
कुंग फुत्ज मनुष्य जो देवता की तरह पूजा गया
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तेरह वर्ष तक वह एक राजा से दूसरे राजा के पास जाता रहा कि वे उसकी
नैतिक पुनरुत्थान परक सेवाएं लें। किन्तु किसी ने भी उसकी बात नहीं मानी।
सम्मान सभी ने किया। सभी ने कहा—‘‘आप बहुत बड़े विचारक हैं, विद्वान हैं।
आपसे हमारी सभा की शोभा है। आपके लिए हम सब प्रकार की सुविधाएं जुटायेंगे।
आप हमारे पास रहिये, हमें कृतार्थ कीजिए।’’
राजा लोगों की यह बात उसे मनोनुकूल नहीं लगी। वह मात्र आदमी ही नहीं था कि वह आवास, भोजन व अन्य सुख सुविधाएं मिल जाने से ही संतुष्ट रह जाता। उसका मिशन (ध्येय) भी तो था, जो कच्चे धागे से बांधकर उसे द्वार-द्वार भटका रहा था। उसका यह ध्येय था—चीन के लोगों में नैतिकता के प्रति दृढ़ आस्था उत्पन्न करना। अतः उसने सभी राजाओं से यही कहा—‘‘यह नहीं हो सकता महाराज! यदि मुझसे मेरे योग्य सेवा नहीं लेंगे तो मैं कैसे राजधन पर अपना निर्वाह करता रहूं यों ही अकर्मण्य बनकर।’’ और वह बिना राज्याश्रय के ही चीन देश में अपने सुविचारित नैतिक सिद्धान्तों को जन-जन को सुनाता रहा, उनकी उपयोगिता समझाता रहा। कालांतर में उसके यही उपदेश चीन का धर्म बन गए।
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि उसे भूखा रहना पड़ता था। उसके एक शिष्य ने उससे पूछा—‘‘गुरुदेव! ऐसे धर्म प्रचार से क्या लाभ?’’ इस पर वह बोला—‘‘प्रत्येक काम मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए नहीं करता और सच्चा मनुष्य तो ऐसा कभी नहीं करता। हमने भी सच्चे मनुष्य बनने की शपथ ली है। भूखों मरने से हमारी सच्चाई धूमिल होने वाली नहीं है वरन् वह तो कष्टों की आंच में तप कर खरा कुंदन बन जाने वाली है जिसे सभी को स्वीकार करना होगा। कष्ट सबके सामने आते हैं। जो अविचलित भाव से उनका स्वागत करते हैं, वे कष्टों को जीत लेते हैं। सच्चे आदमी ऐसे ही होते हैं।’’ और उसकी तपस्या, द्वार-द्वार, घर-घर जाकर अपने नैतिक सिद्धान्तों का प्रचार करने का, स्वेच्छा से अभावों को सिर ओढ़ने जैसा काम रंग लाया। उसके मरणोपरांत सारे चीन में करोड़ों लोग उसके अनुयायी बन गए और 1912 तक उसके द्वारा चलाया गया धर्म चीन का राजधर्म बना रहा। बौद्धधर्म के प्रसार के उपरांत भी उसके नैतिक सिद्धांतों के करोड़ों अनुयायी चीन में थे और आज भी करोड़ों लोगों की आस्थाएं उनमें है। यह व्यक्ति मनुष्य होता हुआ भी बाद में देवता मानकर पूजा गया। उसका नाम था कुंग फुत्ज जिसे हिन्दी में सामान्य तथा चीनी भाषा में कन्फ्यूशियस कहा जाता है।
