
पाब्लो नेरुदा जिनकी कवितायें स्याही से अधिक लोहू से लिखी गयी हैं
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सन् 1936 की बात है। तब स्पेन में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ था। एक ओर थी
निहत्थी, निर्धन और शोषित जनता तथा दूसरी ओर थी सशस्त्र, समर्थ एवं बर्बर
फासिस्ट सरकार। यों जनता सामान्यतः शासन की गतिविधियों, क्रिया-कलापों तथा
नीतियों से इतना सरोकार नहीं रखनी रखती जितना कि अपने व्यक्तिगत और
पारिवारिक जीवन तथा सुविधाओं से। सरकार चाहे जिन कारणों से जनता पर कर भार
तथा दूसरे बोझ डालती रहे, वह बिना कुछ कहे सहती-उठाती जीती जाती है। इसे
जनता की विशेषता कह लें या दोष पर इतना अवश्य कहना पड़ता है कि वह बहुत
सहनशील होती है।लेकिन फिर भी सहनशीलता की एक सीमा होती है और वह
सीमा जब पार कर जाती है वहां की सरकारी नीतियां और लादे गए बोझों से, तो
जन आक्रोश फूट पड़ता है। फिर भले ही सरकार राष्ट्रीय हो या विदेशी जनता के
क्रोध से उसका बच पाना मुश्किल क्या असंभव ही रहता है। जनता के पास मनोबल
होता है, ऊब होती है। विद्रोही भावनायें तथा शक्ति होती है और वह भले ही
निहत्थी हो सरकार से टकरा जाती है। ऐसी दशा में विद्रोह को कुचलने के लिए
सरकार भी कुछ बाकी नहीं रखती। अपनी सैनिक शक्ति और शस्त्र बल को, जनता के
पैसे और खून-पसीने से ही अर्जित होता है, उसी को दमित करने में लगा देती
है। स्पष्टतः यह जन कल्याण और स्वार्थ लिप्सा के बीच का संघर्ष है। जीत
किसी भी पक्ष की हो, बुद्धिजीवी और सहृदय विचारशील व्यक्तियों का समर्थन तो
जनता के पक्ष में ही होता है।
परन्तु वे देश, जो ऐसे आततायी शासन से संबंध रखते हैं अपना कुछ स्वार्थ साधने के लिए उस शासन की हर रीति-नीति को आंख मूंद कर समर्थन दिए चले जाते हैं। ऐसा ही एक देश चिली स्पेन के इस गृह युद्ध में वहां की सरकार के पक्ष में बोल रहा था। चिली की सरकार नहीं चाहती थी कि वहां का कोई नागरिक भी स्पेन की जनता का पक्ष ले। कोई ले भी नहीं रहा था परन्तु संसार उस समय हक्का-बक्का रह गया जब चिली के राजनयिक अधिकारी पाब्लो नेरुदा ने, जो उन दिनों स्पेन में ही थे, अपनी सहानुभूति स्पेन की जनता के साथ होने की बात कही। दूसरे राष्ट्रों के मामले में राजनयिक अधिकारी का कुछ कहना उस देश की, जिसका कि वह प्रतिनिधित्व कर रहा है, अंतिम राय मानी जाती है।
हालांकि चिली का रुख इस संबंध में स्पष्ट था फिर भी जब नेरुदा ने यह कहा कि मेरी सहानुभूति निहत्थी इस्पहानी जनता के साथ है, यहां के फासिस्ट फौजी तानाशाह के साथ नहीं, तो यह समझा जाने लगा कि चिली और स्पेन की तत्कालीन सरकार में कोई गंभीर मतभेद हो गये हैं, जिससे चिली ने अपनी राय बदल दी है। परन्तु चिली सरकार को तो इस बात का अनुमान भी नहीं था कि नेरुदा यह कह जायेंगे। उसे जब यह पता चला तो स्पेन से नेरुदा को वापस बुला दिया गया। इसके पूर्व ही वे स्पेन छोड़ चुके थे, यह कह कर कि जब तक स्पेन में जनता का शासन कायम नहीं हो जाता, तब तक मैं यहीं नहीं आऊंगा।
स्पष्ट है कि यह बात नेरुदा ने अपने आपको सर्वप्रथम मनुष्य मानने के नाते से कही थी किसी देश विशेष के प्रतिनिधि होने के नाते नहीं। जिस पद और दायित्व पर रहकर वे अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उस पर से कोई व्यक्ति अपने मानवीय कर्तव्य बोध को इतने खरेपन और स्पष्टता से कह कर प्रकट कर दे यह बड़े दुःसाहस की बात है। नेरुदा चिली के राजदूत थे, इसलिए उन्हें ऐसी कोई बात नहीं कहना चाहिए थी। यह बात ठीक है। परन्तु नेरुदा ने अपने आपको किसी भी बड़े पद पर होने के बावजूद भी सर्वप्रथम मनुष्य माना। मनुष्य होने की यह गहरी अनुभूति ही उन्हें राजनयिक औपचारिकता के कृत्रिम और अप्राकृतिक सीमा बंधनों को तोड़ने के लिए विवश कर गयी।
