
आजीवन संघर्षरत प्रजा पुत्र मैक्सिम गोर्की
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
‘‘एक छोटे से अंधेरे कमरे में, खिड़की के नीचे फर्श पर पड़े थे मेरे पिता। उनका कद बहुत लम्बा था, कपड़े सबके सब सफेद थे। पांवों की अंगुलियां सब ऐंठकर फैल गयी थीं। हाथों की अंगुलियां भी ऐसी ही ऐंठ गयी थीं। हाथ छाती पर एक दूसरे के ऊपर तिरछे पड़े थे। उनका शांत प्यारा चेहरा निर्जीव था लेकिन भींची हुई दांतों की चमक को देखकर डर लगता था और मेरी नानी ने मुझसे कहा—अपने पिता से विदा ले लो। तुम उन्हें कभी नहीं देख पाओगे’’ —मैक्सिम गोर्की के इन शब्दों में उनके बाल्यकाल की उस घटना का चित्रण है, जो उन्हें सचमुच ही व्यथित कर गयी।यों जन्म से ही ‘सुख-सुविधायें’ क्या होती हैं—उन्होंने जाना नहीं था। जिस समय वे जन्मे, पिता बेरोजगार, माता निराश्रित और उनका स्वयं का जीवन अंधकारमय था। गोर्की के पिता मैक्सिम एक सैनिक अफसर के स्वाभिमानी पुत्र थे। अपने पैरों पर खड़े होकर सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करते रहकर भी उन्हें किसी का आश्रय या उपकार नहीं चाहिए था। स्पष्टवादी होने के कारण परिवार के अन्य सदस्य उनसे नाराज ही रहते थे, यहां तक कि उनके पिता और श्वसुर भी। अपनी बेटी को प्रसव के समय मैक्सिम की सास किसी तरह अपने पति को समझा-बुझाकर दामाद और पुत्री को अपने घर ले आयी।
सास-श्वसुर ने मैक्सिम दम्पत्ति को सामने का मकान दे दिया और वहीं पर पियैश्कौव, जो आगे चलकर मैक्सिम गोर्की के नाम से प्रसिद्ध हुआ, ने 28 मार्च 1868 को जन्म लिया। गोर्की का पिता मैक्सिम बड़ा ही सदाचारी और स्पष्टवादी था। न कभी शराब पीता और नहीं किसी प्रकार के दुर्व्यसन में समय बिताता। इससे पियैश्कौव का मामा बड़ा जलने लगा। मैक्सिम के पिता का उत्कृष्ट चरित्र और परिवार में उसका बढ़ता हुआ सम्मान पियैश्कौव के मामा-मामी के लिए ईर्ष्या का विषय हो गया।
नियति ने स्वयं ही मैक्सिम को, पियैश्कौव के जन्म के चार वर्ष बाद ही उठा लिया। यहीं से उनकी कष्ट-कठिनाइयों का दारुण अध्याय आरंभ होता है। अभी तक तो सभी अभाव पिता के सौम्य स्वभाव और लाड़-प्यार के कारण बिल्कुल भी खटकते न थे, परन्तु अब पियैश्कौव को ऐसे दिन देखने को मिले जब उसके सिर से पिता की छाया दूर हो गया था। वह अपनी नानी के पास ही रह गया। माता-पिता के लाड़-प्यार में पले पियैश्कौव को ननिहाल का अनुभव बड़ा ही कड़वा लगा। मामा झगड़ालू और क्रोधी थे। परिवार के सभी बच्चों की पीठ उनके करारे घूंसों और तमाचों से बजती रहती थी।