बाल्यकाल से ही नियति ने उसकी परीक्षाएं लेना आरंभ कर दिया था। हइहत्सी प्रदेश के प्रशासक के वे अंतिम और इकलौते पुत्र थे। उनके पैदा होने के तीन वर्ष बाद ही उनके पिता का देहावसान हो गया। पिता की मृत्यु होते ही उनका पद दूसरे व्यक्ति को मिल गया। पिता धन के प्रति विशेष अनुरक्ति नहीं रखते थे। अतः उनके मरते ही परिवार पर आर्थिक संकट के बादल मंडराने लगे, अभावों की वर्षा होने लगी। किन्तु यदि उनके पिता धन-दौलत व भौतिक संपदा को छोड़ जाते तो बहुत संभव था वे उसी में फंस जाते और उनके द्वारा मानवता की कोई सेवा नहीं हो पाती और न आज उनका नाम ही कोई जानता। सद्गुणों और आदर्शवादिता को जो संपदा उन्हें पिता से विरासत में मिली थी वही उनकी प्रगति में सहायक बनी।
बाल्यावस्था में ही कुंग फुत्ज को आजीविका कमाना और परिवार का खर्च चलाना पड़ा। उनके मन में ज्ञान पाने की अदम्य तृष्णा थी। उन दिनों आज की तरह न तो पुस्तकें ही प्रचुरता से मिलती थीं, न इस प्रकार गांव-गांव में स्कूल होते थे। चीन भर में कोई थोड़े से गिने-चुने शिक्षालय थे। कुंग फुत्ज ने जीवन में बिखरी ज्ञान की मणि मुक्ताओं को यत्नपूर्वक बटोरा और उसे अपनी झोली में सहेजा।
प्रकृति से चिंतक और शिक्षक या साधु बनकर लोक शिक्षण करने की उनकी कामनाओं को देखकर उनकी माता को भय लगा कि कहीं वह विरागी न बन जाय। सो बारह वर्ष के होते ही उनके गले में पत्नी रूपी डोर बांध दी कि वे भाग खड़े न हों। उन्नीस के हुए तब तक तो वह डोर और भी कस गयी। दो लड़कियां भी उत्पन्न हो गयीं उनके। किन्तु परिवार का पालन करना एक बात है और अंधे मुर्गे की तरह परिवार की चक्की के चारों ओर चक्कर काटना दूसरी बात। परिवार समाज सेवा के काम में विशेष आड़े नहीं आता वरन् वह व्यक्ति का नियमन करता रहता है।
थोड़े दिनों सरकारी नौकरी करने के बाद उन्होंने अपना एक विद्यालय खोला। उस समय उनकी आयु 22 वर्ष की थी। इस विद्यालय में मात्र अक्षर ज्ञान की ही शिक्षा नहीं दी जाती थी वरन् सदाचार और सुशासन सिखाना उनका मुख्य लक्ष्य था। थोड़े ही दिनों में उनका एक विद्यालय बहुत प्रसिद्ध हो गया। वे गरीबों को निःशुल्क शिक्षा देते थे जबकि धनिकों से शुल्क लिया करते थे।
यह विद्यालय वास्तव में सद्विचारों के प्रसार का केन्द्र था और समाज सुधार का केन्द्र भी। वे तात्कालीन कुरीतियों का डटकर विरोध किया करते थे। वे उन्हीं नैतिक सिद्धान्तों को धर्म मानते थे जो चिरंतन थे, शाश्वत थे, समय के साथ उनमें कोई विकृति नहीं आती थी। सदाचार के उन्हीं नैतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन वे किया करते थे। उन्होंने इतिहास और दर्शन शास्त्र का गहराई से अध्ययन करने के पश्चात सदाचरण व सुशासन के जो नियम बनाए थे, वे बहुत लोकप्रिय हो गए। उन्हें सुयोग्य शिक्षक व प्रकाशक माना जाने लगा।
शिक्षक होते हुए भी उनके मन में अपने शिक्षक होने के प्रति कोई अहंभाव नहीं था। 34 वर्ष की आयु में जब लू प्रदेश के दो मेधावी युवक उनके शिष्य बने तो उन्हें नैतिक व प्रशासन संबंधी शिक्षा देने के साथ ही उनसे उन्होंने संगीत भी सीखा। संगीत को वे ईश्वर की बहुत बड़ी देन मानते थे।