स्वयं को मात्र मनुष्य समझते रहने के कारण उन्होंने ऐसे दायित्वों से भी स्वयं को सर्वथा विलग कर लिया जिन्हें ओढ़ने पर उन्हें यह लगता था कि उनका मनुष्य पंगु, परतंत्र और विवश हो जायेगा। सन् 1970 की बात है। चिली के राष्ट्रपति का चुनाव होने जा रहा था। वहां के राष्ट्रपति पद हेतु नेरुदा का नाम प्रस्तावित किया गया। बड़ी ननुनच के बाद वे इसके लिए राजी हुए। परन्तु जब सुना कि उनके योग्य, प्रतिभाशाली और अच्छे मित्र आयेंदे भी राष्ट्रपति बनने के उत्सुक हैं तो उन्होंने अपना नाम वापिस ले लिया। पहला कारण तो यह कि उन्हें राष्ट्रपति बनना रुचा नहीं और दूसरा कारण मित्रता का था। सहृदयता, मैत्री और विश्वास को उन्होंने सब बंधनों से परे कर दिया और अपने योग्य मित्र को अवसर देने के लिए अलग हट गए।
राजनीति में सक्रिय भाग लेने से पाब्लो नेरुदा क्यों उपराम हुए? यह एकदम अलग बात है। यह उनके व्यक्तिगत विषयों से सम्बन्धित है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि उस स्थिति में रहते हुए आगत भविष्य के लिए नेरुदा को यह अंदेशा था कि वे इन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए अपने मूल व्यक्तित्व को खो देंगे। वे मूलतः कवि थे और एक ऐसे कवि जिसने अपनी कविताओं को स्याही से अधिक लोहू से लिखा था। उनकी कवितायें उस वर्ग के प्रति सहानुभूति और करुणा जागृत करती थीं जो शताब्दियों से समाज के अभिजात्य कुलों द्वारा पैरों तले रौंदा जाता रहा है।
गरीबों और दीन-दुखियों के प्रति उनकी कविताओं में सहानुभूति ही नहीं आक्रोश भी उभरता। स्वस्थ आक्रोश, जो उस व्यवस्था को तहस-नहस कर देने के लिए उत्सुक है जिसमें गरीब और श्रमजीवी वर्ग शोषण चक्की में पिसते जाते हैं। पाब्लो नेरुदा की रचनायें इस दृष्टि से जीवंत और प्राणवान् रही हैं। सरकार ने उन्हें सरकारी आदेश की अवहेलना के अपराध में वापस चिली तो बुला लिया परन्तु बाद में इस्पहानी शरणार्थियों की सहायता के लिए उन्हें पेरिस भी भेजना पड़ा। क्योंकि सरकार यह अच्छी तरह जानती थी कि इस काम को नेरुदा जितनी कुशलता से कर सकेंगे उतनी दक्षता तो शायद ही कोई और कर पाये। व्यक्ति के हृदय में सेव्य के प्रति जितनी गहन करुणा, आत्मीयता और निष्ठा होगी वह उतनी की अच्छी सेवा भी कर सकेगा।
नेरुदा का जन्म स्पेन के ही एक मजदूर परिवार में हुआ था। उस समय पश्चिम के श्रम जीवियों की माली हालत इतनी बदतर थी कि लोगों को आश्चर्य होता वे ऐसी दशा में किस प्रकार जी रहे हैं। बचपन और यौवन ही नहीं उन्हें अपना सारा जीवन बड़ी आर्थिक तंगी से गुजारना पड़ा। शायद इसी कारण उन्हें इस वर्ग की कठिनाइयों और समस्याओं का अच्छा ज्ञान था और उनकी दृष्टि में इसके लिए जिम्मेदार था वह वर्ग जो श्रमिकों और किसानों के पसीने की मेहनत पर अपनी विशाल अट्टालिकायें खड़ी करता था।
उनके क्रांतिदर्शी विचारों के कारण ही समकालीन कवियों ने उन्हें कवि के रूप में मान्यता नहीं दी। कोई मान्यता दे या न दे कलाकार इसकी चिन्ता कहां करता है। उनकी कविताओं में गरीब और शोषित का स्वर जितनी तीव्रता से मुखरित हुआ है उसी ने उसे स्टालिन पुरस्कार से सम्मानित करवाया।
