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Books - दीर्घ जीवन के रहस्य

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


हम संयमी बनें—शक्ति का अपव्यय न करें

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First 20 22 Last
शक्ति धारण करने का सिद्धान्त है कि एक ओर विविध साधनों से उसे प्राप्त करें और दूसरी ओर से अपव्यय को रोक दें। धन अर्जित करना हो तो किसी उद्यम-रोजगार से उसे प्राप्त करते हैं और मितव्ययी बनते हैं। दोनों क्रियाओं के सम्मिश्रण से धनवान् बनना सरल हो जाता है। किसी बड़े बर्तन में पानी भरना चाहते हों और उसके छिद्र बन्द न करें तो पानी देर तक टिका न रहेगा। यह सिद्धान्त जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है। एक क्रिया रचनात्मक होती है दूसरी में निषेध का बर्ताव करना होता है, कुछ सफलता प्राप्त की जा सकती है। समाज में प्रतिष्ठावान् बनने के लिए यह जरूरी है कि अधिक से अधिक सद्गुणों का विकास करें और दूसरों के साथ दुर्व्यवहार तथा असम्मान का आचरण न करें।
आत्म-शुद्धि एवं आत्म-विकास का कार्य नियमपूर्वक चलाने के लिए साथ-साथ संयमित जीवनचर्या भी परमावश्यक है। रेलगाड़ी के लिए पहले भाप को एकत्रित करते हैं और सावधानी से उसे पिस्टन तक पहुंचाते हैं। यह शक्ति यदि इधर-उधर विश्रृंखलित हो जाये तो बेचारा इंजन रेलगाड़ी को खींचने की असमर्थता ही प्रकट करेगा। आत्मा की सान्निध्यता में पहुंच कर हम जिस शक्ति की कल्पना करते हैं, वह भी ठीक इसी प्रकार है। अपनी सम्पूर्ण चेष्टाओं को केन्द्रीभूत करना पड़ता है। इस सामूहिक शक्ति को जीवन के जिस क्षेत्र जिस कार्य में लगा देते हैं, वहीं महत्वपूर्ण सफलता के दर्शन होने लगते हैं।
शक्ति के इस अपव्यय को रोकने का नाम ही ‘संयम’ है। किसी वस्तु को प्राप्त करना निस्संदेह कठिन व महत्वपूर्ण बात है, किन्तु संग्रहीत वस्तु को सुरक्षित बनाये रखना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। संग्रह और त्याग की दोनों क्रियाएं साथ-साथ चलती रहें तो कहीं भी शक्ति एकत्रित न होगी। शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक दृष्टि से शक्तिवान् बनने का एक ही तरीका है कि इनकी क्रियाशक्ति का दुरुपयोग न हो, तभी मनोवांछित ध्येय सिद्धि या सफलता मिल सकती है।
नियन्त्रित जीवन का आधार संयम है। इससे समस्त शक्तियां केन्द्रीभूत होती हैं, इन्हें जिधर ही लगादो, उधर ही चमत्कारिक परिणाम उपलब्ध किये जा सकते हैं। संयम से शक्ति स्वास्थ्य, मन की पवित्रता, बुद्धि की सूक्ष्मता और भावना की सुन्दरता जागृत होती है। इसके लिए अपने जीवन में दृढ़ इच्छा, शील व जीवनचर्या पर पर्याप्त ध्यान देना पड़ता है। आइये अब यह विचार करें कि हमें यह सावधानी कहां-कहां रखनी है। किन-किन अवस्थाओं में किस प्रकार संयम की उपयोगिता है।
आत्म–निर्माण के तीन क्षेत्र हैं—शरीर, मन और समाज। सुव्यवस्थित जीवन जीने के लिए स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की रचना अनिवार्य है। शरीर दुर्बल और रोग ग्रस्त है तो कोई सुखी न रहेगा। मन अपवित्र है तो द्वेष, दुर्भावना व कलह का ही वातावरण बना रहेगा। हमारे समाज में कुरीतियां और अनाचार फैल रहे हैं तो हम उनसे अछूते बचे रहेंगे, ऐसी कोई सुविधा इस संसार में नहीं है। इन तीनों अवस्थाओं के नियन्त्रण को ही ऋषियों ने मन, वचन और कर्म का संयम कहा है।
यह सत्य है कि संसार के सभी पदार्थ भोग के लिए हैं, किन्तु इसकी भी एक सीमा और मर्यादा होती है। आहार शरीर को शक्ति प्रदान करता है किन्तु चाहे भूख न हो, जो मिले खाते जाइए तो अपच का होना स्वाभाविक है। पेट की शक्ति के अनुरूप आहार की एक सीमा निर्धारित करदी गई है, उतने में रहे तो यह आहार अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा इससे स्वास्थ्य आरोग्य स्थिर रहेगा, किन्तु जहां मर्यादा का उल्लंघन हुआ कि रोग-शोक के लक्षण दिखाई देने लगेंगे। इसलिए स्वास्थ्य विद्या के आचार्यों ने आहार ग्रहण करने के तरीकों पर अधिक संयम व सावधानी रखने को कहा है।