कुंग फुत्ज ने जो उपदेश दिए वे ठोस व्यवहारिक धरातल पर टिके होने के कारण अधिक व्यावहारिक थे। कहने का तात्पर्य यह है कि उन्होंने धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक जोर दिया। समाज के व्यक्तियों द्वारा जिन नियमों को पालने से समाज में सुख, शांति, संतोष और स्वर्गीय वातावरण बने वे नियम ही उनके धर्म के आधार थे। प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि उसकी वस्तु कोई दूसरा गुपचुप या छीन कर न ले, इसलिए अस्तेय की उपयोगिता है। इसी प्रकार धर्म के अन्य सभी सिद्धान्तों को उन्होंने व्यावहारिक स्वरूप में प्रस्तुत किया। अतः वे शीघ्र प्रभावी हुए।
उनकी भेंट उनके समकालीन संत लाओत्से से भी हुई जो ताओ धर्म के प्रतिपादक थे। कुंग फुत्ज ने धर्म को मात्र सैद्धांतिक स्वरूप न देखकर उसे इसलिए व्यावहारिक बनाया ताकि समय के साथ उसमें विकृतियां न आ जांय और सम्प्रदायवादी विकृतियां उठी खड़ी हों, भिन्न-भिन्न मतावलंबी आपस में मार-काट मचाएं।
राज्य में उनका प्रभाव बढ़ रहा था। प्रदेश का राजा उनका बड़ा आदर करता था। तभी लू प्रदेश में क्रान्ति हो गयी। उन्हें कोत्सी राज्य के राजा के यहां शरण लेनी पड़ी। विद्रोहियों ने उन्हें परेशान किया पर वे अविचलित भाव से सब सहते रहे। वे जानते थे कि कोई भी अच्छा काम किया जाता है तो उसमें कष्ट-कठिनाइयां आती ही हैं। अब वे शिक्षालय का भार अपने योग्य शिष्यों के भरोसे छोड़कर धर्म, नैतिकता व सदाचरण के शाश्वत सिद्धान्तों का प्रचार करने निकल पड़े। उनके वाणी की ओज, व्यक्तित्व की प्रखरता और चरित्र की दृष्टि उनके इस धर्म प्रचार में बहुत सहायक रही। उनके पास शिक्षा लेने वालों का जमघट लगा रहता। उनके अनुयायियों की संख्या बहुत बढ़ गयी। उनके शिष्य उनके उपदेशों को लिपिबद्ध कर लिया करते थे।
बावन वर्ष की आयु में उन्हें लू राज्य के चुंग तू नगर का प्रकाशक बना दिया गया। उन्होंने इस नगर को प्रकाशन अपने सिद्धांतों के आधार पर चलाया जिससे नगर एक प्रकार से स्वर्ग ही बन गया। उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी, लोग उनके गुण गान करने लगे। सदाचरण और नैतिकता के पालन से ऐसा चमत्कार उन्होंने कर दिखाया जो अद्भुत था।
अपने नगर प्रशासन में उन्होंने रोगियों व दुर्बलों के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्थता की, साथ ही सबल व्यक्तियों के लिए काम करना अनिवार्य कर दिया। उन्होंने व्यापार को बढ़ावा दिया, सड़कों, पुलों का निर्माण कराया, सामंतों के अधिकार कम किए, न्याय की दृष्टि से गरीब-अमीर का भेदभाव नहीं बरता, चोर-डाकुओं का सफाया किया। फलतः नगर में अमन-चैन रहने लगा। यह देखकर लू प्रदेश का राजा उनका भक्त बन गया।
कुंग फुत्ज के इस बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कुछ ईर्ष्यालु दरबारी उनसे जलने लगे। उन्होंने राजा को सुन्दरियों से मोह पाश में बांधकर विलासी बना दिया। यह कुंग फुत्ज को बहुत बुरा लगा। उन्होंने राजा को सचेत भी किया किन्तु राजा पर तो बुराइयों ने विजय पा ली थी। निदान कुंग फुत्ज ने राजा पर दबाव डालने के लिए नगर के प्रशासक पद से इस्तीफा दे दिया। किन्तु राजा तो विलास के मदिरा में डूबा पड़ा था, उसने इस्तीफा स्वीकार कर लिया।
