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Books - दीर्घ जीवन के रहस्य

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवेम् शरदः शतम्ः

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संसार के सुखोपभोग करते हुए लम्बी आयुष्य प्राप्त करने की इच्छा सभी की होती है। जल्दी मर जाने की बात किसी को पसन्द नहीं आती। यह स्वाभाविक भी है। यह मानना भूल है कि आयु की घड़ियां पूर्व निर्धारित होती हैं। किसी को पच्चीस और किसी को पचास वर्ष की उम्र देने का अन्याय ईश्वर नहीं कर सकता। दीर्घ जीवन के नियमों का पालन करते हुए हर कोई सौ वर्ष का जीवन सुख और सुविधा पूर्वक बिता सकता है। आरोग्यविद्या विशारद डोनल्ड सिम्पसन का मत है कि ‘‘वर्तमान में जीवनयापन में जो जटिलताओं और विषमताओं का प्रवेश हो गया है उनके रहते हुए भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार आये को लम्बा बना सकता है।’’ अभी वह समय भी अधिक दूर नहीं गया है जब हमारे पुरखे मनमानी उम्र का उपभोग करते थे।
अपनी नियमित दिनचर्या के कारण पितामह भीष्म चोटों और घावों से क्षत−विक्षत होते हुए भी उत्तरायण सूर्य आने तक हठात् जीवन धारण किये रहे। राजा सत्यवान्, मार्कण्डेय आदि आप्त पुरुषों ने इच्छानुवर्ती आयु प्राप्त की। सोलहवीं सदी में इटली का एक साधारण नागरिक लुई कोरनारो अपनी संयम जीवनचर्या के कारण दो सौ साल से अधिक जीवित रहा। उसने कभी भी मांस, शराब आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं किया था। खाओ, पिओ और मौज करो की नीति नितान्त भ्रामक है। इससे जीवन-शक्ति का क्षय होता है। मृत्युकाल पूर्व-निश्चित है यह विश्वास मानकर जीने वाले, जो जी में आये कर डालने वाले असमय ही मौत को निमन्त्रण दे देते हैं।
इस सम्बन्ध में प्रमुख नियमितता है आहार की और वैज्ञानिक जानकारी का अभाव। केवल स्वाद के लिये चटपटे मसालेदार, खाद्य पदार्थ जुटाने और फिर उन्हें दिन में कई बार जब जी में आये पेट की आवश्यकता व स्थिति का विचार किये बिना उदरस्थ करते रहने की आदत अत्यन्त दोषपूर्ण है। अधिक से अधिक प्राकृतिक नियमों के समन्वय से ही इस दिशा में सुधार सम्भव है। मिताहार भी उतना ही आवश्यक है। मैसूर निवासी सर विश्वेश्वरैया शतायु होते हुए भी 50 वर्ष के लगते हैं। चुस्त व सजग हैं। इसका कारण वे व्यायाम और मिताहारी होना बताते हैं। त्रिवेन्द्रम आयुर्वेद कालेज के दीर्घायुषी वर्तमान प्रिन्सिपल का तो गत 30 वर्ष तक वजन एक सा बना रहा। वे स्वास्थ्य के चार प्रयोग बताते हैं। (1) नित्य तेल मालिश, (2) नियमित व्यायाम, (3) छाछ और (4) मिताहार।
ब्राजील के वयोवृद्ध प्राध्यापक का कहना है कि संयत जीवन से 120 वर्ष जीना सम्भव है, बशर्ते कच्चा खायें, ताजा खायें और खुली वायु का अधिकाधिक सेवन करें। वे भोजन को 32 बार चबाकर निगलने पर अधिक जोर देते हैं। संसार के सबसे अधिक बलगेरिया के लोग हैं। वैज्ञानिकों ने इसकी गहन शोध की और बताया कि इसका मामूली-सा कारण है और वह यह है कि यहां के लोग आहार के सम्बन्ध में बहुत सतर्कता बरतते हैं।
आहार के सम्बन्ध में यह विशेष उल्लेखनीय है कि सच्ची व परिपक्व भूख लगने पर ही खाना खायें। लन्दन के स्वास्थ्य विशेषज्ञ ब्लाड़ीमार कौरेचोवस्की का मत है—‘‘भूख से जितना अधिक खाते हैं समझना चाहिए कि हम उतना ही विष खाते हैं।’’
केवल आहार की ओर सावधानी बरतना पर्याप्त न होगा वीर्य रक्षा भी उतना ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्षणिक सुख के लिये अपना जीवन-तत्व निचोड़ते रहने वालों को असमय ही मौत का शिकार होना पड़ता है। ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन जीने से शक्ति बढ़ती है, ओजस् निखरता है और आयु लम्बी होती है। महात्मा गांधी ने 36 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य के महत्व को समझा और उसका पालन किया। वे कहा करते थे कि मैं 125 वर्ष जीऊंगा। 80 वर्ष की आयु में वे पूर्ण निरोग थे। गोली न मारी जाती तो उनकी इच्छा निश्चय ही पूर्ण होती।
