
देवत्व के प्रबल प्रचारक महाकवि दांते
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कुछ महामानव ऐसे होते हैं जो अपने पार्थिव शरीरांत के पश्चात् भी विश्व मानव को अपने जीवन काल में दी गयी अनुपम देन के कारण अमरत्व पा जाते हैं। ऐसे ही महामानवों में इटली के विश्व विख्यात कवि दांते की गणना होती है। कुछ ही वर्षों पहले सन् 1965 में उनकी 700 वां जन्म दिवस मनाया गया था। उसके अमर महाकाव्य ‘डिवाइन कॉमेडी’ की एक भी प्रति जब तक विश्व में रहेगी, इस युग गायक का स्मरण बना रहेगा।दांते ही जन्मतिथि के बारे में कोई विशिष्ट सूत्र उपलब्ध नहीं है। फिर भी प्रति वर्ष इटली के सभी शिक्षण संस्थान 22 मई को ‘दांते दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इटली के फ्लोरेंस नगर को इस युग गायक को उत्पन्न करने का गौरव मिला। उनका जीवन फ्लोरेंस, वेरोना व रावेना नगरों के अंचल में व्यतीत हुआ। उनके जीवन की सरिता कष्ट व संघर्षों के बीहड़ दुर्गम गिरि-गह्वरों में व सुख-शांति के उर्वर शस्य श्यामल समतलों में भी समान गति से, समभाव से बही थी। उनकी कविता इन सांसारिक असमानताओं से ऊपर एक दैवी संदेश और मानवीय उच्च आदर्श के धरातल से नीचे नहीं उतरी। जीवन के कड़ुवे-मीठे अनुभवों का असर उसे छू नहीं सका।
जब उनका 700 वां जन्म दिवस मनाया गया उस अवसर पर सारे इटली में उन्हें पुष्पांजलियां-श्रद्धांजलियां अर्पित की गईं। उनके व्यक्तित्व व कर्तृत्व से जन-जन को परिचित कराने के लिए जन सभाएं आयोजित की गयीं, टेलीविजन प्रोग्राम रखे गए। किन्तु उसी व्यक्ति को जिसे सात सौ वर्ष बाद भी उसके देशवासी भूले नहीं थे, अपने जीवन में सत्य व न्याय का पक्ष लेने के कारण लंबी अवधि तक कारावास की यंत्रणाएं भोगनी पड़ीं थीं। फ्लोरेंस वासियों ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया- इसकी स्मृति को स्थायी बनाने के लिए रेवेना वासियों ने उनके शव को फ्लोरेंस के होली क्रास चर्च स्थित उसकी कब्र से निकाल कर अपने नगर में दफनाया। उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किए गए किन्तु दांते विषपायी भगवान शंकर की तरह फ्लोरेंस वासियों के द्वारा दी गई उन यंत्रणाओं को निर्लिप्त भाव से सहन करते गए। उन्होंने आने वाली पीढ़ियों से सामने यह आदर्श रखा कि लोग मंगल के पथ पर चलने वालों को जीते जी ही सम्मान मिल जाय, उन्हें अभिनंदनीय मान लिया जाय यह आवश्यक नहीं। यह सब व्यक्तित्व की धार को कुंठित कर देने वाले ही सिद्ध होते। सच्चे लोकसेवी को इनकी चाह व जन उपेक्षा और असम्मान की परवाह नहीं रखनी चाहिए।
दांते को इतालवी भाषा का जनक तथा इतालवी साहित्य को नवीन दिशा देने वाले महान साहित्यकार का ऐतिहासिक गौरव मिला है। यद्यपि वे मध्य युगीन साहित्यकार थे फिर भी वर्तमान युग से सर्वथा अछूते, आदर्शोन्मुख साहित्य का सृजन करते हुए वे वर्तमान साहित्यकारों से बहुत ऊंचे लगते हैं। उनका सृजन वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ी को बहुत कुछ दे सकता है। अपने महाकाव्य ‘डिवाइन कॉमेडी’ के कारण वे इटली में ही नहीं सारे विश्व में सम्मान के पात्र बन गये हैं। इस ग्रन्थ का पचास से भी अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। सुखांत होने के कारण उन्होंने इसका नाम ‘कॉमेडी’ रखा था। बाद में एक प्रकाशक ने उसे दैवी संपदाओं से परिपूर्ण देखकर उसके साथ ‘डिवाइन’ और जोड़ दिया। वस्तुतः यह रचना मनुष्य को देवत्व की ओर अग्रसर करने की महान शक्ति के कारण ही लोकप्रिय हुई है।