नगर के प्रशासक पद को त्याग कर वे पुनः धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। वे सोचते कि कहीं राज्याश्रय मिल जाय तो ठीक है ताकि वे किसी एक नगर को चुंग तू की तरह आदर्श बना सकें। किन्तु तेरह वर्ष तक ऐसा अवसर नहीं आया और वे घर-घर, द्वार-द्वार जाकर शाश्वत मानव धर्म का प्रचार करते रहे। जब वे सत्तर वर्ष के हुए तो लू राज्य के नये राजा ने उन्हें शासन के प्रशासन में सुधार करने के लिए आमंत्रित किया। चार वर्ष तक उन्होंने लू राज्य में लोगों को धर्माचरण सिखाया। उसके पश्चात 74 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया। श्रेय पथ पर चलकर जीते जी भी उन्हें खूब श्रद्धा, सम्मान मिला। मरने पर उन्हें देवता की तरह पूजा गया।
मनुष्य जीवन तो पानी का बुलबुला है। वह पैदा भी होता है और मर भी जाता है। किन्तु शाश्वत रहते हैं उसके कर्म और विचार। सद्विचार ही मनुष्य को सद्कर्मों के लिए प्रेरित करते हैं और सत्कर्म ही मनुष्य का मनुष्यत्व सिद्ध करते हैं। मनुष्य के विचार ही उसका वास्तविक स्वरूप होते हैं। वे विचार ही नये-नये मस्तिष्कों में घुसकर हृदय में प्रभाव जमा कर मनुष्य को देवता बना देते हैं और राक्षस भी। जैसे विचार होंगे मनुष्य वैसा ही बनता जाएगा।
कुंग फुत्ज का पार्थिव शरीर मर सकता था पर उनके विचार तो शाश्वत थे। आदमी की तरह विचारें को नहीं मारा जा सकता। ईसा को सूली पर टांग देने से ईसाइयत नहीं मरी। कुंग फुत्ज के दो सौ वर्ष पश्चात एक राजा ने उनके विचारों, उनकी शिक्षाओं को नष्ट कर देने का प्रयास किया। उनकी लिखी पुस्तकें, उनके उपदेशों व शिक्षाओं के संग्रह उसने जला दिए। जो लोग उनके अनुयायी थे और प्रचार करते थे उन्हें उसने मौत के घाट उतार दिया। फिर भी कुंग फुत्ज के विचार मरे नहीं, वे और जीवंत हो उठे। उनके उपदेश लोगों के मन, मस्तिष्क, हृदय, अंतःकरण में जीवित रहे। बाद के सम्राटों ने उन विचारों को स्वीकारा। कुंग फुत्ज के धर्म को मान्यता मिली, राज्याश्रय मिला और वह खूब फला फूला। आज भी चीन में करोड़ों व्यक्तियों को उनके उपदेश कंठस्थ हैं। यह है विचारों का अमृतत्व।
कुंग फुत्ज ने स्वयं केवल एक पुस्तक लिखी—‘बसंत और पतझड़’। इसमें 240 वर्ष का इतिहास लिखा है। उस इतिहास का वर्ण्य विषय मात्र घटनाएं या लोगों के विवरण ही नहीं हैं। ‘व्यक्ति कोई अच्छा कार्य करता है तो उसका स्वयं पर और समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और बुरा काम करता है तो वह समाज में दुःख फैलाने के साथ स्वयं अपना कितना अहित करता है।’ —इस तथ्य को बिना किसी आग्रह के इस पुस्तक में बताया है। इसे चीन के लोग बड़ा पवित्र मानते थे। आज भी करोड़ों लोगों की उस पर श्रद्धा है।