इसी प्रकार शारीरिक और मानसिक संतुलित बनाये रखने के लिये श्रम का अधिक महत्व है। इससे शरीर चुस्त, खून गर्म तथा पाचन संस्थान सशक्त बना रहता है। जो लोग यह मानते हैं कि व्यायाम और शारीरिक परिश्रम से शक्ति का क्षरण होता है, वे भारी भूल करते हैं। यह बात दैनिक प्रयोगों से भली भांति जानी जा सकती है। आफिस में काम करने वाले क्लर्कों का स्वास्थ्य उतना अच्छा नहीं होता जितना खेत में काम करने वाले किसान का। भारतीय आयु सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तरप्रदेश के लोगों की औसत आयु अन्य प्रान्तों की तुलना में अधिक बैठती है और इसका कारण वहां के लोगों का अधिक श्रमशील होना ठहराया गया है। अधिकांश में खेतिहर प्रान्त होने के कारण लोगों को कठोर परिश्रम करना पड़ता है। इससे स्वाभाविक भूख, प्राकृतिक आहार और स्वच्छ हवा की आवश्यकता पूरी होती रहती है। दैनिक जीवन में शारीरिक श्रम का प्रचुर स्थान बनाये रखना चाहिये।
तुर्की का जारुआगा नामक व्यक्ति सन् 1934 में 164 वर्ष की अवस्था में मरा। इस अवधि में उसने 13 शादियां कीं, अपने पीछे 36 बेटे छोड़े। जब कभी लोग उससे इसका कारण पूछते तो वह कहता। कि मैंने अपने आपको नशों से बचाया। उसने जीवन भर कभी शराब नहीं पी। अफीम, चरस, गांजा, भांग आदि नशीली वस्तुओं का प्रयोग बड़ा ही हानिकारक होता है। इनसे निकलने वाला टार और निकोटीन विष मानव-शरीर के सभी जीवन तत्वों को सुखा कर खोखला बना देता है। ऐसी अवस्था में पूर्ण आयु प्राप्त करने की बात सोची भी नहीं जा सकती।
जीवन रक्षा के नियमों में जितना उपरोक्त व्यावहारिक बातों का पालन अनिवार्य है उतना ही मानसिक आघातों से बचाव का भी पूरा ध्यान रखने की आवश्यकता है। क्रोध, उत्तेजना, चिन्ता, चिड़चिड़ापन निराशा और जल्दबाजी से स्नायु संस्थान में बार-बार उत्तेजना और शिथिलता उत्पन्न होती है जिससे खून के सशक्त जीवाणु मर जाते हैं और शरीर की सामान्य गतिविधि भी बोझिल-सी लगने लगती है। एक प्रयोग से जर्मनी डाक्टरों ने यह पता लगाया कि एक बार के क्रोध आने से साढ़े 8 घंटे तक काम कर सकने वाली शक्ति का नाश हो जाता है। सो मानसिक अस्तव्यस्तता से अबूझ बने रहना दीर्घ जीवन के लिये उतना ही हानिप्रद है जितना किसी विष के प्रत्यक्ष प्रयोग से। इंग्लैंड के प्रसिद्ध चिकित्सक हार्डर का कहना है—‘‘जैसे बने आप प्रसन्न चित्त रहें तो आपका स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहेगा। दीर्घ जीवन की कुंजी है आपकी मानसिक प्रसन्नता। अतः उसे किसी कीमत पर न लुटाइये।’’
ये नियम इतने सस्ते, सरल व सर्व सुलभ हैं कि इन्हें हर कोई प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर सकता है। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसके लिये लम्बी दौड़−धूप, भारी सिफारिश तथा ऊंचे मूल्य की आवश्यकता हो। इन साधनों के बरतने में ऊंच-नीच छोटे-बड़े का भेद-भाव भी कहीं नहीं। यदि कुछ त्रुटि है तो वे इतनी ही समझ में आती है कि लोग जीवन जीने के नियमों को जान बूझकर लात मार रहे हैं। अपनी त्रुटिपूर्ण व्यवस्था की ओर ध्यान न दे ईश्वर को अपराधी ठहराने की बात न्याय संगत नहीं लगती। यह भी दोष देना उचित प्रतीत नहीं होता कि आज की परिस्थितियां वैसी नहीं जैसी हमारे पूर्वजों को प्राप्त थीं। दूध घी का अभाव दीर्घजीवी होने के मार्ग में उतना बाधक नहीं जितना आज लोगों की गलत दिनचर्या तथा दोषपूर्ण आहार-विहार क्रम है।
सभी चाहते हैं कि उन्हें दीर्घ जीवन का सुख मिले। पूर्ण स्वस्थ व निरोग जीवन की आकांक्षा हर किसी को होती है, पर इसके लिये जिन बातों के अनुसरण की आवश्यकता होती है उससे भटक कर लोग सीधे शार्टकट रास्ते से आगे बढ़ना चाहते हैं पर अभी तक ऐसा कोई सस्ता मार्ग बना नहीं। इसका एक ही उपाय है—सादा भोजन, संयमित आहार-बिहार और अधिकाधिक प्राकृतिक जीवन। इन्हीं का विस्तार करके धूप सेवन, हल्के और ऐसे वस्त्र जिनको पहनने पर भी मौसम का शरीर पर प्रभाव पड़ता रहे स्नान आदि की व्यवस्था आदि नियमों को प्रतिपादित किया जा सकता है। पर वे सभी संयमित दिनचर्या के ही विभिन्न अंग हैं।
मनुष्य-जीवन बड़े उपयोग की वस्तु है। इसे यूं ही उपेक्षापूर्वक बिना देना बुद्धिमानी की बात बात नहीं। यह अवसर बार-बार नहीं आता। इसलिये इसका भरपूर उपयोग करने की सतर्कता हर एक को बरतनी चाहिए।
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