
क्रांति के संदेश वाहक नाजिम हिकमत
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तुर्की के अमर कवि नाजिम हिकमत का बचपन बड़े सुख और आराम से बीता था क्योंकि उनका जन्म ही धनी परिवार में हुआ था। बड़े होने पर जब उन्होंने अपने देशवासियों को अभावग्रस्त देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्हें अपने तथा देश की सामान्य जनता के जीवन स्तर में जमीन-आसमान का अन्तर लग रहा था। अब तो उन्हें अपने जीवन पर ग्लानि होने लगी। वह सोचने लगे कि देश का नागरिक होने के नाते मुझे भी उतनी ही सुविधाएं प्राप्त करने का अधिकार है जितनी कि एक सामान्य नागरिक को।अतः उन्होंने स्वेच्छा से निर्धनता का जीवन स्वीकार कर लिया और देश की निर्धन जनता का ही एक अंग बन गए। 1920-1922 में तुर्की की देशभक्त जनता के अत्याचारी शासकों तथा उनके विदेशी साम्राज्यवादी साथियों के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की। स्वतंत्रता संग्राम में सैकड़ों राष्ट्र प्रेमी सम्मिलित होकर अपने जीवन का मोह त्याग मृत्यु से आलिंगन करने को बढ़े जा रहे थे। ऐसे समय में नाजिम हिकमत पीछे कैसे रह सकते थे? वह सारा घरबार छोड़ देश को स्वतंत्र कराने वाले बलिदानियों की टोली में सम्मिलित हो गए।
कुछ दिनों बाद नाजिम हिकमत रूस चले गए। वहां रूसी साहित्य का अध्ययन किया तो उनके साहित्यिक जीवन में नया मोड़ आया और उन्होंने नई तुर्की कविता को जन्म दिया। तुर्की की पुरानी, दरबारी और निर्जीव कविता की लीक से हटकर ऐसी कविताएं लिखीं जिसने जन-मानस में क्रान्ति की आग फूंक दी। पुराने छंदों का बंधन तोड़कर कविता के लिए ऐसे छंदों को माध्यम बनाया जिनके द्वारा विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त किया जा सकता था। जन-जन के दुःख-सुख को अपना दुःख-सुख मानने के कारण ही कवि भूतल का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाता है। कविता को जनता की निकटता तक लाने के लिए यह आवश्यक होता है कि वह ऐसी भाषा में लिखी गई हो जिसे देश का हर व्यक्ति समझता हो और दैनिक कार्यों के लिए बोलता हो। नाजिम हिकमत ने यही किया।
नाजिम को अपनी मातृभूमि से दूर रहना असह्य था, क्योंकि जिस समय तुर्की के नागरिक देश को स्वतंत्र कराने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार थे उस समय नाजिम अपने को रूसी साहित्यकारों के बीच घेरे भी कैसे रह सकते थे? वह स्वदेश लौटे तो जनता ने पलक पांवड़े बिछाकर उनका स्वागत किया। उनके काव्य के द्वारा देश में क्रांतिकारी भावना जाग उठी। सरकार की आंखों में तो वह कांटे की तरह खटकने लगे थे। वह नाजिम की लोकप्रियता सहन न कर सकी और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण उन्हें तीन वर्ष की सजा सुना दी गई।
कैद से छूटने के बाद नाजिम चुप नहीं बैठे। शासन के जुल्म और दमन चक्र के विरोध में उनकी आवाज और तेज हो गई। उनकी कविताओं ने देशवासियों के दिल में स्थान पा लिया था। देश के किसान, मजदूर और कर्मचारियों तक ही उनकी कवितायें सीमित न रही वरन् जब पुलिस और सेना के लोगों ने भी उन कविताओं को पढ़ना शुरू किया तो सरकार चौंकी। अब सरकार के सामने केवल यही एक तरीका रह गया था कि वह नाजिम की वाणी और लेखनी पर पाबंदी लगा दे। इसके लिए अच्छे-बुरे अनेक उपाय सुझाये गए। अंत में सरकार द्वारा यह अभियोग लगाया गया कि उनकी कवितायें सिपाहियों और सैनिकों के पास पाई गई हैं जिनमें समाजवाद के प्रचार की भावना भरी हुई है। एक विशेष न्यायालय में मुकदमा चला और अट्ठाईस वर्ष के कारावास की सजा सुना दी गई। जहां क्रूर शासन न्यायालयों पर जोर देकर अपने पक्ष में निर्णय ही पहल करता हो वहां इस तरह का निर्णय सुनकर जनता को आश्चर्य नहीं हुआ। यह गनीमत रही कि उन्हें मृत्यु के घाट नहीं उतारा गया।