नाना-नानी का विशेष प्रेम पात्र होने के कारण पियैश्कौव कुछ समय तक तो बचा रहा परन्तु एक दिन असावधानीवश वह कोई गलती कर बैठा। फलस्वरूप पियैश्कौव को मामा के हाथों तो नहीं नाना के हाथों जरूर पिटना पड़ा। मार खाने का यह पहला अनुभव था। पियैश्कौव ने रोते हुए कहा—‘‘मेरे पिता होते तो कौन मुझे पीट सकता था।’’ मां सहित नाना-नानी को आंसू आ गए। नाना ने अपने नाती को छाती से लगा लिया और कहा—‘‘बेटा! मैंने तुम्हें पीटा इसका बुरा मत मानना। मेरी बात याद रखो, अपनों के हाथों पिटने में कोई हर्ज नहीं है। इसे शिक्षा समझना चाहिए लेकिन किसी गैर आदमी की क्या मजाल जो तुम्हें हाथ भी लगा ले।’’
पियैश्कौव के नाना एक कारखाने के मालिक थे। बचपन में उन्हें बड़ी गरीबी और अभाव के दिन देखने पड़े थे। उनका विवाह भी एक गरीब कन्या से हुआ था, जो बड़ी ही उदार, स्नेह और ममता की प्रतिमा तथा करुणा की मूर्ति थी। वे स्वयं कठोर श्रमशील, अनुशासित और व्यवस्थित जीवन पसंद करने वाले व्यक्ति थे। दोनों के विशिष्ट स्वभाव जब एक बिन्दु पर आकर मिल गए तो स्वाभाविक ही समृद्धि और सम्पन्नता उनके चरण चूमने लगी। बचपन में पियैश्कौव ने नाना को अपने क्या गैरों के हाथों भी पिटना पड़ा था। वे अक्सर अपने अतीत के संस्मरण सुनाया करते। इस घटना के बाद उन्होंने कभी पियैश्कौव को हाथ नहीं लगाया।
नानी उन्हें अपने पिता और नाना के संघर्षपूर्ण जीवन की घटनाएं तथा कहानियां सुनाया करती थीं। यद्यपि उन्हें किसी पाठशाला में पढ़ने के लिए नहीं भेजा जा सका था परन्तु नानी की कहानियों ने पियैश्कौव को समाज परक यथार्थ जगत की व्यावहारिक जानकारी और शिक्षण दिया। इन कहानियों ने उन्हें जागरूक तथा विचारशील दृष्टि दी। इधर उनकी मां भी अधिक दिनों तक साथ नहीं रह सकी। वह अपने पुत्र को अपने माता-पिता के पास छोड़कर कहीं चली गयी और दूसरी शादी कर ली। पियैश्कौव का हृदय टूट गया।
एक दिन गोर्की के नाना के कारखाने में आग लग गई और सारी सम्पदा नष्ट हो गयी। नाना विक्षिप्त से हो गए और उन्होंने पियैश्कौव से कह दिया—‘‘एलेक्सी मेरे लिए यह मान लेना कठिन होगा कि मैं तुम्हें सदैव तमगे की तरह गले में लटकाये रहूंगा। अब तुम्हारे लिए मेरे पास कोई जगह नहीं है। तुम दुनिया में अपने लिए अलग जगह बनाओ।’’
पियैश्कौव को तनिक भी रंज नहीं हुआ, न ही उन्हें बुरा भी लगा। बूढ़ी नानी के हृदय में अभी भी अपने नाती के लिए ममता का सागर हिलोरें मार रहा था। वे नाना का घर छोड़कर गांव चले गए और कभी मोची के गुमाश्ते का काम किया तो कभी माली का। सोडा वाटर बेचने से लेकर रसोई बनाने और माल ढोने तक उन्होंने हर पेशा अपनाया परन्तु हर जगह दुर्भाग्य आड़े आता रहा।
एक दिन उन्होंने कहीं दूर जाकर अपना भाग्य आजमाने का विचार किया और नानी के पास जाकर बोले—‘‘मैं वोल्गा के पास जा रहा हूं नानी।’’
