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Books - विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्रष्टा

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Language: HINDI
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मानवीय समता का प्रतिष्ठापक कार्ल मार्क्स

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First 6 8 Last
सन् 1848 का वर्ष यूरोप के निरंकुश शासकों के लिए बड़ा अमंगलकारी था। जन क्रांति की ज्वाला एक देश से दूसरे में फैलती जाती थी और एकाधिकार के बड़े-बड़े दुर्ग धराशायी हो जाते थे। फ्रांस में पुराने शासन को उलट दिया गया और उसकी जगह सामान्य जनता का अस्थायी शासन कायम हो गया। उधर बेल्जियम में भी साम्यवादी विचार वालों ने मध्यम वर्गीय नेताओं पर आक्रमण करके उनको अपमानित किया। इस झगड़े में मार्क्स का भी, जो उन दिनों अपने देश जर्मनी को त्यागकर बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स में रहता था, हानि उठानी पड़ी। अब तक वहां के अधिकारियों ने जर्मन सरकार के आपत्ति करने पर भी उसको अपने यहां रहने दिया था। पर इस घटना के बाद वे उससे डरने लगे और उसे गिरफ्तार करके देश निकाले का दंड दे दिया। उस समय उसके पास फ्रांस की अस्थायी सरकार के सदस्य ‘फर्डिनेंड फ्लोकन’ का पत्र आया, जिसमें लिखा था—‘‘वीर और विश्वस्त मार्क्स! अत्याचारियों ने तुमको देश निकाले की आज्ञा दी है। पर स्वाधीन फ्रांस तुम्हारे लिए अपना दरवाजा खोलता है, तुम्हारे लिए उन सब लोगों के लिए जो मनुष्य मात्र के उद्धार के पवित्र उद्देश्य के लिए लड़ रहे हैं। इस सम्बन्ध में फ्रांसीसी सरकार का प्रत्येक कर्मचारी अपना कर्तव्य भली-भांति समझता है। भ्रातृ-भाव पूर्वक नमस्कार।’’
मार्क्स पेरिस पहुंच गया और वहां की क्रांति में भी यथाशक्ति भाग लिया। पर उधर उसके घर जर्मनी में भी क्रांति की चिनगारियां अपना काम कर रहीं थीं। मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट लीग’ के जर्मन सदस्यों को प्रेरणा दी कि वे जर्मनी पहुंचकर क्रांति में भाग लें। फिर जब आग भड़कने का अवसर आया वह भी अपने सहयोगी रांजिल्स को लेकर राइनलैंड में चला गया और ‘न्यू राइनिंश जीटुंग’ नाम का एक दैनिक पत्र निकालने लगा। यह उस समय सबसे प्रभावशाली पत्र था, जिससे सरकार भी डरती थी। इसके सम्बन्ध में रांजिल्स ने, जो उसका सहकारी सम्पादक था, एक स्थान पर लिखा है—
‘‘उस समय यही एक ऐसा पत्र था जो श्रमजीवियों का पूर्ण रूप से समर्थन करता था। कुछ अन्य पत्रों ने उसके विरुद्ध बड़ा आन्दोलन किया, क्योंकि वह उन सभी बातों का विरोध करता था जिन्हें वे ‘पवित्र’ मानते थे। वह निरंकुश शासन-सत्ता का घोर विरोधी था चाहे वह सत्ता बादशाह की हो और चाहे पुलिस के एक सिपाही की। इन बातों को वह वहां रहकर लिखता था जहां छावनी में आठ हजार सिपाही सदा तैयार रहते थे। जर्मनी को केन्द्रीय न्याय विभाग उसके लेखों को बराबर गैर कानूनी करार देता रहता था और सरकारी वकील पर मुकदमा चलाने का जोर डालता रहता था। दो बार उस पर मुकदमा चलाया भी गया, पर जूरियों ने निर्दोष कह कर छोड़ दिया। अंत में जब केन्द्रिय सरकार की बहुत बड़ी सेना राइनलैंड में आ गयी और क्रांति पूरी तरह से दबा दी गयी तब सरकार इस पत्र को बंद करके का साहस कर सकी। इसकी अंतिम संख्या 18 मई 1849 में ‘रक्त-अंक’ के नाम से प्रकाशित हुई जो लाल रंग के कागज पर छपी थी।
