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Books - दीर्घ जीवन के रहस्य

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपघ्नत

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First 16 18 Last
यह अथर्ववेद का सूक्त है, जिसमें मंत्रदृष्टा ने बताया है कि ब्रह्मचर्य की साधना से विद्वान लोग मृत्यु को जीत सकते हैं। इसी प्रकार युग पुरुष भगवान कृष्ण ने भी कहा है—यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति । अर्थात्—जो परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हो, तो ब्रह्मचर्य का पालन किया करो।
उपरोक्त दो सूक्तों से दो शिक्षायें मिलती है (1) पहली यह कि ब्रह्मचर्य से मनुष्य को आयुर्बल मिलता है, अकाल मृत्यु नहीं होती, इच्छानुकूल मृत्यु होती है। (2) ब्रह्मचर्य, अर्थात् ब्रह्म की, सत्य की, शोध में चर्या अर्थात् तत्सम्बन्धी आचरण। यह दोनों ही बातें ऐसी हैं जिनकी सत्यता को भारतीय संस्कृति के प्रादुर्भाव काल से अब तक लोग मानते आये हैं। देश, काल और परिस्थिति के अनुकूल ईश्वर प्राप्ति की साधना में अन्तर आ सकता है किन्तु ब्रह्मचर्य किसी न किसी स्थिति में प्रत्येक विधि के साथ आवश्यक कहा गया है।
यह बातें ज्ञान और विज्ञान की ठहरीं। किन्तु व्यवहारिक जीवन और सांसारिक कार्यक्रमों में जिस शक्ति और स्वास्थ्य, मेधा-बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है उसके लिये भी ब्रह्मचर्य उतना ही आवश्यक है जितना पहली दो स्थितियों में। गृहस्थ जीवन में जिस सुख की कल्पना की जाती है उसका श्रेय बहुत कुछ ब्रह्मचर्य व्रत को ही कह सकते हैं। मनुष्य विचारशील प्राणी है उसे अपना आगा-पीछा हित-अहित सोचकर चलने की क्षमता प्राप्त है। मनुष्य जीवन के सुख प्राप्त करने के लिये जीवन को सुव्यवस्थित न रखें तो सुख की कितनी ही कामना करें दुःख ही भोगना पड़ता है। शारीरिक उत्तेजनाओं से उत्तेजित होकर तथा मानसिक निर्बलताओं से प्रेरित होकर बहुमूल्य जीवनी शक्ति को यों ही बर्बाद कर देना, मनुष्य की घोर अज्ञानता का चिन्ह है। वह जीवन शुष्क, नीरस अन्धकारमय, उच्छिष्ट अपवित्र और मृत तुल्य है जिसमें मनुष्य ने शरीर सुख की क्षणिक तृप्ति के लिये हाड़-मांस के पुतले से चिपट-चिपट कर अपना जीवन स्वत्व बर्बाद कर दिया होता है। थोड़े ही दिन में जब शरीर शिथिल पड़ जाता है, इन्द्रियां जवाब देने लगती हैं तब होश आता है, किन्तु अकाल-मृत्यु को दरवाजे पर बुला कर पछताने से होता भी क्या है। अतः आवश्यक है कि हम मंत्रदृष्टा ऋषि की वाणी को हृदयंगम करें और अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया करें।
मनुष्य को तभी बुद्धिमान कह सकते हैं जब वह सांसारिक पदार्थों एवं घटनाओं का अध्ययन करके अपनी मानसिक उत्तेजनाओं का समाधान कर लिया करे। प्रतिदिन अनेकों ऐसे लोगों को देखते हैं जिनके शरीर सूखे, निर्बल और शक्तिहीन दिखाई देते हैं। दूसरी ओर हट्टे-कट्टे स्वस्थ और बलिष्ठ व्यक्ति भी दिखाई देते हैं। संभव है कुछ स्वस्थ पुरुषों को खान-पान की अच्छी सुविधायें रही हो किन्तु यदि आचरण की गहराई में आकर देखें तो यही मालूम पड़ेगा कि दुर्बल व्यक्तियों ने असंयम किया है। शरीर की विद्युत-शक्ति, प्राण-शक्ति का अनावश्यक दुरुपयोग किया है। इसी कारण वे अप्रिय, दुःखी, रोगी एवं अप्रसन्न दिखाई देते हैं। यह बात प्रायः हर व्यक्ति जानता और अनुभव करता है पर चतुर वे हैं जो इन विचारों का लाभ अपने व्यवहारिक जीवन में प्राप्त करते हैं।
‘‘क्षणिक रस के लिये मैं शक्ति हीन क्यों बनूं? जिस वीर्य में सन्तानोत्पादन की शक्ति भरी पड़ी है उसे क्यों नष्ट करूं? जीवन को आह्लादित उल्लसित एवं चमकदार रखने वाले द्रव्य का पतन क्या अच्छी बात है? परमात्मा की इस शक्ति को विनष्ट करना सचमुच गैर जिम्मेदारी है, अपराध है, मैं यह अपराध नहीं करूंगा।’’ इस तरह के विचारों को प्रतिदिन ध्यान में लाना चाहिये। मानसिक विग्रह की स्थिति में इन पर बार-बार और गहराई से विचार करना चाहिये। वीर्य रक्षा करने वाले मनुष्य ही इस संसार के भोग भोगते हैं।