‘‘वहां क्या करेगा बेटा! यहां कोई काम नहीं मिला क्या...?’’ एक साथ नानी ने कई प्रश्न पूछ लिए। परन्तु पियैश्कौव ने तो जाने की ठान ही ली थी। उस समय उनकी आयु कुल बारह वर्ष की थी और वोल्गा के तट पर जो उस गांव के पास ही था वे आने-जाने वाले स्टीमरों में माल ढोने का काम करने लगे। एक दिन उन्होंने अपने जाने का समय निर्धारित कर लिया। नानी विदा देने आई—‘‘अब तुम्हें फिर कभी न देख पाऊंगी बेटा! तुम न जाने कहां-कहां भटकोगे।’’ कहकर उसने आंसू पोंछ लिए।
नानी का बस चलता तो वह अपने नाती को यों न जाने देती। परन्तु क्या करे बेचारी! पति इतना कंजूस और स्वार्थी बन गया था कि उसकी कुछ भी न चल पाती। कारखाने में जब आग लगी तो सब लोगों को स्वाभाविक ही बड़ा दुःख हुआ परन्तु उसने यह कह संतोष मनाया कि यह सब कंजूसी और खुदगर्जी का दंड है।
स्टीमर में पियैश्कौव को दो रुबल (रूसी रुपया) प्रतिमास वेतन पर तश्तरियां धोने के काम में लगा दिया गया। अभी वे बालक ही थे परन्तु परिस्थितियों ने उसके मस्तिष्क को वयस्क और आत्म-विश्वास को परिपक्व बना दिया था। तीन-चार वर्ष तक इसी प्रकार अपने दिन गुजारते हुए पियैश्कौव को आखिर उसी स्टीमर में रसोइये का काम मिल गया। अब तो वेतन भी बढ़ गया था। पियैश्कौव ने अपने घुमक्कड़ जीवन में कई लोगों का संपर्क और सान्निध्य प्राप्त किया। उन्होंने देखा कि अधिकांश लोग तुच्छ और क्षुद्र जीवन व्यतीत कर रहे हैं। घृणित से घृणित निंद्य कर्मों को करने में लोगों का तनिक भी संकोच नहीं होता। परन्तु वे स्वयं इन नृशंस लीलाओं से अप्रभावित ही रहे। बचपन में सुनी कहानियों और आदर्शों ने सदैव उनकी रक्षा की।
15-16 वर्ष की आयु में वे एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आए जो उनसे बड़ी सहानुभूति रखता था। वह भी एक रसोइया ही था जिसे अभी लोग स्मिडरी कहा करते थे। एक दिन स्मिडरी ने कहा—‘‘पियैश्कौव तुम थोड़ा पढ़ना-लिखना जानते हो क्या।’’
‘‘मुझे कभी मौका ही नहीं मिला’’ –पियैश्कौव ने कहा- ‘‘हालांकि जी तो बहुत होता है।’’
स्मिडरी किशोर रसोइये की इच्छा को समझकर उसे वर्णमाला सिखाने और पढ़ाने लगा। यहीं पर उन्होंने थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीखा। उनकी बुद्धि तो जीवन के अनुभवों से पहले ही विकसित कर दी थी। स्टीमर ने यात्रियों में कई लोग ऐसे भी आते जो पियैश्कौव से प्रभावित होते। पियैश्कौव अब गोर्की के नाम से अपना परिचय देते जिसका अर्थ होता है—कटु। वास्तव में अभी तक उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ भी भोगा था वह कटु ही कटु था।
एक और कडुआ अनुभव उन्हें स्टीमर के जीवन में भोगना पड़ा। स्टीमर के कर्मचारी अक्सर यात्रियों से भोजन का पैसा लेकर अपने पास रख लेते थे। पियैश्कौव ने ऐसे कामों में कभी उनका सहयोग नहीं किया। इस कारण अधिकांश भ्रष्ट कर्मचारी उनसे नाराज और चिढ़े हुए रहते। आखिर एक दिन स्टीमर के अधिकारी को यह सब पता चल गया और पूछताछ हुई। सभी लोगों ने गोर्की को दोषी ठहराया। प्रमाण न होने पर भी बहुमत को सत्य समझा गया और उन्हें नौकरी से अलग कर दिया गया। ईमानदारी और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था को पाशविकता का यह पहला दंड था। कोई भी सामान्य आदमी तात्कालिक लाभ के लिए परिस्थितियों से समझौता कर लेता परन्तु गोर्की तो आदर्शों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखते थे। लाभ नहीं उत्कृष्टता उनका अभीष्ट था।