कुंग फुत्ज अपने विचारों के रूप में आज भी अमर हैं और यह अमरत्व मनुष्य जीवन में ही सुलभ होता है। अवसर खोने पर पछताना ही हाथ लगता है, हमें यह भूलना नहीं चाहिए।
(यु. नि. यो. मई 1974 से संकलित)
राजा लोगों की यह बात उसे मनोनुकूल नहीं लगी। वह मात्र आदमी ही नहीं था कि वह आवास, भोजन व अन्य सुख सुविधाएं मिल जाने से ही संतुष्ट रह जाता। उसका मिशन (ध्येय) भी तो था, जो कच्चे धागे से बांधकर उसे द्वार-द्वार भटका रहा था। उसका यह ध्येय था—चीन के लोगों में नैतिकता के प्रति दृढ़ आस्था उत्पन्न करना। अतः उसने सभी राजाओं से यही कहा—‘‘यह नहीं हो सकता महाराज! यदि मुझसे मेरे योग्य सेवा नहीं लेंगे तो मैं कैसे राजधन पर अपना निर्वाह करता रहूं यों ही अकर्मण्य बनकर।’’ और वह बिना राज्याश्रय के ही चीन देश में अपने सुविचारित नैतिक सिद्धान्तों को जन-जन को सुनाता रहा, उनकी उपयोगिता समझाता रहा। कालांतर में उसके यही उपदेश चीन का धर्म बन गए।
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि उसे भूखा रहना पड़ता था। उसके एक शिष्य ने उससे पूछा—‘‘गुरुदेव! ऐसे धर्म प्रचार से क्या लाभ?’’ इस पर वह बोला—‘‘प्रत्येक काम मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए नहीं करता और सच्चा मनुष्य तो ऐसा कभी नहीं करता। हमने भी सच्चे मनुष्य बनने की शपथ ली है। भूखों मरने से हमारी सच्चाई धूमिल होने वाली नहीं है वरन् वह तो कष्टों की आंच में तप कर खरा कुंदन बन जाने वाली है जिसे सभी को स्वीकार करना होगा। कष्ट सबके सामने आते हैं। जो अविचलित भाव से उनका स्वागत करते हैं, वे कष्टों को जीत लेते हैं। सच्चे आदमी ऐसे ही होते हैं।’’ और उसकी तपस्या, द्वार-द्वार, घर-घर जाकर अपने नैतिक सिद्धान्तों का प्रचार करने का, स्वेच्छा से अभावों को सिर ओढ़ने जैसा काम रंग लाया। उसके मरणोपरांत सारे चीन में करोड़ों लोग उसके अनुयायी बन गए और 1912 तक उसके द्वारा चलाया गया धर्म चीन का राजधर्म बना रहा। बौद्धधर्म के प्रसार के उपरांत भी उसके नैतिक सिद्धांतों के करोड़ों अनुयायी चीन में थे और आज भी करोड़ों लोगों की आस्थाएं उनमें है। यह व्यक्ति मनुष्य होता हुआ भी बाद में देवता मानकर पूजा गया। उसका नाम था कुंग फुत्ज जिसे हिन्दी में सामान्य तथा चीनी भाषा में कन्फ्यूशियस कहा जाता है।
बाल्यकाल से ही नियति ने उसकी परीक्षाएं लेना आरंभ कर दिया था। हइहत्सी प्रदेश के प्रशासक के वे अंतिम और इकलौते पुत्र थे। उनके पैदा होने के तीन वर्ष बाद ही उनके पिता का देहावसान हो गया। पिता की मृत्यु होते ही उनका पद दूसरे व्यक्ति को मिल गया। पिता धन के प्रति विशेष अनुरक्ति नहीं रखते थे। अतः उनके मरते ही परिवार पर आर्थिक संकट के बादल मंडराने लगे, अभावों की वर्षा होने लगी। किन्तु यदि उनके पिता धन-दौलत व भौतिक संपदा को छोड़ जाते तो बहुत संभव था वे उसी में फंस जाते और उनके द्वारा मानवता की कोई सेवा नहीं हो पाती और न आज उनका नाम ही कोई जानता। सद्गुणों और आदर्शवादिता को जो संपदा उन्हें पिता से विरासत में मिली थी वही उनकी प्रगति में सहायक बनी।