‘न्यू राइनिंश जीटुंग’ को जीवित रखने के उद्योग में मार्क्स को अपना सर्वस्व स्वाहा कर देना पड़ा। यद्यपि यह बड़ा लोकप्रिय पत्र था और साल भर के भीतर ही इसकी ग्राहक संख्या काफी बढ़ गई थी, पर सरकार को दमन नीति का मुकाबला करने के कारण पत्र पर बहुत सा कर्ज हो गया। मार्क्स ने अपना सब कुछ बेचकर कर्जदारों का 15 हजार रुपया चुकाया। इसके बाद वह पेरिस पहुंचा, पर वहां देखा कि ‘लाल प्रजातंत्र’ के बजाय शासन में क्रांति विरोधी दल का बोलबाला हो गया है। तब वह लंदन चला आया और अपना शेष जीवन वहीं व्यतीत किया।
लंदन में मार्क्स लगभग इकत्तीस वर्ष की आयु में पहुंचा और चौंतीस वर्ष तक वहीं निवास करता रहा। इस बीच में जिस प्रकार भयंकर आर्थिक कष्ट सहन करते हुए उसने जनसेवा का कार्य जारी रखा, उसी से वह आज तक संसार के श्रमजीवियों का आराध्य बना हुआ है। उस समय वह कितना दरिद्र हो गया था इसका पता एक इसी बात से लग सकता है कि जब उसे अपने जर्मनी स्थित साथियों का समर्थन करने के लिए एक ट्रैक्ट निकालने की आवश्यकता हुई तो उसको अपना अंतिम कोट गिरवी रख कर कुछ रुपया प्राप्त करना पड़ा। सन् 1851 से 1860 तक मार्क्स की आमदनी का खास जरिया अमरीका से प्रकाशित होने वाले ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ के लिए लेख भेजना ही था। उसे प्रति लेख 15 रुपये मिलते थे। सन् 1862 में उसका आर्थिक कष्ट इतना बढ़ गया कि उसने रेलवे आफिस में क्लर्क की नौकरी के लिए दरख्वास्त दी। पर कितने ही बड़े लेखकों की तरह उसकी हस्तलिपि इतनी अस्पष्ट थी कि उसे नौकरी न मिल सकी। जिस महापुरुष के सम्मुख इस समय आधी दुनिया श्रद्धा से मस्तक झुकाती है, उसे पेट भरने के लिए क्लर्क की नौकरी भी न मिल सकी। इससे बड़ी विधि-विडंबना और क्या हो सकती है।
पर उस कठिन परिस्थितियों में भी वह अपने सिद्धान्तों पर कितनी अधिक निष्ठा रखता था, इसका पता एक अन्य घटना से लगता है। कुछ समय पश्चात् उसे जर्मनी के सरकारी पत्र का आर्थिक-संवाददाता बन जाने को कहलाया गया। इस काम में काफी आमदनी थी और उसका भयंकर अर्थ कष्ट और दरिद्रता पूर्ण रूप से दूर हो सकती थी। पर साथ ही इसका अर्थ यह भी था कि वह अपने प्राणों से प्यारे सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर सरकार का पथ समर्थन करने वाली बातें लिखे। मार्क्स ने जर्मन सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और वह सांसारिक सुखों के लिए अपनी आत्मा का खून करने को तैयार न हुआ। यह एक घटना मार्क्स को त्यागी और अपरिग्रही ऋषियों की कोटि में पहुंचाने को पर्याप्त है।