इस महाकाव्य में कवि ने स्पष्ट संकेत किया है कि मनुष्य बाह्य जगत की भूल-भुलैया में ही फंस कर न रह जाय। उसे अपने भीतर के ओर भी देखना चाहिए नहीं तो यह मनुष्य जीवन निरर्थक ही चला जायेगा। अपने अंतःकरण में निवास करने वाली दैवी चेतना के निर्देशों को सुनता हुआ वह पापों से विमुख हो और पुण्य लाभ करता चले। पाप और स्वार्थ से ऊपर उठकर विश्व मानव रूपी परमात्मा की सेवा में अपनी ईश्वरीय विभूतियों का नियोजन करता चले। विश्व-बंधुत्व व शांति जैसी उच्च मान्यताओं को समावेश यूरोपीय साहित्य में दांते ने ही सर्वप्रथम किया था। कई आलोचक उन्हें ‘प्रथम यूरोपीय’ इसी कारण कहते हैं।
दांते एलीगरी के माता-पिता समृद्ध थे। अभिजात्य वर्ग में उत्पन्न होने पर भी दांते उन दोषों से सर्वथा मुक्त थे जो कुलीनता व सम्पन्नता के कारण अन्य लोगों में उत्पन्न हो जाते हैं। वे धन तथा प्रतिभा को दैवी सम्पदाएं मानते थे। उनका यह दृष्टिकोण अंतःकरण में उठने वाली सद्प्रेरणाओं के कारण ही बना था। उन्होंने अपने जीवन के आरंभ से ही इस सत्य को जान लिया था कि मनुष्य जीवन में ही सर्वाधिक लोकहित किया जा सकता है। इस शुभ कार्य में जितना जल्दी प्रवृत्त हुआ जा सके उतना ही उत्तम है। अतः उन्होंने अपनी युवावस्था में ही अपनी कवित्व शक्ति, जिसे वे ईश्वरीय वरदान मानते थे, का सदुपयोग लोकहित में करना आरंभ कर दिया।
यौवन के आरंभ में ही जबकि सामान्य युवक प्रेस व सम्पन्नता की ओर ही ललचायी हुई दृष्टि से देखते हैं, उन्हें उन पर दृष्टि डालने की फुर्सत ही नहीं होती। दांते ने एक ऐसे महाकाव्य की रचना का स्वप्न देखा जो युगों-युगों तक मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा-प्रकाश देता रह सके। वे अपने इस स्वप्न की बात अपने युवा साथियों से कहते तो लोग उनका मजाक उड़ाते—‘‘कैसा पागल है दांते भी! जवानी बार-बार नहीं आती, उसका रस लूटने के बजाय यह साधु-संन्यासियों की सी दार्शनिकता में फंसा हुआ है।’’ वे अपने समवयस्क साथियों की इस उक्ति पर मुस्कराकर कह उठते—‘‘तुम ठीक कहते हो दोस्तों! जवानी बार बार नहीं आती। शरीर मन और आत्मा से फूटता बसंत, यह यौवन क्षणिक शारीरिक सुखों के पीछे भागने में गंवाना श्रेयस्कर नहीं। उसे तो किसी महत्वपूर्ण उद्देश्य को पूरा करने में ही नियोजित करना चाहिए।’’