शरीर-विज्ञान और आचार-शास्त्र के नियमों से भी यही बात पुष्ट होती है। इहलौकिक और पारलौकिक सुख-सफलताओं का आधार-स्वस्थ शरीर है, किन्तु नवयुवक और नव-युवतियों में यह भाव पाया जाता है कि ‘संयम’ कोई असाधारण और असम्भव वस्तु है। इस सम्बन्ध में वे काम-वासना की प्रबलता का उदाहरण भी देते हैं। कई तो इसे शरीर हित के लिए हानिकारक भी बताते हैं, किन्तु डा. ई. मेरियर के शब्दों से यह सन्देह दूर हो जाता है। उन्होंने लिखा है—‘‘पूर्ण संयम अनिष्टकारी होता है, यह धारणा भ्रान्त और काल्पनिक होती है। इसका घोर प्रतिवाद होना आवश्यक है। इस भ्रान्त धारणा से बालकों का ही नहीं, अभिभावकों का भी अहित हो सकता है।’’ इन्द्रिय संयम की आवश्यकता पर जोर डालते हुए गीताकार ने लिखा है :—
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग द्वेषो व्यवस्थितौ ।
तयोनं वशमागच्छेतौ ह्यास्य परि पन्थिनौ ।।
अर्थात्—मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् सभी इन्द्रियों के भोगों में स्थिति जो राग-द्वेष हैं, उन दोनों के वश में नहीं होवे, क्योंकि ये दोनों ही कल्याणकारी मार्ग में विघ्न पैदा करने वाले शत्रु हैं।
अनियन्त्रित काम-वासना के दुष्परिणाम सर्वविदित हैं। असंयम से आलस्य और प्रमाद उत्पन्न होता है। शरीर में विकृति व अनेकों रोगों में ग्रस्त हो जाने की आशंका बढ़ जाती है, जो कई पीढ़ियों तक चलती रहती है। ऐसी भूल करना आप पर घोर अत्याचार करना है। नाड़ी दौर्बल्य के रोगियों की संख्या उन लोगों में अधिक पाई जाती है जो अत्यधिक विषयी होते हैं, जिनके खान-पान और रहन-सहन में कोई आचार-विचार नहीं होता। पीछे यह बीमारी परम्परागत बंध जाती है, जो कई पीढ़ियों तक दुःख देती है।
इसके विपरीत जिनके आचरण संयमित होते हैं, उनमें शक्ति होती है। संयम से सूक्ष्म दृष्टि विकसित होती है। डा. मौनटे गाजा फ्रान्स ने लिखा है—‘‘चारित्रिक पवित्रता से उत्पन्न हुए किसी रोग का मुझे ज्ञान नहीं है। समस्त व्यक्ति और विशेषकर नव-युवक व नव-युवतियां संयम से तत्काल उत्पन्न होने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। ब्रह्मचर्य से स्मृति शान्त और ताजी बनी रहती है। इच्छा शक्ति में स्फूर्ति, शरीर में बल और मस्तिष्क में सुदृढ़ विचार बने रहते हैं। इनके कारण समस्त शरीर में सौन्दर्य और आकर्षण परिलक्षित होने लगता है।
जिह्वा और कामेन्द्रिय की उत्तेजना को यदि साध ले तो स्वास्थ्य रक्षा की प्रक्रिया बड़ी आसानी से पूरी की जा सकती है। भोजन भूख मिटाने या शक्ति प्राप्त करने के लिए करते हैं, जीभ के स्वाद के लिए नहीं। भोगी व्यक्तियों की रुचि स्वादयुक्त व्यंजनों में बनी रहती है, किन्तु संयमशील व्यक्ति का आहार केवल जीवन धारण किये रहने के लिये होता है, जिसमें स्वाद, चटपटे मसालों विविध व्यंजनों की राई-रत्तीभर भी गुंजायश नहीं होती। शराब, मांस और दूसरे मादक द्रव्यों का सेवन हानिकारक होता है। ये पदार्थ व्यक्ति की विवेक बुद्धि को समाप्त कर देते हैं।
जो सदैव ईर्ष्या-द्वेष, परछिद्रान्वेषण के विचारों में डूबे रहते हैं, वे अकारण ही अपनी मानसिक शक्तियों का अपव्यय करते रहते हैं। उन्हें न तो किसी प्रकार का भौतिक सुख मिलता है, न आध्यात्मिक लाभ। सामाजिक कलह अव्यवस्था का कारण भी ऐसे ही लोग होते हैं, जिनके विचार संयमित नहीं होते।
शारीरिक और मानसिक शक्तियों का नियन्त्रण करलें तो सामाजिक नियन्त्रण की बात अपने आप पूरी हो जाती है। इन दोनों का मिश्रित रूप ही समाज व्यवस्था का कारण बनता है। व्यक्ति से ही समाज बनता है। जिस समाज के व्यक्तियों में भले विचार होंगे, वहां शांति व सुव्यवस्था अवश्य होगी। अनियन्त्रित व स्वेच्छाचारी मनुष्य ही स्थान-स्थान पर कलह व कटुता उत्पन्न करते हैं। इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नियन्त्रण की आवश्यकता है, इसी से शक्ति-सन्तुलन व सुव्यवस्था बनी रह सकती है। इस पुण्य प्रक्रिया का प्रारम्भ आत्म-संयम से ही करना होगा। पीछे इसके लाभों को देखते हुए दूसरे भी चल पड़ेंगे पर पहले तो यह पग स्वयं बढ़ाना पड़ेगा।
First 20 22 Last


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