मैक्सिम गोर्की ने परिस्थितियों से समझौता नहीं किया और न ही उनके सामने घुटने की टेके परन्तु उनके अंतःकरण में मनुष्य को सभ्यता और नैतिकता की मर्यादाओं का उल्लंघन करते देख एक तीव्र प्रतिक्रिया हुई और वे लेखक बन गए। उन्होंने जो कुछ देखा, सुना और अनुसरण किया था उसे कालांतर में शब्द देना आरंभ किया। इसकी प्रेरणा और मार्गदर्शन उन्हें एक दूसरी रूसी लेखक करोनिन से प्राप्त हुई थी। स्टीमर की नौकरी छोड़ देने के बाद वे स्थायी रूप से कहीं भी टिक न पाये। गोर्की ने अपने जीवन में जो भी अनुभव प्राप्त किए थे वे सबके सब कटु और वेदनाओं से भरे हुए थे। इस प्रकार के जीवन में उन्हें जो अमूल्य रत्न कण दिए उनसे प्रेरित होकर गोर्की ने दुःख-दारिद्रय के सागर का अवगाहन किया। करोनिन से प्रोत्साहन प्राप्त कर उन्होंने लिखना आरंभ किया। उस समय रूस में प्रधानतया दो विचारधारायें चल रही थीं—नीत्से का मत्स्य न्याय सिद्धांत, जिसके अनुसार महत्वाकांक्षी व्यक्ति को अपने से नम्र स्थिति के लोगों की टांग खींचकर स्वयं ऊंचा उठने की बात कही गयी थी। दूसरे विचारकों ने खुशामद और अति नम्रता का प्रचार किया जो मनुष्य को आत्माभिमान से एकदम गिरा देती है। गोर्की को ये दोनों जीवन दर्शन अनुपयुक्त लगे। अतः उन्होंने इस सिद्धान्त का प्रचार किया कि जो उठने को उत्सुक है उसे सहारा दो और खड़े होने में मदद करो। यद्यपि उन्हें अपने जीवन में करोनिन और स्टीमर के बावर्ची को छोड़कर कभी किसी का सहयोग नहीं मिला फिर भी मानवता में उन्होंने अटूट विश्वास व्यक्त किया।
वह युग जारशाही का था। तात्कालीन स्थिति का उल्लेख करते हुए स्वयं गोर्की ने लिखा है—‘‘इस देश में अच्छे और भले कामों का नाम अपराध है, ऐसे मंत्री शासन करते हैं जो किसानों के मुंह से रोटी का टुकड़ा तक छीन लेते हैं और ऐसे राजा राज्य करते हैं जो हत्यारों को सेनापति और सेनापति को हत्यारा बनाने में प्रसन्न होते हैं।’’ तब तक मैक्सिम गोर्की की ख्याति और प्रतिष्ठा लोक प्रसिद्ध हो गयी थी। अब छोटा, गरीब और मध्यम वर्ग उनके साहित्य में अपनी प्रतिच्छाया देखने लगा था क्योंकि वे स्वयं उसी में से आए थे।