सन् 1947 में वे चिली की संसद के सदस्य भी चुने गए। जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने चुन कर भेजने वाली जनता का जिस निर्भीकता से पक्ष लिया वह चिली के संसदीय इतिहास में गौरव का विषय बना है। लेकिन उन्हें अपनी निर्भयता के कारण ही बड़े बड़े खतरे झेलने पड़े। संसद सदस्य के रूप में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति गैब्रियल विडैला पर जब यह आरोप लगाया कि उन्होंने देश को अमेरिका के हाथों बेच दिया है, सरकार ने उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया। फलतः उन्हें देश छोड़ देना पड़ा। सरकार ने उन्हें सन् 1953 में वापस चिली बुला लिया। वह उनको निर्दोष मानने लगी थी। वस्तुतः वे थे तो निर्दोष ही। सितंबर 1973 में उनका देहांत हो गया।
(यु. नि. यो. अप्रैल 1977 से संकलित)
परन्तु वे देश, जो ऐसे आततायी शासन से संबंध रखते हैं अपना कुछ स्वार्थ साधने के लिए उस शासन की हर रीति-नीति को आंख मूंद कर समर्थन दिए चले जाते हैं। ऐसा ही एक देश चिली स्पेन के इस गृह युद्ध में वहां की सरकार के पक्ष में बोल रहा था। चिली की सरकार नहीं चाहती थी कि वहां का कोई नागरिक भी स्पेन की जनता का पक्ष ले। कोई ले भी नहीं रहा था परन्तु संसार उस समय हक्का-बक्का रह गया जब चिली के राजनयिक अधिकारी पाब्लो नेरुदा ने, जो उन दिनों स्पेन में ही थे, अपनी सहानुभूति स्पेन की जनता के साथ होने की बात कही। दूसरे राष्ट्रों के मामले में राजनयिक अधिकारी का कुछ कहना उस देश की, जिसका कि वह प्रतिनिधित्व कर रहा है, अंतिम राय मानी जाती है।
हालांकि चिली का रुख इस संबंध में स्पष्ट था फिर भी जब नेरुदा ने यह कहा कि मेरी सहानुभूति निहत्थी इस्पहानी जनता के साथ है, यहां के फासिस्ट फौजी तानाशाह के साथ नहीं, तो यह समझा जाने लगा कि चिली और स्पेन की तत्कालीन सरकार में कोई गंभीर मतभेद हो गये हैं, जिससे चिली ने अपनी राय बदल दी है। परन्तु चिली सरकार को तो इस बात का अनुमान भी नहीं था कि नेरुदा यह कह जायेंगे। उसे जब यह पता चला तो स्पेन से नेरुदा को वापस बुला दिया गया। इसके पूर्व ही वे स्पेन छोड़ चुके थे, यह कह कर कि जब तक स्पेन में जनता का शासन कायम नहीं हो जाता, तब तक मैं यहीं नहीं आऊंगा।
स्पष्ट है कि यह बात नेरुदा ने अपने आपको सर्वप्रथम मनुष्य मानने के नाते से कही थी किसी देश विशेष के प्रतिनिधि होने के नाते नहीं। जिस पद और दायित्व पर रहकर वे अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उस पर से कोई व्यक्ति अपने मानवीय कर्तव्य बोध को इतने खरेपन और स्पष्टता से कह कर प्रकट कर दे यह बड़े दुःसाहस की बात है। नेरुदा चिली के राजदूत थे, इसलिए उन्हें ऐसी कोई बात नहीं कहना चाहिए थी। यह बात ठीक है। परन्तु नेरुदा ने अपने आपको किसी भी बड़े पद पर होने के बावजूद भी सर्वप्रथम मनुष्य माना। मनुष्य होने की यह गहरी अनुभूति ही उन्हें राजनयिक औपचारिकता के कृत्रिम और अप्राकृतिक सीमा बंधनों को तोड़ने के लिए विवश कर गयी।
स्वयं को मात्र मनुष्य समझते रहने के कारण उन्होंने ऐसे दायित्वों से भी स्वयं को सर्वथा विलग कर लिया जिन्हें ओढ़ने पर उन्हें यह लगता था कि उनका मनुष्य पंगु, परतंत्र और विवश हो जायेगा। सन् 1970 की बात है। चिली के राष्ट्रपति का चुनाव होने जा रहा था। वहां के राष्ट्रपति पद हेतु नेरुदा का नाम प्रस्तावित किया गया। बड़ी ननुनच के बाद वे इसके लिए राजी हुए। परन्तु जब सुना कि उनके योग्य, प्रतिभाशाली और अच्छे मित्र आयेंदे भी राष्ट्रपति बनने के उत्सुक हैं तो उन्होंने अपना नाम वापिस ले लिया। पहला कारण तो यह कि उन्हें राष्ट्रपति बनना रुचा नहीं और दूसरा कारण मित्रता का था। सहृदयता, मैत्री और विश्वास को उन्होंने सब बंधनों से परे कर दिया और अपने योग्य मित्र को अवसर देने के लिए अलग हट गए।