इस आपत्तिकाल में उसकी पत्नी ने जिस धैर्य और आत्मत्याग का परिचय दिया उससे प्रकट होता है वह सच्चे अर्थों में एक पतिव्रता थी। वह एक रईस घराने की पुत्री थी और उसका एक भाई उस समय जर्मनी के मंत्रिमंडल का सदस्य था। आयु में भी वह मार्क्स से कुछ बड़ी थी। पर घोर दरिद्रता या अर्थ कष्ट से घबड़ा कर उसने कभी मार्क्स की शिकायत न की, न अपने भाग्य को उसके साथ विवाह होने के कारण कोसा। वह स्वयं और घर के अन्य सब लोग मार्क्स का हार्दिक सम्मान करते थे और कभी किसी ने यह इच्छा प्रकट न की कि वह अपना प्रचार कार्य त्याग कर धन कमाने के लिए कोई दूसरा काम करे। वह सच्चे अर्थों में अपने पति की सहधर्मिणी थीं। वह सदा प्रसन्नचित्त रहती थी और ऐसी व्यवहार कुशल थी कि मार्क्स के समस्त इष्ट-मित्र और अनुयायी उसे बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे।
मार्क्स के छः संतानें हुईं जिनमें से तीन कन्यायें जीवित रहीं और दो लड़कों तथा एक लड़की का देहांत बचपन में ही हो गया। इनकी मृत्यु का एक बड़ा कारण मार्क्स की कंगाली भी थी। अगर इनकी सेवा-सुश्रूषा का ठीक प्रबंध होता और डाक्टरों के कहने के मुताबिक उचित इलाज किया जाता, तो संभवतः उनकी जीवन-लीला इस प्रकार अकाल में समाप्त न हो जाती।
यद्यपि मार्क्स एक भयंकर क्रांतिकारी समझा जाता था, जिसके नाम से यूरोप की शक्तिशाली सरकारें भी डरती थीं, पर व्यक्तिगत जीवन में वह बड़ी कोमल प्रकृति का और विनोद प्रिय था। छुट्टी के दिन शाम को जब वह अपने कुटुंबियों और मित्रों के साथ सैर करने को निकलता या दिल बहलाव के लिए गपशप करता तो उसकी चुटकियों और मजाक पर लोग खूब हंसा करते थे। उस समय किसी को यह ख्याल भी नहीं आता कि वह एक भयंकर क्रांतिकारी है। लंदन की गलियों में खेलने वाले गरीबों के बच्चे उसे ‘दादा मार्क्स’ कहते थे और वह राह चलते हुए सदा उनके साथ खेलने को तैयार रहता था। प्रसिद्ध कवि हेन ने, जो पेरिस में मार्क्स परिवार का सबसे अधिक घनिष्ठ मित्र था और जिसने एक बार घोर परिश्रम और सेवा करके मार्क्स के एक बच्चे की प्राण रक्षा की थी, लिखा है—‘‘मैं जितने मनुष्यों को जानता हूं, मार्क्स उन सब में कोमल और मीठी प्रकृति का व्यक्ति है।’’
पर इतनी कठिनाइयों और अभावग्रस्त हालात में रहते हुए भी मार्क्स अर्थशास्त्र और साम्यवाद के अध्ययन में जितना अधिक परिश्रम करता था उसे जानकर आश्चर्य होता है। लंदन पहुंचने पर दिन के समय तो उसे अक्सर अनेक सभाओं और सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना पड़ता था और कई घंटे वहां पर निकल जाते थे। इसलिए वह पढ़ने-लिखने का काम रात में करने लगा। धीरे-धीरे यह आदत यहां तक बढ़ गई कि वह सारी रात काम करता रहता और सुबह होने पर थोड़ी देर सो लेता। उसकी पत्नी ने इसका विरोध किया, पर उसने उसकी बात हंसी में उड़ा दी और समझा दिया कि उसे इस प्रकार काम करने की आदत है। पर प्रकृति के विरुद्ध चलने का फल उसे भोगना पड़ा। यद्यपि उसका शारीरिक संगठन जन्म से बहुत मजबूत था, पर इस असाधारण परिश्रम के कारण आठ-दस साल में ही उसके शरीर में अनेक रोग पैदा हो गए। डाक्टरों से सलाह लेने पर उन्होंने रात का पढ़ना-लिखना कतई बन्द कर देने और नित्य प्रति कुछ व्यायाम करने तथा दूर तक घूमने को कहा। इसके अनुसार चलने से उसका स्वास्थ्य सुधरने लगा। पर जैसे ही शक्ति कुछ बढ़ गई वह फिर रात को काम करने और अर्थशास्त्र के अध्ययन में अत्यधिक परिश्रम करने लगा। नतीजा यह हुआ कि वह फिर बीमार हो गया और डाक्टरों की शरण में जाना पड़ा। इसी प्रकार अधिक परिश्रम करने के कारण उसे बार-बार बीमार पड़ना पड़ता। जिस डॉक्टर ने अंतिम बीमारी में उसका इलाज किया, उसने कहा था कि अगर मार्क्स इस प्रकार शक्ति से बाहर काम न करता तो वह बहुत दिनों तक जिन्दा रह सकता था।
