझा जाएगा।
हमारे ऋषियों ने योगासनों पर दीर्घजीवी होने के उपाय ढूंढ़ निकाले थे और आज भी आसन पद्धति से स्वास्थ्य लाभ किया जाता है। जो लोग आसन पद्धति को नहीं अपना सकते, उनके लिए विभिन्न व्यायामों की सृष्टि की गई है। प्राचीन भारतीय पद्धति के अनुसार दंड-कसरत का ऐसे ही व्यायामों में समावेश है। परन्तु आधुनिक प्रणाली के अनुसार विभिन्न खेलों को, भागदौड़, तैरना, कूदना आदि के रूप में व्यायामों को प्रश्रय दिया गया। यह सभी उपाय हमारे स्वस्थ रहने में सहायक सिद्ध होते हैं।
आज के युग में व्यायाम का एक सरल रूप टहलना है। अधिकांश शहरी व्यक्ति टहलने जाते और स्वस्थ रहते हैं। इससे मन भी प्रफुल्लित रहता और ताजा वायु भी प्राप्त हो जाती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले ही भ्रमण कर लौट आया जाय तो मनुष्य को बहुत कुछ लाभ हो सकता है। जो लोग रोगी हैं, वे भी प्रातः भ्रमण द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ बना सकते हैं।
पानी का भी हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। हल्का पानी शरीर को भारी नहीं होने देता, इसके विपरीत भारी पानी, मीठा होते हुए भी शरीर में भारीपन ला देता है और उससे मन की प्रसन्नता नष्ट हो जाती है। यदि अच्छा और हल्का कूप-जल पीने की आदत डाली जाय तो शरीर में रोग भी प्रायः उत्पन्न न हो। यह ध्यान रहे कि जल में कृमियां न पड़ें, इसके लिए दो-तीन महीने में एक बार कोई कीटाणुनाशक दवा कुंए में डाल देनी चाहिए।
इस प्रकार कुछ सावधान रहने, नियम पालन करने और मन को प्रसन्न रखने में दीर्घजीवन प्राप्त किया जाना संभव है।