युवावस्था में ही उन्होंने अपने उस अपेक्षित महाकाव्य की रचना आरम्भ कर दी। अपने पूरे श्रम, मनोयोग व प्रतिभा की त्रिवेणी उन्होंने निरंतर बीस वर्षों तक बहायी तब कहीं जाकर यह महाकाव्य पूरा हुआ। दांते केवल विचारों और भावनाओं के ही धनी नहीं थे। वे कर्म के धनी भी थे। कई लोग कल्पनाएं तो ऊंची-ऊंची करते हैं, स्वप्न तो लंबे-चौड़े देखते हैं किन्तु असफलताओं के भय से उन्हें कार्य रूप में परिणत करने का साहस नहीं करते। कुछ लोग आवेश में काम तो आरंभ कर देते हैं किन्तु कर्मनिष्ठ नहीं होने के कारण थोड़े ही दिनों में ढीले पड़ जाते हैं। इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों की कामनाएं शेखचिल्ली के स्वप्न बनकर ही रह जाती हैं। दांते इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों में से नहीं थे। सद्विचार और सत्कर्म दोनों में ही उनकी समान रूप से गति थी। अतः वे अपने महान लक्ष्य को पूरा कर सकने में सफल हुए। प्रत्येक संकल्पवान के लिए यही मार्ग अपनाना लाभकारी है। जिन्होंने इस तथ्य को समझ लिया सफलता उनके करतलगत हो जाती है।
किसी संकल्प की पूर्ति के लिए साधना की जाती है उसे तप कहा जा सकता है। तप के बिना कार्य सिद्धि संभव नहीं होती। तपोबल मनुष्य की उच्च शक्तियों में से एक होती है। इस शक्ति को उन्होंने अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित किया तो उनकी रचना अनुपम बन गयी। महाकाव्य की स्याही भी नहीं सूखी थी कि उन्हें प्रकाशक भी मिल गया। अपनी उदात्तता, गेयता व यथार्थ वर्णन के कारण यह महाकाव्य इतना सुन्दर बन गया था कि कथानक पाठकों को एक सत्य घटना लगने लगा था।
सर्वप्रथम ‘डिवाइन कॉमेडी’ की पांच सौ हस्तलिखित प्रतियां प्रकाशित की गयी थीं। जिसने इन्हें पढ़ा उसके ही मुंह से निकला—‘‘आज तक ऐसी रचना नहीं रची गयी। यह अपूर्व है, अनुपम है।’’ यह हृदय की गहराइयों से निकली कविता जन-जन के हृदय का आंदोलित करने में सक्षम थी। उसमें यत्र-तत्र आत्म चेतना के अपूर्व निवेदन भरे पड़े थे जो मानवीय गौरव-गरिमा को पाने के लिए एक ललक पाठक के हृदय में उत्पन्न कर देते थे। इसकी लोकप्रियता बढ़ती ही गयी। पहला संस्करण हाथों-हाथ बिक गया। अगली बार दुगुनी संख्या में प्रकाशन करना पड़ा।
आज सात सौ वर्ष बाद भी हजारों इटली निवासी दांते की पूजा करते हैं। उनके हृदय में इस महाकवि के प्रति अपार श्रद्धा है। आज भी ‘डिवाइन कॉमेडी’ के बीसों संस्करण इटली में उपलब्ध है। इसकी प्रतिवर्ष 80,000 से भी अधिक प्रतियां बिक जाती हैं। फ्लोरेंस नगर की जिन सड़कों पर कभी दांते गुजरता था वहां अब संगमरमर के स्तंभों पर उसकी कविताएं अंकित की गयी हैं। यदि दांते भी अपने यौवन को अपने समवयस्कों की तरह ही गंवा देते तो आज उन्हें इतना सम्मान नहीं मिलता और न विश्व को यह अनुपम महाकाव्य ही।
दांते ने ‘डिवाइन कॉमेडी’ के अतिरिक्त अन्य कई काव्य ग्रन्थों की रचना की भी रचना की। यों उन्हें अमरत्व प्रदान करने के लिए यह एक महाकाव्य ही पर्याप्त है। वह सामान्य जन की भाषा के समर्थक थे। लैटिन धनवानों, पंडितों व साहित्यकारों की भाषा भर थी, इटली के सामान्य जन की भाषा नहीं। लैटिन में लिखे गए साहित्य का लाभ सामान्य जनता को नहीं मिलता था। अतः उन्होंने सामान्य जन भाषा को साहित्य का माध्यम बनाया।