पर मार्क्स का यह असाधारण परिश्रम व्यर्थ न गया। उसका अमर ग्रन्थ ‘कैपिटल’ इसी परिश्रम का परिणाम है। अर्थशास्त्र और साम्यवाद के अध्ययन में उसने लंदन के जगत् विख्यात पुस्तकालय ‘ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी’ में सोलह-सोलह घंटे बैठकर इस संबंध के साहित्य को मथ डाला था। उस युग में अर्थशास्त्र और साम्यवाद पर उससे आधिक जानकारी रखने वाला विद्वान दूसरा न था। इसी ज्ञान के आधार पर उसने ‘कम्यूनिज्म’ के सिद्धान्तों को ऐसे सुदृढ़ आधार पर स्थापित किया कि वे आज तक दुनिया को हिला रहे हैं। उसका यह ‘कैपिटल’ ग्रंथ अभी तक ‘कम्यूनिज्म की बाइबिल’ के नाम से प्रसिद्ध है और श्रमजीवियों के विकास तथा अधिकारों का प्रतिपादन करने वाली सर्वोपरि रचना मानी जाती है। इस कई हजार पृष्ठों के महाग्रंथ की प्रशंसा करते हुए 14 मार्च 1883 को मार्क्स की मृत्यु हो जाने पर उसके परम मित्र एंजिल्स ने कहा था—
‘‘आज मनुष्य जाति एक बड़े महत्वपूर्ण मस्तिष्क से रहित हो गई। जिस प्रकार डार्विन ने जीव-जगत के सिद्धांत का पता लगाया था ठीक उसी प्रकार मार्क्स ने मानव इतिहास के विकास सम्बन्धी नियम की खोज की। यह नियम बिल्कुल सहज और स्वाभाविक है, पर तब तक यह आदर्शवाद के घटाटोप में छिपा हुआ था। मार्क्स ने ‘सामाजिक-प्रजातंत्रवाद’ को एक मत या सिद्धांत के बजाय एक जीवित सत्य बना दिया जो आज बिना हार माने युद्ध कर रहा है और अन्त में अवश्य विजयी होगा। मार्क्स ने अपनी समस्त योग्यता और शक्ति को मानव जाति के हितार्थ लगा दिया। वह स्वयं जन्म भर गरीबी और अभावग्रस्त दशा में रहा, पर उसने करोड़ों दीन-हीन लोगों के लिए उद्धार का रास्ता खोल दिया।’’
वास्तव में ऐसे ही परमार्थ में जीवन अर्पण करने वाले ऋषि और मुनि कहलाने के अधिकारी होते हैं। ‘कैपिटल’ के लिखने में यद्यपि मार्क्स ने अमानुषीय परिश्रम किया था और प्राणों की बाजी लगा दी थी, पर फिर भी साधनों के अभाव से जब वह अपने जीवन के अंतिम समय तक उसे पूरा प्रकाशित न करा सका तो वह बहुत दुःखी हुआ। जिस समय मार्क्स की मृत्यु हुई उन दिनों उसका प्रभाव इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी में बराबर बढ़ता जा रहा था और अनेक प्रसिद्ध साम्यवादी नेता उसके सिद्धांतों का प्रचार जोरों से करने लगे थे। मार्क्स के सिद्धान्तों के पक्ष या विपक्ष में अनेक संस्थाओं की स्थापना की जा रही थी। पर जिस महापुरुष के नाम पर ये सब कार्य किए जा रहे थे वह स्वयं बर्बाद हो चुका था। परिश्रम का दुनिया ने उसे कुछ भी पुरस्कार नहीं दिया।
(यु. नि. यो. सितंबर 1971 से संकलित)
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