अभियोग भी उन कविताओं के आधार पर लगाया गया था जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पहले ही छप चुकी थीं। न्यायालय द्वारा जो 28 वर्ष का दंड दिया गया वह वहां के कानून के अनुसार अवैधानिक था, क्योंकि इतनी सजा तुर्की में गैर कानूनी थी। अतः उस निर्णय को कानून का आवरण पहनाने के लिए एक नया कानून बनाया गया। जनता इसके खिलाफ आवाज उठाती रही पर हिंसा पर उतारू सरकार ने किसी की न सुनी।
नाजिम को अन्य कैदियों से अलग रखा गया क्योंकि सरकार को यह डर था कि यह कैदी अन्य कैदियों को भी क्रांति के लिए भड़का दे? उन्हें एकान्त में रखा गया। पत्र-व्यवहार तथा मिलने जुलने पर पाबंदी लगा दी गई। इस बात की बराबर कोशिश की गई कि नाजिम का संबंध देशवासियों से बिल्कुल टूट जाये। इतना ही नहीं वरन् नाना प्रकार की कठोर यातनायें दी गईं। पर नाजिम ने हिम्मत न हारी। आशा की किरणें उसे अंधेरी कोठरी में भी प्रकाश पहुंचाती रहीं। उन्होंने अपने आत्म-विश्वास को घटने न दिया। अब दुश्मनों से लड़ने के लिए कविता ही एकमात्र अस्त्र था जिसका प्रयोग वह लुक-छिपकर करते ही रहते थे। वे कविताएं समाचार-पत्र और पत्रिकाओं में दूसरे नामों से छपती रहीं। उन्हें अपना नाम प्यारा न था। वह तो काम में आस्था रखने वाले पुरुषार्थ के धनी थी, जिन्हें लोकेषणा छू तक न गई थी। पर देश के सारे पाठक-पाठिकाएं कविता में दूसरे का नाम होने पर भी यह समझते थे कि वे कवितायें उनके प्रिय कवि नाजिम की ही हैं।
काल कोठरी में बैठकर क्रांति और बलिदान का संदेश देने वाले नाजिम को अब बारह वर्ष बीत गए थे। एक एक दिन उन्होंने एक एक युग के समान निकाला था, पर न निराश हुए और न घबराये। स्वास्थ्य गिरने लगा। शरीर क्षीण हो गया। न भोजन ऐसा था जिससे शरीर चल सके और न सर्दी से बचने के लिए कपड़े। दिल की भयंकर बीमारी ने उसके साहस की परीक्षा लेनी चाही। टांगों में इतना दर्द बढ़ा कि उस पर चलना-फिरना कठिन हो गया। फिर भी वह मंगलमय भविष्य की कामना करके जीते ही रहे।
एकांत कारावास की इतनी लंबी अवधि, जिसमें सिवाय यातनाओं के और कुछ मिला नहीं, ऐसी परिस्थितियों में और कोई होता तो आत्महत्या के लिए उतारू हो जाता या किसी पागलखाने की शरण लेने के लिए विवश किया जाता। पर वह तो देशवासियों ने उन सुनहरे स्वप्नों के साथ अपने को जोड़े हुए थे कि एक दिन त्याग और बलिदान के परिणामस्वरूप देश को स्वतंत्रता मिलेगी। वह स्वयं तो जीवित रहे ही साथ साथ ही अन्य कैदियों तथा ऐसे देश भक्तों, जिन पर दमन चक्र चल रहा था, स्वाभिमान से जीवित रहने का अपनी कविताओं में अभूतपूर्व प्रेरणादायक सन्देश दिया।
अब नाजिम का स्वास्थ्य और खराब हो गया। बचने की आशा न रही। जेल अधिकारियों की उपेक्षा बढ़ती गई तो उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी और सरकार से न्याय की मांग की। उस भूख हड़ताल का समाचार संसार में बिजली की तरह फैल गया। स्थान-स्थान पर सहानुभूति में सभाएं की गईं और नाजिम की रिहाई के लिए आवाज उठाई गई। करोड़ों व्यक्तियों की बुलंद आवाज का अनुकूल प्रभाव पड़ा और तुर्की सरकार ने नाजिम को छोड़ दिया। परन्तु सरकार को उनसे अत्यधिक भय था। अतः पूर्ण स्वतंत्रता न दी गई। उनकी वाणी पूरे देश की वाणी थी जिसे सरकार सदैव के लिए बंद कर देना चाहती थी।