राजनीति में सक्रिय भाग लेने से पाब्लो नेरुदा क्यों उपराम हुए? यह एकदम अलग बात है। यह उनके व्यक्तिगत विषयों से सम्बन्धित है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि उस स्थिति में रहते हुए आगत भविष्य के लिए नेरुदा को यह अंदेशा था कि वे इन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए अपने मूल व्यक्तित्व को खो देंगे। वे मूलतः कवि थे और एक ऐसे कवि जिसने अपनी कविताओं को स्याही से अधिक लोहू से लिखा था। उनकी कवितायें उस वर्ग के प्रति सहानुभूति और करुणा जागृत करती थीं जो शताब्दियों से समाज के अभिजात्य कुलों द्वारा पैरों तले रौंदा जाता रहा है।
गरीबों और दीन-दुखियों के प्रति उनकी कविताओं में सहानुभूति ही नहीं आक्रोश भी उभरता। स्वस्थ आक्रोश, जो उस व्यवस्था को तहस-नहस कर देने के लिए उत्सुक है जिसमें गरीब और श्रमजीवी वर्ग शोषण चक्की में पिसते जाते हैं। पाब्लो नेरुदा की रचनायें इस दृष्टि से जीवंत और प्राणवान् रही हैं। सरकार ने उन्हें सरकारी आदेश की अवहेलना के अपराध में वापस चिली तो बुला लिया परन्तु बाद में इस्पहानी शरणार्थियों की सहायता के लिए उन्हें पेरिस भी भेजना पड़ा। क्योंकि सरकार यह अच्छी तरह जानती थी कि इस काम को नेरुदा जितनी कुशलता से कर सकेंगे उतनी दक्षता तो शायद ही कोई और कर पाये। व्यक्ति के हृदय में सेव्य के प्रति जितनी गहन करुणा, आत्मीयता और निष्ठा होगी वह उतनी की अच्छी सेवा भी कर सकेगा।
नेरुदा का जन्म स्पेन के ही एक मजदूर परिवार में हुआ था। उस समय पश्चिम के श्रम जीवियों की माली हालत इतनी बदतर थी कि लोगों को आश्चर्य होता वे ऐसी दशा में किस प्रकार जी रहे हैं। बचपन और यौवन ही नहीं उन्हें अपना सारा जीवन बड़ी आर्थिक तंगी से गुजारना पड़ा। शायद इसी कारण उन्हें इस वर्ग की कठिनाइयों और समस्याओं का अच्छा ज्ञान था और उनकी दृष्टि में इसके लिए जिम्मेदार था वह वर्ग जो श्रमिकों और किसानों के पसीने की मेहनत पर अपनी विशाल अट्टालिकायें खड़ी करता था।
उनके क्रांतिदर्शी विचारों के कारण ही समकालीन कवियों ने उन्हें कवि के रूप में मान्यता नहीं दी। कोई मान्यता दे या न दे कलाकार इसकी चिन्ता कहां करता है। उनकी कविताओं में गरीब और शोषित का स्वर जितनी तीव्रता से मुखरित हुआ है उसी ने उसे स्टालिन पुरस्कार से सम्मानित करवाया।
सन् 1947 में वे चिली की संसद के सदस्य भी चुने गए। जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने चुन कर भेजने वाली जनता का जिस निर्भीकता से पक्ष लिया वह चिली के संसदीय इतिहास में गौरव का विषय बना है। लेकिन उन्हें अपनी निर्भयता के कारण ही बड़े बड़े खतरे झेलने पड़े। संसद सदस्य के रूप में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति गैब्रियल विडैला पर जब यह आरोप लगाया कि उन्होंने देश को अमेरिका के हाथों बेच दिया है, सरकार ने उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया। फलतः उन्हें देश छोड़ देना पड़ा। सरकार ने उन्हें सन् 1953 में वापस चिली बुला लिया। वह उनको निर्दोष मानने लगी थी। वस्तुतः वे थे तो निर्दोष ही। सितंबर 1973 में उनका देहांत हो गया।
(यु. नि. यो. अप्रैल 1977 से संकलित)