विचारों से दांते सुधारवादी व क्रांतिकारी थे। स्वयं अभिजात्य वर्ग से संबंधित होते हुए भी वे मध्यम वर्ग के हितों के पक्षधर थे। अपनी इसी क्रान्तिकारी विचारधारा के कारण उन्हें फ्लोरेंस छोड़ना पड़ा था। फ्लोरेंस में उन दिनों अभिजात्य वर्ग व मध्यम वर्ग के बीच वैचारिक संघर्ष चल रहा था। मध्यम वर्ग के समर्थक होने के कारण उन्हें सत्ताधीशों का कोप भाजन बनकर फ्लोरेंस से निर्वासित हो रेवेना में आश्रय लेना पड़ा था।
वे कवि ही नहीं योद्धा भी थे। उनकी जन्मभूमि फ्लोरेंस पर जब दूसरे नगरवासियों ने आक्रमण किया तो उन्होंने कलम छोड़कर तलवार भी थामी तथा युद्ध कौशल दिखाया।
नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण बड़ा ही पवित्र व उदात्त था। वे उसे पूजा की पात्री मानते थे। ‘नारी का जहां आदर नहीं होता वह समाज पतन की ओर आता है’ —वे इसी विचारधारा के मानने वाले थे। उन्होंने अपने काव्य में नारी को मां के रूप में, मातृशक्ति के रूप में ही अवतरित किया है। उनके पहले नारी मांसल सौन्दर्य को कविता की विषयवस्तु बना दिया गया था। उसका उन्होंने डटकर विरोध किया। उन्होंने कहा कि नारी भोग्या नहीं, वह तो पूजनीया है। उन्होंने अपने महाकाव्य में स्वर्ग की पथ प्रदर्शिका के रूप में नारी पात्र को इसीलिए चुना।
अपनी क्रांतिकारी विचारधारा के कारण दांते को अपने जीवन का आधे से भी अधिक भाग निर्वासन में व्यतीत करना पड़ा था। फ्लोरेंस में अभिजात्य वर्ग की प्रभुसत्ता होने के कारण दांते को कई कष्ट-कठिनाइयां सहनी पड़ी थी। उनके घर को जला दिया गया था। उन पर जुर्माने की मोटी रकम लगायी गयी थी। निर्वासन काल में ही उनकी ‘डिवाइन कॉमेडी’ का अधिकांश भाग पूरा हुआ था। फ्लोरेंस वासियों के इस व्यवहार से वे खिन्न तो हुए किन्तु अपने उद्देश्य से विमुख नहीं हुए।
उनका पारिवारिक जीवन सुखी व सम्पन्न बीता। अपनी पत्नी और बच्चों के निर्वाह व भरण-पोषण का दायित्व वे निर्वासन काल में भी वहन करते रहे थे। कहा जाता है कवि इन दायित्वों से प्रायः विमुख रहते हैं किन्तु दांते में यह प्रवृत्ति नहीं थी।
छप्पन वर्ष की आयु में ही उनका देहावसान हो गया। किन्तु वे आज भी अपनी ‘डिवाइन कॉमेडी’ के माध्यम से अमर हैं और कवियों व सामान्य जन को अपने व्यक्तित्व व कर्तृत्व के द्वारा दिशा दे रहे हैं।
(यु. नि. यो. अक्टूबर 1973 से संकलित)
जब उनका 700 वां जन्म दिवस मनाया गया उस अवसर पर सारे इटली में उन्हें पुष्पांजलियां-श्रद्धांजलियां अर्पित की गईं। उनके व्यक्तित्व व कर्तृत्व से जन-जन को परिचित कराने के लिए जन सभाएं आयोजित की गयीं, टेलीविजन प्रोग्राम रखे गए। किन्तु उसी व्यक्ति को जिसे सात सौ वर्ष बाद भी उसके देशवासी भूले नहीं थे, अपने जीवन में सत्य व न्याय का पक्ष लेने के कारण लंबी अवधि तक कारावास की यंत्रणाएं भोगनी पड़ीं थीं। फ्लोरेंस वासियों ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया- इसकी स्मृति को स्थायी बनाने के लिए रेवेना वासियों ने उनके शव को फ्लोरेंस के होली क्रास चर्च स्थित उसकी कब्र से निकाल कर अपने नगर में दफनाया। उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किए गए किन्तु दांते विषपायी भगवान शंकर की तरह फ्लोरेंस वासियों के द्वारा दी गई उन यंत्रणाओं को निर्लिप्त भाव से सहन करते गए। उन्होंने आने वाली पीढ़ियों से सामने यह आदर्श रखा कि लोग मंगल के पथ पर चलने वालों को जीते जी ही सम्मान मिल जाय, उन्हें अभिनंदनीय मान लिया जाय यह आवश्यक नहीं। यह सब व्यक्तित्व की धार को कुंठित कर देने वाले ही सिद्ध होते। सच्चे लोकसेवी को इनकी चाह व जन उपेक्षा और असम्मान की परवाह नहीं रखनी चाहिए।
