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Books - विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्रष्टा

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


सैद्धांतिक क्रांति के स्रष्टा टॉमस जैफर्सन

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ब्रिटिश शासन काल में औपनिवेशिक विधान सभा ‘हाउस ऑफ वर्जेसिज’ के सदस्य का चुनाव लड़कर टॉमस जैफर्सन ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। यों पेशे से वह एक न्यायाधीश थे परन्तु कुछ कारणों से उन्होंने राजनीति में  प्रवेश किया। इन कारणों का उल्लेख करते हुए उन्होंने जनता के सामने शपथ ली—‘‘मैं मनुष्य के मन पर किये जाने वाले हर प्रकार के अत्याचार का अनंत काल तक विरोध करूंगा।’’उन्होंने अपने देश में मानवता पर भयानक अत्याचार होते हुए देखा था। परमात्मा के पुत्रों का सम्पत्ति के व्यवसाय की तरह लेन-देन, व्यापार, दास प्रथा का घृणित रूप, निरीह और पद दलित नीग्रो लोगों पर अमानवीय अत्याचार उस समय चरम सीमा पर था। टॉमस जैफर्सन के मन में शुरू से ही नीग्रो गुलामों के प्रति सहानुभूति थी और जब वे कुछ कर सकने की स्थिति में आये तो सहानुभूति कर्तव्य में बदल गयी।
जैफर्सन को विरासत में अच्छी जायदाद मिली थी। बचपन से ही गुलामों ने जैफर्सन को अपने प्रति सहृदय पाया तो काले नीग्रो भी उन्हें भरपूर हृदय से प्यार करने लगे। उनकी सम्पत्ति को अपनी सम्पत्ति की तरह समझकर और अच्छी तरह देखभाल करने लगे। परन्तु जैफर्सन इन गुलामों की स्थिति को मानवता पर कलंक समझते थे। इसलिए वे यही सोचा करते कि जब भी मुझे अवसर मिलेगा मैं इस संकल्प को मिटाकर रहूंगा।
वह अवसर भी शीघ्र ही आया। जैफर्सन अपने पिता की जायदाद के उत्तराधिकारी बने और तब उन्होंने सभी गुलामों को स्वतंत्र कर देने की घोषणा का विचार किया। परन्तु उस समय का कानून मार्ग में बाधा बन कर खड़ा हुआ। उस समय गुलामों का मालिक भी स्वेच्छा से अपने गुलामों को मुक्त नहीं कर सकता था। इस बाधा को दूर करने के लिए उन्हें राजनीति में प्रवेश करने की बात सोचनी पड़ी। क्योंकि काफी समय तक प्रयत्न करने के बाद भी उनके विचार से कोई सहमत होता नहीं दिखाई देता था। फलतः उन्होंने चुनाव लड़ा और वे वर्जीनिया के हाउस ऑफ वर्जेसिज के सदस्य चुन भी लिए गए।
टॉमस जैफर्सन का जन्म एक सम्पन्न परिवार में 13 अप्रैल 1743 ई. को हुआ था। उनके माता-पिता ने उनकी योग्यता विकास के साथ-साथ चरित्र और मानवीय गुणों के अभिवर्द्धन की ओर भी समुचित ध्यान दिया था। इसी कारण वे आगे चलकर न्याय और प्रेम के प्रबल पोषक बने। मानवीय गुणों और तकाजों की अवहेलना कर किया गया सम्पत्ति का उपभोग अनर्थकारी ही होता है। विपुल सम्पदा में तो और भी अधिक अनर्थ की सम्भावना रहती है परन्तु उसी सम्पत्ति का यदि विवेकसम्मत उपयोग किया जाय तो मनुष्य महान् भी बन सकता है।
टॉमस जैफर्सन ने अपना कार्यकारी जीवन एक वकील के रूप में आरंभ किया। वे समझते थे कि इस पेशे को अपना कर वे न्याय की अधिक सेवा कर सकेंगे। परन्तु शीघ्र ही उनकी यह धारणा टूट गयी। इस क्षेत्र में आते ही उन्होंने अनुभव किया कि वकील एक ऐसा व्यक्ति है जिसका काम हर तरह से सवाल करना, स्वयं कुछ भी न करना और घंटों बातें करते रहना है। स्वार्थ और पैसे के लोभ में वकील अपनी प्रतिभा के बल पर हर अनुचित को उचित भी ठहरा सकता है और उचित को अनुचित भी। इस प्रकार न्याय सत्ता न होकर दुरूह और खर्चीला बन जाता है। यही कहीं, तर्क-वितर्क के जंजाल में पड़ जाने से कभी-कभी तो न्याय के स्थान पर अन्याय ही मिलता है। सैद्धांतिक रूप से उन्हें अपना पेशा ठीक नहीं जंचा और उन्होंने वकालत छोड़ दी।
कुछ वर्षों बाद वे न्यायाधीश के पद पर नियुक्त हुए। कालांतर में जैफर्सन ने देश के उन लाखों लोगों के लिए जो न्याय पाने के लिए किसी भी अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकते थे, न्यायाधीश का पद भी छोड़ दिया और औपनिवेशिक सभा के सदस्य बन गए।