सन् 1905 में मैक्सिम गोर्की और उनके जैसे ही कई लेखकों तथा जागरूक जन नेताओं के प्रयासों से रूस में कुछ सुधार अवश्य हुए पर उन्हें अपर्याप्त ही कहा जाना चाहिए। गोर्की ने इन सुधारों पर यथार्थ टिप्पणी की तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। प्रबल जन विरोध के कारण जार को उन्हें छोड़ना पड़ा। आतंक और दमन की लीलाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा—‘‘रूस की आग बुझी नहीं है, वह दब गयी है, इसलिए कि दस गुनी शक्ति के साथ उमड़ पड़े।’’ बारह वर्ष बाद उनका यह कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ।
उस उक्ति को चरितार्थ करने के बाद उन्होंने बारह वर्षों तक अथक परिश्रम किया। इसके लिए वे देश-विदेश में घूमे। अपने यहां के अनेक विभूतियों से मिले। टॉलस्टाय तो उनसे मिलकर बड़े प्रभावित हुए थे और उनके लिए ‘सच्चे प्रजा पुत्र’ का सम्बोधन दिया था।
(यु. नि. यो. सितंबर 1974 से संकलित)
सास-श्वसुर ने मैक्सिम दम्पत्ति को सामने का मकान दे दिया और वहीं पर पियैश्कौव, जो आगे चलकर मैक्सिम गोर्की के नाम से प्रसिद्ध हुआ, ने 28 मार्च 1868 को जन्म लिया। गोर्की का पिता मैक्सिम बड़ा ही सदाचारी और स्पष्टवादी था। न कभी शराब पीता और नहीं किसी प्रकार के दुर्व्यसन में समय बिताता। इससे पियैश्कौव का मामा बड़ा जलने लगा। मैक्सिम के पिता का उत्कृष्ट चरित्र और परिवार में उसका बढ़ता हुआ सम्मान पियैश्कौव के मामा-मामी के लिए ईर्ष्या का विषय हो गया।
नियति ने स्वयं ही मैक्सिम को, पियैश्कौव के जन्म के चार वर्ष बाद ही उठा लिया। यहीं से उनकी कष्ट-कठिनाइयों का दारुण अध्याय आरंभ होता है। अभी तक तो सभी अभाव पिता के सौम्य स्वभाव और लाड़-प्यार के कारण बिल्कुल भी खटकते न थे, परन्तु अब पियैश्कौव को ऐसे दिन देखने को मिले जब उसके सिर से पिता की छाया दूर हो गया था। वह अपनी नानी के पास ही रह गया। माता-पिता के लाड़-प्यार में पले पियैश्कौव को ननिहाल का अनुभव बड़ा ही कड़वा लगा। मामा झगड़ालू और क्रोधी थे। परिवार के सभी बच्चों की पीठ उनके करारे घूंसों और तमाचों से बजती रहती थी।
नाना-नानी का विशेष प्रेम पात्र होने के कारण पियैश्कौव कुछ समय तक तो बचा रहा परन्तु एक दिन असावधानीवश वह कोई गलती कर बैठा। फलस्वरूप पियैश्कौव को मामा के हाथों तो नहीं नाना के हाथों जरूर पिटना पड़ा। मार खाने का यह पहला अनुभव था। पियैश्कौव ने रोते हुए कहा—‘‘मेरे पिता होते तो कौन मुझे पीट सकता था।’’ मां सहित नाना-नानी को आंसू आ गए। नाना ने अपने नाती को छाती से लगा लिया और कहा—‘‘बेटा! मैंने तुम्हें पीटा इसका बुरा मत मानना। मेरी बात याद रखो, अपनों के हाथों पिटने में कोई हर्ज नहीं है। इसे शिक्षा समझना चाहिए लेकिन किसी गैर आदमी की क्या मजाल जो तुम्हें हाथ भी लगा ले।’’