बाल्यावस्था में ही कुंग फुत्ज को आजीविका कमाना और परिवार का खर्च चलाना पड़ा। उनके मन में ज्ञान पाने की अदम्य तृष्णा थी। उन दिनों आज की तरह न तो पुस्तकें ही प्रचुरता से मिलती थीं, न इस प्रकार गांव-गांव में स्कूल होते थे। चीन भर में कोई थोड़े से गिने-चुने शिक्षालय थे। कुंग फुत्ज ने जीवन में बिखरी ज्ञान की मणि मुक्ताओं को यत्नपूर्वक बटोरा और उसे अपनी झोली में सहेजा।
प्रकृति से चिंतक और शिक्षक या साधु बनकर लोक शिक्षण करने की उनकी कामनाओं को देखकर उनकी माता को भय लगा कि कहीं वह विरागी न बन जाय। सो बारह वर्ष के होते ही उनके गले में पत्नी रूपी डोर बांध दी कि वे भाग खड़े न हों। उन्नीस के हुए तब तक तो वह डोर और भी कस गयी। दो लड़कियां भी उत्पन्न हो गयीं उनके। किन्तु परिवार का पालन करना एक बात है और अंधे मुर्गे की तरह परिवार की चक्की के चारों ओर चक्कर काटना दूसरी बात। परिवार समाज सेवा के काम में विशेष आड़े नहीं आता वरन् वह व्यक्ति का नियमन करता रहता है।
थोड़े दिनों सरकारी नौकरी करने के बाद उन्होंने अपना एक विद्यालय खोला। उस समय उनकी आयु 22 वर्ष की थी। इस विद्यालय में मात्र अक्षर ज्ञान की ही शिक्षा नहीं दी जाती थी वरन् सदाचार और सुशासन सिखाना उनका मुख्य लक्ष्य था। थोड़े ही दिनों में उनका एक विद्यालय बहुत प्रसिद्ध हो गया। वे गरीबों को निःशुल्क शिक्षा देते थे जबकि धनिकों से शुल्क लिया करते थे।
यह विद्यालय वास्तव में सद्विचारों के प्रसार का केन्द्र था और समाज सुधार का केन्द्र भी। वे तात्कालीन कुरीतियों का डटकर विरोध किया करते थे। वे उन्हीं नैतिक सिद्धान्तों को धर्म मानते थे जो चिरंतन थे, शाश्वत थे, समय के साथ उनमें कोई विकृति नहीं आती थी। सदाचार के उन्हीं नैतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन वे किया करते थे। उन्होंने इतिहास और दर्शन शास्त्र का गहराई से अध्ययन करने के पश्चात सदाचरण व सुशासन के जो नियम बनाए थे, वे बहुत लोकप्रिय हो गए। उन्हें सुयोग्य शिक्षक व प्रकाशक माना जाने लगा।
शिक्षक होते हुए भी उनके मन में अपने शिक्षक होने के प्रति कोई अहंभाव नहीं था। 34 वर्ष की आयु में जब लू प्रदेश के दो मेधावी युवक उनके शिष्य बने तो उन्हें नैतिक व प्रशासन संबंधी शिक्षा देने के साथ ही उनसे उन्होंने संगीत भी सीखा। संगीत को वे ईश्वर की बहुत बड़ी देन मानते थे।
कुंग फुत्ज ने जो उपदेश दिए वे ठोस व्यवहारिक धरातल पर टिके होने के कारण अधिक व्यावहारिक थे। कहने का तात्पर्य यह है कि उन्होंने धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक जोर दिया। समाज के व्यक्तियों द्वारा जिन नियमों को पालने से समाज में सुख, शांति, संतोष और स्वर्गीय वातावरण बने वे नियम ही उनके धर्म के आधार थे। प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि उसकी वस्तु कोई दूसरा गुपचुप या छीन कर न ले, इसलिए अस्तेय की उपयोगिता है। इसी प्रकार धर्म के अन्य सभी सिद्धान्तों को उन्होंने व्यावहारिक स्वरूप में प्रस्तुत किया। अतः वे शीघ्र प्रभावी हुए।