सदस्य बनते ही उन्हें प्रतिज्ञा को पूरा करने का अवसर मिला और संसद में उन्होंने एक ऐसा कानून पेश किया जिसके अनुसार किसी भी गोरे स्वामी को यह अधिकार दिया जा सकता था कि वह अपने अधीनस्थ गुलामों को मुक्त कर सके। दास प्रथा पर यह उनकी पहली चोट थी। वे जानते थे कि इससे बड़ी चोट करना अपनी वर्तमान स्थिति और पहुंच के बाहर की बात है। इस विधेयक का भी बहुत विरोध हुआ परन्तु अंततः यह पारित हो गया और उन्होंने अपने सभी दासों को मुक्त कर दिया।
अब उन्होंने राजनीति को ही जन सेवा का उपयुक्त माध्यम बना लिया था। तभी कौंटिनेंटल कांग्रेस का गठन हुआ। यह कांग्रेस अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के लिए गठित की गयी थी। जैफर्सन को भी इसका सदस्य बनाया गया। उस समय उनकी आयु केवल 33 वर्ष की थी। स्वातंत्र्य घोषणा का मसविदा तैयार करते हुए उन्होंने लिखा कि सब मनुष्य समान उत्पन्न हुए हैं। उसके स्रष्टा ने उन्हें कुछ अनपहरणीय अधिकार दिए हैं जिनमें प्राण रक्षा, स्वतंत्रता और सुख प्राप्ति के प्रयत्न भी हैं।
इस घोषणा की सर्वत्र सराहना की गयी। उनके समकालिक विद्वानों ने उन्हें ‘क्रांति की कलम’ कहकर सम्मानित किया। किन्तु जैफर्सन इससे भी अधिक थे। उनकी गतिविधियां और क्रियाशीलता मात्र यहीं तक सीमित नहीं थी। वे इस घोषणा को कार्य रूप में भी परिणत हुआ देखना चाहते थे।
जॉर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में गठित सरकार ने उनकी प्रतिभा का उपयोग अमेरिकी संविधान के निर्माण और अधिकार पत्र संविधान में सम्मिलित करने में किया। अमेरिकी संविधान में पहले दस संशोधनों को अधिकार पत्र कहा जाता है। यह राज्य के शासनाधिकारों को परिमित कर नागरिकों की मान्यताओं और आस्थाओं की सुरक्षा के लिए जोड़ा गया था। इन अधिकारों में पूजा-उपासना, समाचार-पत्र प्रकाशन और विचार प्रकाशन के अधिकार भी सम्मिलित हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जैफर्सन जो जॉर्ज वाशिंगटन ने अपना प्रमुख सहयोगी बनाया और एक वरिष्ठ मंत्रालय सौंपा। परन्तु वाशिंगटन की कुछ नीतियों से असहमत होने के कारण उन्होंने थोड़े ही समय बाद मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।
उन्होंने एक नए राजनीतिक दल का गठन किया जो आगे चलकर सत्तारूढ़ दल के समकक्ष ही लोकप्रिय बना। यह दल था डैमोक्रैटिक पार्टी। इस पार्टी का विश्वास था कि विकेन्द्रित शासन  प्रणाली द्वारा ही व्यक्ति को सर्वोत्तम संरक्षण प्राप्त हो सकता है। यह दल संघवाद के विरुद्ध राज्यों के अधिकारों का प्रबल समर्थक रहा है।
सन् 1800 में वह अपने देश के तीसरे राष्ट्रपति चुने गए। राष्ट्रपति वाशिंगटन के पद पर उस समय जैफर्सन से अधिक योग्य उनका उत्तराधिकारी कोई दूसरा नहीं था। अपने चारों ओर व्याप्त विपुल सम्पदा तथा उनके उपभोग का अधिकारी  होने के बावजूद भी वे किसी भी प्रकार की शान-शौकत के खिलाफ थे। देश के अधिकांश लोग जिस स्तर का जीवन जीते हैं, उनकी दृष्टि में उसी स्तर का जीवन एक राष्ट्राध्यक्ष  को भी जीना चाहिए। लाखों-करोड़ों आम नागरिकों को जो सुविधाएं उपलब्ध होती हैं उतनी ही सुविधाओं के उपभोग का नैतिक अधिकार एक राष्ट्रपति को हैं। उनकी इस महानता ने कई विरोधियों को भी अपना प्रशंसक बना लिया। मरने के बाद भी किसी भी प्रकार का दिखावा या धन का अपव्यय न हो इस प्रकार की कड़ी हिदायतें उन्होंने दी थीं। उनकी कब्र पर केवल चार पंक्तियां अंकित हैं जिनमें लिखा है—‘‘यहां अमेरिकी स्वातंत्र्य घोषणा पत्र और वर्जीनिया के धार्मिक स्वाधीनता का कानून का लेखक एवं वर्जीनिया विश्वविद्यालय का जनक टॉमस जैफर्सन दफनाया गया है।’’ लोग उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से प्रेरणा ग्रहण करें- इसी तथ्य का ध्यान यहां रखा गया है न कि उनके राष्ट्राध्यक्ष होने की सफलता से प्रभावित होने का।
14 जुलाई 1826 को 83 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हो गया। उनका जीवन सिद्धांत के प्रति निष्ठावान् एक जागृत अंतःकरण की कहानी है। उन्होंने असंख्य लोगों के मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष का सूत्रपात किया जो आगे चलकर कुछ ही दशाब्दियों में सफल हो कर रहा।
(यु. नि. यो. जनवरी 1974 से संकलित)
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