संसार के किसी भी बाह्य पदार्थ को अपने सुख का कारण न मानना मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट ज्ञान का परिचायक है। सुख विचार की वस्तु है भावना से प्राप्त होता है। स्वस्थ भावनायें और बलिष्ठ विचारों से अमोद उत्पन्न होता है पर विचारों की सक्रियता और भावनाओं की मस्ती तो ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त होती है। शक्ति ही सुख का मूल है, यह समझ कर अपनी शारीरिक शक्ति के अपव्यय को रोकने में ही चतुरता है। बाह्य वाले पदार्थों को सुख का आधार बनाकर रहना मनुष्य की बन्धन-दशा तथा अज्ञान की अब्रह्मचारिणी स्थिति है, इनमें मनुष्य का पतन ही संभव है।
कामुकता प्रायः अशुभ-चिन्तन से, अश्लील दृश्यों के अवलोकन या बार-बार मनन करने से आती है। आचरण का बीज है विचार। विचारों को यदि सत्य की ओर या रचनात्मक प्रवृत्तियों में लगाये रहें और उन्हीं में सुख अनुभव करें तो ब्रह्मचर्य धारण की एक बहुत बड़ी कठिनाई हल हो जाती है। गांधीजी कहा करते थे कि ‘‘आलसी मनुष्य कभी भी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता। वीर्य संग्रह करने वालों में एक अमोघ शक्ति पैदा होती है। उसका उपयोग अपने शरीर और मन को निरन्तर कार्यरत रखने में ही करना चाहिये, अतः प्रत्येक मनुष्य को कोई ऐसा कार्य क्षेत्र निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे विषय-वासना की ओर भटकने के लिये मन को रंच मात्र भी समय न मिले।’’
जिसका मन किसी वस्तु या व्यक्ति में आसक्त हो जाता है। उसके न रहने या न मिलने पर दुःख अनुभव करता है। उसका ही आश्रित, परावलम्बी बन जाता है तो यही स्थिति अब्रह्मचर्य का कारण बन जाती है। अतः अपने आत्मा के स्वरूप को सदैव ध्यान में रखकर आत्मतृप्ति की अवस्था में जीवन-क्रम चलाना चाहिये तभी ब्रह्मचर्य की नैष्ठिक स्थिति प्राप्त की जा सकती है।
स्त्री-पुरुष के शरीरों की भिन्नता और स्त्री सौन्दर्य के प्रति आकर्षण से मनुष्य को विचार उत्तेजना आती है। प्रेरित और प्रभावित होकर अक्सर लोग वासना के शिकार हो जाते हैं। पर यदि भली प्रकार चिन्तन करें तो यह मालूम पड़ता है कि शरीर की विविधता या आवरण में भी पौरुष या आत्मा ही विद्यमान है। अविनश्वर आत्मा के कल्याण के लिये शरीर के प्रति आकर्षण मानवोचित नहीं है। यह सोचना चाहिये कि इस शरीर में हाड़, मांस, मल-मूत्र आदि गंदी वस्तुयें ही भरी पड़ी हैं। रूपहली चमक के पीछे अपनी आत्मा के कल्याण को विस्मृत नहीं किया जा सकता। दो क्षण के इन्द्रिय सुख के लिये जीवन के बहुमूल्य हित पर कुठाराघात नहीं किया जा सकता। वह करना चाहिये जिससे आत्म-ज्ञान बढ़े। मोह और काम के भाव ‘आत्म–हित’ को बेच डालना कभी विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
विषय-सुखों में भटकने वाला मनुष्य का स्वेच्छाचारी और अहंकारी मन होता है। मनोनिग्रह की समस्या, ब्रह्मचर्य-पालन की प्रमुख समस्या है। इसके लिये ऊंचा आदर्श सामने रखना और उसके लिये संयमी जीवन का आचरण करना मनोनिग्रह का सर्वोत्तम उपाय है। किन्तु यह उपाय उन्हें ही लाभ दे सकता है जो कुछ विचारशील हैं और जिन्होंने मनुष्य-जीवन को नाशवान् समझ कर तुच्छ स्वार्थों को ठुकरा देने का साहस पैदा किया है।
सामान्य व्यक्तियों के लिये मन को वशवर्ती बनाने के लिये आहार शुद्धि पर अधिक ध्यान देना चाहिये। मन वस्तुतः आहार की ही सूक्ष्मतम अवस्था का नाम है। अतः जैसा लोगों का आहार होता है वैसे ही उनका मन भी और तदनुरूप उनके आचरण भी होते हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने आहार पर काबू रखना चाहिये। भोजन केवल शरीर रक्षा, प्रसाद और औषधि रूप में ही ग्रहण किया जाना चाहिये। अधिक कड़ुवे, तीखे वासी-बुसे, मिर्च मसालेदार, चटपटे भोजन की उपयोगिता स्वास्थ्य और आरोग्य की दृष्टि से भी नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से तो ऐसे भोजन का कुछ महत्व नहीं है। मादक पदार्थ, खुले बाजारू खाद्य-पदार्थों में केवल रोग से कीटाणु ही नहीं फैल जाते वरन् उनमें आने जाने वाले लोगों के दूषित संस्कार भी प्रवेश कर जाते हैं।
ब्रह्मचर्य मनुष्य जीवन के सभी लौकिक व पारमार्थिक सुखों का साधन है हमें अपने जीवन को ब्रह्मचर्यमय रखकर शक्तिवान मेधावान बनने का सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिये। जिसने इस मूल-मन्त्र को समझ लिया उसके जीवन में सुखों की कोई कमी न होनी चाहिये।
First 16 18 Last


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