दांते को इतालवी भाषा का जनक तथा इतालवी साहित्य को नवीन दिशा देने वाले महान साहित्यकार का ऐतिहासिक गौरव मिला है। यद्यपि वे मध्य युगीन साहित्यकार थे फिर भी वर्तमान युग से सर्वथा अछूते, आदर्शोन्मुख साहित्य का सृजन करते हुए वे वर्तमान साहित्यकारों से बहुत ऊंचे लगते हैं। उनका सृजन वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ी को बहुत कुछ दे सकता है। अपने महाकाव्य ‘डिवाइन कॉमेडी’ के कारण वे इटली में ही नहीं सारे विश्व में सम्मान के पात्र बन गये हैं। इस ग्रन्थ का पचास से भी अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। सुखांत होने के कारण उन्होंने इसका नाम ‘कॉमेडी’ रखा था। बाद में एक प्रकाशक ने उसे दैवी संपदाओं से परिपूर्ण देखकर उसके साथ ‘डिवाइन’ और जोड़ दिया। वस्तुतः यह रचना मनुष्य को देवत्व की ओर अग्रसर करने की महान शक्ति के कारण ही लोकप्रिय हुई है।
इस महाकाव्य में कवि ने स्पष्ट संकेत किया है कि मनुष्य बाह्य जगत की भूल-भुलैया में ही फंस कर न रह जाय। उसे अपने भीतर के ओर भी देखना चाहिए नहीं तो यह मनुष्य जीवन निरर्थक ही चला जायेगा। अपने अंतःकरण में निवास करने वाली दैवी चेतना के निर्देशों को सुनता हुआ वह पापों से विमुख हो और पुण्य लाभ करता चले। पाप और स्वार्थ से ऊपर उठकर विश्व मानव रूपी परमात्मा की सेवा में अपनी ईश्वरीय विभूतियों का नियोजन करता चले। विश्व-बंधुत्व व शांति जैसी उच्च मान्यताओं को समावेश यूरोपीय साहित्य में दांते ने ही सर्वप्रथम किया था। कई आलोचक उन्हें ‘प्रथम यूरोपीय’ इसी कारण कहते हैं।
दांते एलीगरी के माता-पिता समृद्ध थे। अभिजात्य वर्ग में उत्पन्न होने पर भी दांते उन दोषों से सर्वथा मुक्त थे जो कुलीनता व सम्पन्नता के कारण अन्य लोगों में उत्पन्न हो जाते हैं। वे धन तथा प्रतिभा को दैवी सम्पदाएं मानते थे। उनका यह दृष्टिकोण अंतःकरण में उठने वाली सद्प्रेरणाओं के कारण ही बना था। उन्होंने अपने जीवन के आरंभ से ही इस सत्य को जान लिया था कि मनुष्य जीवन में ही सर्वाधिक लोकहित किया जा सकता है। इस शुभ कार्य में जितना जल्दी प्रवृत्त हुआ जा सके उतना ही उत्तम है। अतः उन्होंने अपनी युवावस्था में ही अपनी कवित्व शक्ति, जिसे वे ईश्वरीय वरदान मानते थे, का सदुपयोग लोकहित में करना आरंभ कर दिया।