पियैश्कौव के नाना एक कारखाने के मालिक थे। बचपन में उन्हें बड़ी गरीबी और अभाव के दिन देखने पड़े थे। उनका विवाह भी एक गरीब कन्या से हुआ था, जो बड़ी ही उदार, स्नेह और ममता की प्रतिमा तथा करुणा की मूर्ति थी। वे स्वयं कठोर श्रमशील, अनुशासित और व्यवस्थित जीवन पसंद करने वाले व्यक्ति थे। दोनों के विशिष्ट स्वभाव जब एक बिन्दु पर आकर मिल गए तो स्वाभाविक ही समृद्धि और सम्पन्नता उनके चरण चूमने लगी। बचपन में पियैश्कौव ने नाना को अपने क्या गैरों के हाथों भी पिटना पड़ा था। वे अक्सर अपने अतीत के संस्मरण सुनाया करते। इस घटना के बाद उन्होंने कभी पियैश्कौव को हाथ नहीं लगाया।
नानी उन्हें अपने पिता और नाना के संघर्षपूर्ण जीवन की घटनाएं तथा कहानियां सुनाया करती थीं। यद्यपि उन्हें किसी पाठशाला में पढ़ने के लिए नहीं भेजा जा सका था परन्तु नानी की कहानियों ने पियैश्कौव को समाज परक यथार्थ जगत की व्यावहारिक जानकारी और शिक्षण दिया। इन कहानियों ने उन्हें जागरूक तथा विचारशील दृष्टि दी। इधर उनकी मां भी अधिक दिनों तक साथ नहीं रह सकी। वह अपने पुत्र को अपने माता-पिता के पास छोड़कर कहीं चली गयी और दूसरी शादी कर ली। पियैश्कौव का हृदय टूट गया।
एक दिन गोर्की के नाना के कारखाने में आग लग गई और सारी सम्पदा नष्ट हो गयी। नाना विक्षिप्त से हो गए और उन्होंने पियैश्कौव से कह दिया—‘‘एलेक्सी मेरे लिए यह मान लेना कठिन होगा कि मैं तुम्हें सदैव तमगे की तरह गले में लटकाये रहूंगा। अब तुम्हारे लिए मेरे पास कोई जगह नहीं है। तुम दुनिया में अपने लिए अलग जगह बनाओ।’’
पियैश्कौव को तनिक भी रंज नहीं हुआ, न ही उन्हें बुरा भी लगा। बूढ़ी नानी के हृदय में अभी भी अपने नाती के लिए ममता का सागर हिलोरें मार रहा था। वे नाना का घर छोड़कर गांव चले गए और कभी मोची के गुमाश्ते का काम किया तो कभी माली का। सोडा वाटर बेचने से लेकर रसोई बनाने और माल ढोने तक उन्होंने हर पेशा अपनाया परन्तु हर जगह दुर्भाग्य आड़े आता रहा।
एक दिन उन्होंने कहीं दूर जाकर अपना भाग्य आजमाने का विचार किया और नानी के पास जाकर बोले—‘‘मैं वोल्गा के पास जा रहा हूं नानी।’’
‘‘वहां क्या करेगा बेटा! यहां कोई काम नहीं मिला क्या...?’’ एक साथ नानी ने कई प्रश्न पूछ लिए। परन्तु पियैश्कौव ने तो जाने की ठान ही ली थी। उस समय उनकी आयु कुल बारह वर्ष की थी और वोल्गा के तट पर जो उस गांव के पास ही था वे आने-जाने वाले स्टीमरों में माल ढोने का काम करने लगे। एक दिन उन्होंने अपने जाने का समय निर्धारित कर लिया। नानी विदा देने आई—‘‘अब तुम्हें फिर कभी न देख पाऊंगी बेटा! तुम न जाने कहां-कहां भटकोगे।’’ कहकर उसने आंसू पोंछ लिए।
नानी का बस चलता तो वह अपने नाती को यों न जाने देती। परन्तु क्या करे बेचारी! पति इतना कंजूस और स्वार्थी बन गया था कि उसकी कुछ भी न चल पाती। कारखाने में जब आग लगी तो सब लोगों को स्वाभाविक ही बड़ा दुःख हुआ परन्तु उसने यह कह संतोष मनाया कि यह सब कंजूसी और खुदगर्जी का दंड है।