आखिर 61 वर्षीय नाजिम 3 जून 1963 को मुहर्रम के दिन अपने देश से दूर मास्को में इस संसार में बिदा हो गये। यह दिन मुस्लिम जगत के लिए ही नहीं वरन् समस्त विश्व के लिए शोक का दिन था क्योंकि इस दिन विश्व के महान कवि ने सबको जगाकर चिर निद्रा प्राप्त की थी।
(यु. नि. यो. मई 1970 से संकलित)
कुछ दिनों बाद नाजिम हिकमत रूस चले गए। वहां रूसी साहित्य का अध्ययन किया तो उनके साहित्यिक जीवन में नया मोड़ आया और उन्होंने नई तुर्की कविता को जन्म दिया। तुर्की की पुरानी, दरबारी और निर्जीव कविता की लीक से हटकर ऐसी कविताएं लिखीं जिसने जन-मानस में क्रान्ति की आग फूंक दी। पुराने छंदों का बंधन तोड़कर कविता के लिए ऐसे छंदों को माध्यम बनाया जिनके द्वारा विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त किया जा सकता था। जन-जन के दुःख-सुख को अपना दुःख-सुख मानने के कारण ही कवि भूतल का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाता है। कविता को जनता की निकटता तक लाने के लिए यह आवश्यक होता है कि वह ऐसी भाषा में लिखी गई हो जिसे देश का हर व्यक्ति समझता हो और दैनिक कार्यों के लिए बोलता हो। नाजिम हिकमत ने यही किया।
नाजिम को अपनी मातृभूमि से दूर रहना असह्य था, क्योंकि जिस समय तुर्की के नागरिक देश को स्वतंत्र कराने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार थे उस समय नाजिम अपने को रूसी साहित्यकारों के बीच घेरे भी कैसे रह सकते थे? वह स्वदेश लौटे तो जनता ने पलक पांवड़े बिछाकर उनका स्वागत किया। उनके काव्य के द्वारा देश में क्रांतिकारी भावना जाग उठी। सरकार की आंखों में तो वह कांटे की तरह खटकने लगे थे। वह नाजिम की लोकप्रियता सहन न कर सकी और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण उन्हें तीन वर्ष की सजा सुना दी गई।
कैद से छूटने के बाद नाजिम चुप नहीं बैठे। शासन के जुल्म और दमन चक्र के विरोध में उनकी आवाज और तेज हो गई। उनकी कविताओं ने देशवासियों के दिल में स्थान पा लिया था। देश के किसान, मजदूर और कर्मचारियों तक ही उनकी कवितायें सीमित न रही वरन् जब पुलिस और सेना के लोगों ने भी उन कविताओं को पढ़ना शुरू किया तो सरकार चौंकी। अब सरकार के सामने केवल यही एक तरीका रह गया था कि वह नाजिम की वाणी और लेखनी पर पाबंदी लगा दे। इसके लिए अच्छे-बुरे अनेक उपाय सुझाये गए। अंत में सरकार द्वारा यह अभियोग लगाया गया कि उनकी कवितायें सिपाहियों और सैनिकों के पास पाई गई हैं जिनमें समाजवाद के प्रचार की भावना भरी हुई है। एक विशेष न्यायालय में मुकदमा चला और अट्ठाईस वर्ष के कारावास की सजा सुना दी गई। जहां क्रूर शासन न्यायालयों पर जोर देकर अपने पक्ष में निर्णय ही पहल करता हो वहां इस तरह का निर्णय सुनकर जनता को आश्चर्य नहीं हुआ। यह गनीमत रही कि उन्हें मृत्यु के घाट नहीं उतारा गया।