यौवन के आरंभ में ही जबकि सामान्य युवक प्रेस व सम्पन्नता की ओर ही ललचायी हुई दृष्टि से देखते हैं, उन्हें उन पर दृष्टि डालने की फुर्सत ही नहीं होती। दांते ने एक ऐसे महाकाव्य की रचना का स्वप्न देखा जो युगों-युगों तक मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा-प्रकाश देता रह सके। वे अपने इस स्वप्न की बात अपने युवा साथियों से कहते तो लोग उनका मजाक उड़ाते—‘‘कैसा पागल है दांते भी! जवानी बार-बार नहीं आती, उसका रस लूटने के बजाय यह साधु-संन्यासियों की सी दार्शनिकता में फंसा हुआ है।’’ वे अपने समवयस्क साथियों की इस उक्ति पर मुस्कराकर कह उठते—‘‘तुम ठीक कहते हो दोस्तों! जवानी बार बार नहीं आती। शरीर मन और आत्मा से फूटता बसंत, यह यौवन क्षणिक शारीरिक सुखों के पीछे भागने में गंवाना श्रेयस्कर नहीं। उसे तो किसी महत्वपूर्ण उद्देश्य को पूरा करने में ही नियोजित करना चाहिए।’’
युवावस्था में ही उन्होंने अपने उस अपेक्षित महाकाव्य की रचना आरम्भ कर दी। अपने पूरे श्रम, मनोयोग व प्रतिभा की त्रिवेणी उन्होंने निरंतर बीस वर्षों तक बहायी तब कहीं जाकर यह महाकाव्य पूरा हुआ। दांते केवल विचारों और भावनाओं के ही धनी नहीं थे। वे कर्म के धनी भी थे। कई लोग कल्पनाएं तो ऊंची-ऊंची करते हैं, स्वप्न तो लंबे-चौड़े देखते हैं किन्तु असफलताओं के भय से उन्हें कार्य रूप में परिणत करने का साहस नहीं करते। कुछ लोग आवेश में काम तो आरंभ कर देते हैं किन्तु कर्मनिष्ठ नहीं होने के कारण थोड़े ही दिनों में ढीले पड़ जाते हैं। इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों की कामनाएं शेखचिल्ली के स्वप्न बनकर ही रह जाती हैं। दांते इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों में से नहीं थे। सद्विचार और सत्कर्म दोनों में ही उनकी समान रूप से गति थी। अतः वे अपने महान लक्ष्य को पूरा कर सकने में सफल हुए। प्रत्येक संकल्पवान के लिए यही मार्ग अपनाना लाभकारी है। जिन्होंने इस तथ्य को समझ लिया सफलता उनके करतलगत हो जाती है।
किसी संकल्प की पूर्ति के लिए साधना की जाती है उसे तप कहा जा सकता है। तप के बिना कार्य सिद्धि संभव नहीं होती। तपोबल मनुष्य की उच्च शक्तियों में से एक होती है। इस शक्ति को उन्होंने अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित किया तो उनकी रचना अनुपम बन गयी। महाकाव्य की स्याही भी नहीं सूखी थी कि उन्हें प्रकाशक भी मिल गया। अपनी उदात्तता, गेयता व यथार्थ वर्णन के कारण यह महाकाव्य इतना सुन्दर बन गया था कि कथानक पाठकों को एक सत्य घटना लगने लगा था।
सर्वप्रथम ‘डिवाइन कॉमेडी’ की पांच सौ हस्तलिखित प्रतियां प्रकाशित की गयी थीं। जिसने इन्हें पढ़ा उसके ही मुंह से निकला—‘‘आज तक ऐसी रचना नहीं रची गयी। यह अपूर्व है, अनुपम है।’’ यह हृदय की गहराइयों से निकली कविता जन-जन के हृदय का आंदोलित करने में सक्षम थी। उसमें यत्र-तत्र आत्म चेतना के अपूर्व निवेदन भरे पड़े थे जो मानवीय गौरव-गरिमा को पाने के लिए एक ललक पाठक के हृदय में उत्पन्न कर देते थे। इसकी लोकप्रियता बढ़ती ही गयी। पहला संस्करण हाथों-हाथ बिक गया। अगली बार दुगुनी संख्या में प्रकाशन करना पड़ा।
आज सात सौ वर्ष बाद भी हजारों इटली निवासी दांते की पूजा करते हैं। उनके हृदय में इस महाकवि के प्रति अपार श्रद्धा है। आज भी ‘डिवाइन कॉमेडी’ के बीसों संस्करण इटली में उपलब्ध है। इसकी प्रतिवर्ष 80,000 से भी अधिक प्रतियां बिक जाती हैं। फ्लोरेंस नगर की जिन सड़कों पर कभी दांते गुजरता था वहां अब संगमरमर के स्तंभों पर उसकी कविताएं अंकित की गयी हैं। यदि दांते भी अपने यौवन को अपने समवयस्कों की तरह ही गंवा देते तो आज उन्हें इतना सम्मान नहीं मिलता और न विश्व को यह अनुपम महाकाव्य ही।