स्टीमर में पियैश्कौव को दो रुबल (रूसी रुपया) प्रतिमास वेतन पर तश्तरियां धोने के काम में लगा दिया गया। अभी वे बालक ही थे परन्तु परिस्थितियों ने उसके मस्तिष्क को वयस्क और आत्म-विश्वास को परिपक्व बना दिया था। तीन-चार वर्ष तक इसी प्रकार अपने दिन गुजारते हुए पियैश्कौव को आखिर उसी स्टीमर में रसोइये का काम मिल गया। अब तो वेतन भी बढ़ गया था। पियैश्कौव ने अपने घुमक्कड़ जीवन में कई लोगों का संपर्क और सान्निध्य प्राप्त किया। उन्होंने देखा कि अधिकांश लोग तुच्छ और क्षुद्र जीवन व्यतीत कर रहे हैं। घृणित से घृणित निंद्य कर्मों को करने में लोगों का तनिक भी संकोच नहीं होता। परन्तु वे स्वयं इन नृशंस लीलाओं से अप्रभावित ही रहे। बचपन में सुनी कहानियों और आदर्शों ने सदैव उनकी रक्षा की।
15-16 वर्ष की आयु में वे एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आए जो उनसे बड़ी सहानुभूति रखता था। वह भी एक रसोइया ही था जिसे अभी लोग स्मिडरी कहा करते थे। एक दिन स्मिडरी ने कहा—‘‘पियैश्कौव तुम थोड़ा पढ़ना-लिखना जानते हो क्या।’’
‘‘मुझे कभी मौका ही नहीं मिला’’ –पियैश्कौव ने कहा- ‘‘हालांकि जी तो बहुत होता है।’’
स्मिडरी किशोर रसोइये की इच्छा को समझकर उसे वर्णमाला सिखाने और पढ़ाने लगा। यहीं पर उन्होंने थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीखा। उनकी बुद्धि तो जीवन के अनुभवों से पहले ही विकसित कर दी थी। स्टीमर ने यात्रियों में कई लोग ऐसे भी आते जो पियैश्कौव से प्रभावित होते। पियैश्कौव अब गोर्की के नाम से अपना परिचय देते जिसका अर्थ होता है—कटु। वास्तव में अभी तक उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ भी भोगा था वह कटु ही कटु था।
एक और कडुआ अनुभव उन्हें स्टीमर के जीवन में भोगना पड़ा। स्टीमर के कर्मचारी अक्सर यात्रियों से भोजन का पैसा लेकर अपने पास रख लेते थे। पियैश्कौव ने ऐसे कामों में कभी उनका सहयोग नहीं किया। इस कारण अधिकांश भ्रष्ट कर्मचारी उनसे नाराज और चिढ़े हुए रहते। आखिर एक दिन स्टीमर के अधिकारी को यह सब पता चल गया और पूछताछ हुई। सभी लोगों ने गोर्की को दोषी ठहराया। प्रमाण न होने पर भी बहुमत को सत्य समझा गया और उन्हें नौकरी से अलग कर दिया गया। ईमानदारी और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था को पाशविकता का यह पहला दंड था। कोई भी सामान्य आदमी तात्कालिक लाभ के लिए परिस्थितियों से समझौता कर लेता परन्तु गोर्की तो आदर्शों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखते थे। लाभ नहीं उत्कृष्टता उनका अभीष्ट था।