अभियोग भी उन कविताओं के आधार पर लगाया गया था जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पहले ही छप चुकी थीं। न्यायालय द्वारा जो 28 वर्ष का दंड दिया गया वह वहां के कानून के अनुसार अवैधानिक था, क्योंकि इतनी सजा तुर्की में गैर कानूनी थी। अतः उस निर्णय को कानून का आवरण पहनाने के लिए एक नया कानून बनाया गया। जनता इसके खिलाफ आवाज उठाती रही पर हिंसा पर उतारू सरकार ने किसी की न सुनी।
नाजिम को अन्य कैदियों से अलग रखा गया क्योंकि सरकार को यह डर था कि यह कैदी अन्य कैदियों को भी क्रांति के लिए भड़का दे? उन्हें एकान्त में रखा गया। पत्र-व्यवहार तथा मिलने जुलने पर पाबंदी लगा दी गई। इस बात की बराबर कोशिश की गई कि नाजिम का संबंध देशवासियों से बिल्कुल टूट जाये। इतना ही नहीं वरन् नाना प्रकार की कठोर यातनायें दी गईं। पर नाजिम ने हिम्मत न हारी। आशा की किरणें उसे अंधेरी कोठरी में भी प्रकाश पहुंचाती रहीं। उन्होंने अपने आत्म-विश्वास को घटने न दिया। अब दुश्मनों से लड़ने के लिए कविता ही एकमात्र अस्त्र था जिसका प्रयोग वह लुक-छिपकर करते ही रहते थे। वे कविताएं समाचार-पत्र और पत्रिकाओं में दूसरे नामों से छपती रहीं। उन्हें अपना नाम प्यारा न था। वह तो काम में आस्था रखने वाले पुरुषार्थ के धनी थी, जिन्हें लोकेषणा छू तक न गई थी। पर देश के सारे पाठक-पाठिकाएं कविता में दूसरे का नाम होने पर भी यह समझते थे कि वे कवितायें उनके प्रिय कवि नाजिम की ही हैं।
काल कोठरी में बैठकर क्रांति और बलिदान का संदेश देने वाले नाजिम को अब बारह वर्ष बीत गए थे। एक एक दिन उन्होंने एक एक युग के समान निकाला था, पर न निराश हुए और न घबराये। स्वास्थ्य गिरने लगा। शरीर क्षीण हो गया। न भोजन ऐसा था जिससे शरीर चल सके और न सर्दी से बचने के लिए कपड़े। दिल की भयंकर बीमारी ने उसके साहस की परीक्षा लेनी चाही। टांगों में इतना दर्द बढ़ा कि उस पर चलना-फिरना कठिन हो गया। फिर भी वह मंगलमय भविष्य की कामना करके जीते ही रहे।
एकांत कारावास की इतनी लंबी अवधि, जिसमें सिवाय यातनाओं के और कुछ मिला नहीं, ऐसी परिस्थितियों में और कोई होता तो आत्महत्या के लिए उतारू हो जाता या किसी पागलखाने की शरण लेने के लिए विवश किया जाता। पर वह तो देशवासियों ने उन सुनहरे स्वप्नों के साथ अपने को जोड़े हुए थे कि एक दिन त्याग और बलिदान के परिणामस्वरूप देश को स्वतंत्रता मिलेगी। वह स्वयं तो जीवित रहे ही साथ साथ ही अन्य कैदियों तथा ऐसे देश भक्तों, जिन पर दमन चक्र चल रहा था, स्वाभिमान से जीवित रहने का अपनी कविताओं में अभूतपूर्व प्रेरणादायक सन्देश दिया।
अब नाजिम का स्वास्थ्य और खराब हो गया। बचने की आशा न रही। जेल अधिकारियों की उपेक्षा बढ़ती गई तो उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी और सरकार से न्याय की मांग की। उस भूख हड़ताल का समाचार संसार में बिजली की तरह फैल गया। स्थान-स्थान पर सहानुभूति में सभाएं की गईं और नाजिम की रिहाई के लिए आवाज उठाई गई। करोड़ों व्यक्तियों की बुलंद आवाज का अनुकूल प्रभाव पड़ा और तुर्की सरकार ने नाजिम को छोड़ दिया। परन्तु सरकार को उनसे अत्यधिक भय था। अतः पूर्ण स्वतंत्रता न दी गई। उनकी वाणी पूरे देश की वाणी थी जिसे सरकार सदैव के लिए बंद कर देना चाहती थी।
आखिर 61 वर्षीय नाजिम 3 जून 1963 को मुहर्रम के दिन अपने देश से दूर मास्को में इस संसार में बिदा हो गये। यह दिन मुस्लिम जगत के लिए ही नहीं वरन् समस्त विश्व के लिए शोक का दिन था क्योंकि इस दिन विश्व के महान कवि ने सबको जगाकर चिर निद्रा प्राप्त की थी।
(यु. नि. यो. मई 1970 से संकलित)