उनकी भेंट उनके समकालीन संत लाओत्से से भी हुई जो ताओ धर्म के प्रतिपादक थे। कुंग फुत्ज ने धर्म को मात्र सैद्धांतिक स्वरूप न देखकर उसे इसलिए व्यावहारिक बनाया ताकि समय के साथ उसमें विकृतियां न आ जांय और सम्प्रदायवादी विकृतियां उठी खड़ी हों, भिन्न-भिन्न मतावलंबी आपस में मार-काट मचाएं।
राज्य में उनका प्रभाव बढ़ रहा था। प्रदेश का राजा उनका बड़ा आदर करता था। तभी लू प्रदेश में क्रान्ति हो गयी। उन्हें कोत्सी राज्य के राजा के यहां शरण लेनी पड़ी। विद्रोहियों ने उन्हें परेशान किया पर वे अविचलित भाव से सब सहते रहे। वे जानते थे कि कोई भी अच्छा काम किया जाता है तो उसमें कष्ट-कठिनाइयां आती ही हैं। अब वे शिक्षालय का भार अपने योग्य शिष्यों के भरोसे छोड़कर धर्म, नैतिकता व सदाचरण के शाश्वत सिद्धान्तों का प्रचार करने निकल पड़े। उनके वाणी की ओज, व्यक्तित्व की प्रखरता और चरित्र की दृष्टि उनके इस धर्म प्रचार में बहुत सहायक रही। उनके पास शिक्षा लेने वालों का जमघट लगा रहता। उनके अनुयायियों की संख्या बहुत बढ़ गयी। उनके शिष्य उनके उपदेशों को लिपिबद्ध कर लिया करते थे।
बावन वर्ष की आयु में उन्हें लू राज्य के चुंग तू नगर का प्रकाशक बना दिया गया। उन्होंने इस नगर को प्रकाशन अपने सिद्धांतों के आधार पर चलाया जिससे नगर एक प्रकार से स्वर्ग ही बन गया। उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी, लोग उनके गुण गान करने लगे। सदाचरण और नैतिकता के पालन से ऐसा चमत्कार उन्होंने कर दिखाया जो अद्भुत था।
अपने नगर प्रशासन में उन्होंने रोगियों व दुर्बलों के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्थता की, साथ ही सबल व्यक्तियों के लिए काम करना अनिवार्य कर दिया। उन्होंने व्यापार को बढ़ावा दिया, सड़कों, पुलों का निर्माण कराया, सामंतों के अधिकार कम किए, न्याय की दृष्टि से गरीब-अमीर का भेदभाव नहीं बरता, चोर-डाकुओं का सफाया किया। फलतः नगर में अमन-चैन रहने लगा। यह देखकर लू प्रदेश का राजा उनका भक्त बन गया।
कुंग फुत्ज के इस बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कुछ ईर्ष्यालु दरबारी उनसे जलने लगे। उन्होंने राजा को सुन्दरियों से मोह पाश में बांधकर विलासी बना दिया। यह कुंग फुत्ज को बहुत बुरा लगा। उन्होंने राजा को सचेत भी किया किन्तु राजा पर तो बुराइयों ने विजय पा ली थी। निदान कुंग फुत्ज ने राजा पर दबाव डालने के लिए नगर के प्रशासक पद से इस्तीफा दे दिया। किन्तु राजा तो विलास के मदिरा में डूबा पड़ा था, उसने इस्तीफा स्वीकार कर लिया।