मैक्सिम गोर्की ने परिस्थितियों से समझौता नहीं किया और न ही उनके सामने घुटने की टेके परन्तु उनके अंतःकरण में मनुष्य को सभ्यता और नैतिकता की मर्यादाओं का उल्लंघन करते देख एक तीव्र प्रतिक्रिया हुई और वे लेखक बन गए। उन्होंने जो कुछ देखा, सुना और अनुसरण किया था उसे कालांतर में शब्द देना आरंभ किया। इसकी प्रेरणा और मार्गदर्शन उन्हें एक दूसरी रूसी लेखक करोनिन से प्राप्त हुई थी। स्टीमर की नौकरी छोड़ देने के बाद वे स्थायी रूप से कहीं भी टिक न पाये। गोर्की ने अपने जीवन में जो भी अनुभव प्राप्त किए थे वे सबके सब कटु और वेदनाओं से भरे हुए थे। इस प्रकार के जीवन में उन्हें जो अमूल्य रत्न कण दिए उनसे प्रेरित होकर गोर्की ने दुःख-दारिद्रय के सागर का अवगाहन किया। करोनिन से प्रोत्साहन प्राप्त कर उन्होंने लिखना आरंभ किया। उस समय रूस में प्रधानतया दो विचारधारायें चल रही थीं—नीत्से का मत्स्य न्याय सिद्धांत, जिसके अनुसार महत्वाकांक्षी व्यक्ति को अपने से नम्र स्थिति के लोगों की टांग खींचकर स्वयं ऊंचा उठने की बात कही गयी थी। दूसरे विचारकों ने खुशामद और अति नम्रता का प्रचार किया जो मनुष्य को आत्माभिमान से एकदम गिरा देती है। गोर्की को ये दोनों जीवन दर्शन अनुपयुक्त लगे। अतः उन्होंने इस सिद्धान्त का प्रचार किया कि जो उठने को उत्सुक है उसे सहारा दो और खड़े होने में मदद करो। यद्यपि उन्हें अपने जीवन में करोनिन और स्टीमर के बावर्ची को छोड़कर कभी किसी का सहयोग नहीं मिला फिर भी मानवता में उन्होंने अटूट विश्वास व्यक्त किया।
वह युग जारशाही का था। तात्कालीन स्थिति का उल्लेख करते हुए स्वयं गोर्की ने लिखा है—‘‘इस देश में अच्छे और भले कामों का नाम अपराध है, ऐसे मंत्री शासन करते हैं जो किसानों के मुंह से रोटी का टुकड़ा तक छीन लेते हैं और ऐसे राजा राज्य करते हैं जो हत्यारों को सेनापति और सेनापति को हत्यारा बनाने में प्रसन्न होते हैं।’’ तब तक मैक्सिम गोर्की की ख्याति और प्रतिष्ठा लोक प्रसिद्ध हो गयी थी। अब छोटा, गरीब और मध्यम वर्ग उनके साहित्य में अपनी प्रतिच्छाया देखने लगा था क्योंकि वे स्वयं उसी में से आए थे।
सन् 1905 में मैक्सिम गोर्की और उनके जैसे ही कई लेखकों तथा जागरूक जन नेताओं के प्रयासों से रूस में कुछ सुधार अवश्य हुए पर उन्हें अपर्याप्त ही कहा जाना चाहिए। गोर्की ने इन सुधारों पर यथार्थ टिप्पणी की तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। प्रबल जन विरोध के कारण जार को उन्हें छोड़ना पड़ा। आतंक और दमन की लीलाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा—‘‘रूस की आग बुझी नहीं है, वह दब गयी है, इसलिए कि दस गुनी शक्ति के साथ उमड़ पड़े।’’ बारह वर्ष बाद उनका यह कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ।
उस उक्ति को चरितार्थ करने के बाद उन्होंने बारह वर्षों तक अथक परिश्रम किया। इसके लिए वे देश-विदेश में घूमे। अपने यहां के अनेक विभूतियों से मिले। टॉलस्टाय तो उनसे मिलकर बड़े प्रभावित हुए थे और उनके लिए ‘सच्चे प्रजा पुत्र’ का सम्बोधन दिया था।
(यु. नि. यो. सितंबर 1974 से संकलित)