दांते ने ‘डिवाइन कॉमेडी’ के अतिरिक्त अन्य कई काव्य ग्रन्थों की रचना की भी रचना की। यों उन्हें अमरत्व प्रदान करने के लिए यह एक महाकाव्य ही पर्याप्त है। वह सामान्य जन की भाषा के समर्थक थे। लैटिन धनवानों, पंडितों व साहित्यकारों की भाषा भर थी, इटली के सामान्य जन की भाषा नहीं। लैटिन में लिखे गए साहित्य का लाभ सामान्य जनता को नहीं मिलता था। अतः उन्होंने सामान्य जन भाषा को साहित्य का माध्यम बनाया।
विचारों से दांते सुधारवादी व क्रांतिकारी थे। स्वयं अभिजात्य वर्ग से संबंधित होते हुए भी वे मध्यम वर्ग के हितों के पक्षधर थे। अपनी इसी क्रान्तिकारी विचारधारा के कारण उन्हें फ्लोरेंस छोड़ना पड़ा था। फ्लोरेंस में उन दिनों अभिजात्य वर्ग व मध्यम वर्ग के बीच वैचारिक संघर्ष चल रहा था। मध्यम वर्ग के समर्थक होने के कारण उन्हें सत्ताधीशों का कोप भाजन बनकर फ्लोरेंस से निर्वासित हो रेवेना में आश्रय लेना पड़ा था।
वे कवि ही नहीं योद्धा भी थे। उनकी जन्मभूमि फ्लोरेंस पर जब दूसरे नगरवासियों ने आक्रमण किया तो उन्होंने कलम छोड़कर तलवार भी थामी तथा युद्ध कौशल दिखाया।
नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण बड़ा ही पवित्र व उदात्त था। वे उसे पूजा की पात्री मानते थे। ‘नारी का जहां आदर नहीं होता वह समाज पतन की ओर आता है’ —वे इसी विचारधारा के मानने वाले थे। उन्होंने अपने काव्य में नारी को मां के रूप में, मातृशक्ति के रूप में ही अवतरित किया है। उनके पहले नारी मांसल सौन्दर्य को कविता की विषयवस्तु बना दिया गया था। उसका उन्होंने डटकर विरोध किया। उन्होंने कहा कि नारी भोग्या नहीं, वह तो पूजनीया है। उन्होंने अपने महाकाव्य में स्वर्ग की पथ प्रदर्शिका के रूप में नारी पात्र को इसीलिए चुना।
अपनी क्रांतिकारी विचारधारा के कारण दांते को अपने जीवन का आधे से भी अधिक भाग निर्वासन में व्यतीत करना पड़ा था। फ्लोरेंस में अभिजात्य वर्ग की प्रभुसत्ता होने के कारण दांते को कई कष्ट-कठिनाइयां सहनी पड़ी थी। उनके घर को जला दिया गया था। उन पर जुर्माने की मोटी रकम लगायी गयी थी। निर्वासन काल में ही उनकी ‘डिवाइन कॉमेडी’ का अधिकांश भाग पूरा हुआ था। फ्लोरेंस वासियों के इस व्यवहार से वे खिन्न तो हुए किन्तु अपने उद्देश्य से विमुख नहीं हुए।
उनका पारिवारिक जीवन सुखी व सम्पन्न बीता। अपनी पत्नी और बच्चों के निर्वाह व भरण-पोषण का दायित्व वे निर्वासन काल में भी वहन करते रहे थे। कहा जाता है कवि इन दायित्वों से प्रायः विमुख रहते हैं किन्तु दांते में यह प्रवृत्ति नहीं थी।
छप्पन वर्ष की आयु में ही उनका देहावसान हो गया। किन्तु वे आज भी अपनी ‘डिवाइन कॉमेडी’ के माध्यम से अमर हैं और कवियों व सामान्य जन को अपने व्यक्तित्व व कर्तृत्व के द्वारा दिशा दे रहे हैं।
(यु. नि. यो. अक्टूबर 1973 से संकलित)