नगर के प्रशासक पद को त्याग कर वे पुनः धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। वे सोचते कि कहीं राज्याश्रय मिल जाय तो ठीक है ताकि वे किसी एक नगर को चुंग तू की तरह आदर्श बना सकें। किन्तु तेरह वर्ष तक ऐसा अवसर नहीं आया और वे घर-घर, द्वार-द्वार जाकर शाश्वत मानव धर्म का प्रचार करते रहे। जब वे सत्तर वर्ष के हुए तो लू राज्य के नये राजा ने उन्हें शासन के प्रशासन में सुधार करने के लिए आमंत्रित किया। चार वर्ष तक उन्होंने लू राज्य में लोगों को धर्माचरण सिखाया। उसके पश्चात 74 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया। श्रेय पथ पर चलकर जीते जी भी उन्हें खूब श्रद्धा, सम्मान मिला। मरने पर उन्हें देवता की तरह पूजा गया।
मनुष्य जीवन तो पानी का बुलबुला है। वह पैदा भी होता है और मर भी जाता है। किन्तु शाश्वत रहते हैं उसके कर्म और विचार। सद्विचार ही मनुष्य को सद्कर्मों के लिए प्रेरित करते हैं और सत्कर्म ही मनुष्य का मनुष्यत्व सिद्ध करते हैं। मनुष्य के विचार ही उसका वास्तविक स्वरूप होते हैं। वे विचार ही नये-नये मस्तिष्कों में घुसकर हृदय में प्रभाव जमा कर मनुष्य को देवता बना देते हैं और राक्षस भी। जैसे विचार होंगे मनुष्य वैसा ही बनता जाएगा।
कुंग फुत्ज का पार्थिव शरीर मर सकता था पर उनके विचार तो शाश्वत थे। आदमी की तरह विचारें को नहीं मारा जा सकता। ईसा को सूली पर टांग देने से ईसाइयत नहीं मरी। कुंग फुत्ज के दो सौ वर्ष पश्चात एक राजा ने उनके विचारों, उनकी शिक्षाओं को नष्ट कर देने का प्रयास किया। उनकी लिखी पुस्तकें, उनके उपदेशों व शिक्षाओं के संग्रह उसने जला दिए। जो लोग उनके अनुयायी थे और प्रचार करते थे उन्हें उसने मौत के घाट उतार दिया। फिर भी कुंग फुत्ज के विचार मरे नहीं, वे और जीवंत हो उठे। उनके उपदेश लोगों के मन, मस्तिष्क, हृदय, अंतःकरण में जीवित रहे। बाद के सम्राटों ने उन विचारों को स्वीकारा। कुंग फुत्ज के धर्म को मान्यता मिली, राज्याश्रय मिला और वह खूब फला फूला। आज भी चीन में करोड़ों व्यक्तियों को उनके उपदेश कंठस्थ हैं। यह है विचारों का अमृतत्व।
कुंग फुत्ज ने स्वयं केवल एक पुस्तक लिखी—‘बसंत और पतझड़’। इसमें 240 वर्ष का इतिहास लिखा है। उस इतिहास का वर्ण्य विषय मात्र घटनाएं या लोगों के विवरण ही नहीं हैं। ‘व्यक्ति कोई अच्छा कार्य करता है तो उसका स्वयं पर और समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और बुरा काम करता है तो वह समाज में दुःख फैलाने के साथ स्वयं अपना कितना अहित करता है।’ —इस तथ्य को बिना किसी आग्रह के इस पुस्तक में बताया है। इसे चीन के लोग बड़ा पवित्र मानते थे। आज भी करोड़ों लोगों की उस पर श्रद्धा है।
कुंग फुत्ज अपने विचारों के रूप में आज भी अमर हैं और यह अमरत्व मनुष्य जीवन में ही सुलभ होता है। अवसर खोने पर पछताना ही हाथ लगता है, हमें यह भूलना नहीं चाहिए।
(यु. नि. यो. मई 1974 से संकलित)