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Books - विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्रष्टा

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Language: HINDI
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नये युग का बीज बोने वाले लेनिन

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  भारतीय शास्त्रों में चार युगों की चर्चा हर जगह मिलती है। यद्यपि उनकी काल-गणना (प्रत्येक युग की अवधि लाखों वर्ष बताया जाना) विवादास्पद है, पर युग-परिवर्तन, एक के बाद दूसरे युग का आगमन का सिद्धान्त असत्य नहीं कहा जा सकता। हम लोग अपनी छोटी-सी जिन्दगी में भी जमाने बदलते देखा करते हैं और पिछले दो-तीन हजार वर्षों का जो प्रमाणिक इतिहास प्राप्त होता है उससे भी यह सिद्ध होता है कि हजार पांच सौ वर्ष के भीतर ही संसार की दशा में इतना अधिक परिवर्तन हो जाता है जो एक नये युग की तरह ही जान पड़ता हैयुग-परिवर्तन की प्रक्रिया यद्यपि बहुत कुछ प्राकृतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से होती है पर उनके नायक या कर्त्ता कुछ विशिष्ट व्यक्ति ही होते हैं। सामान्य मनोबल के व्यक्ति तो सदा हवा के साथ ही बहते हैं। प्रचलित परम्पराओं और जन रुचि के विरुद्ध चलने का उनमें साहस नहीं होता। ऐसे लोग प्रायः अवसरवादी भी होते हैं। यद्यपि वे राजनीति, समाजसुधार आदि के कामों में पड़ जाते हैं, पर कभी अधिक दूर अथवा विपरीत दिशा में जाने का साहस नहीं करते। उनकी विचार-धारा यही कहती है कि समाज-सेवा, जन-सेवा का कार्य भी चलता रहे, पर अपने स्वार्थ पर किसी तरह भी आंच न आये। राजनीतिक क्षेत्र में भी ऐसे व्यक्तियों को ‘ईजी चेयर पोलीटीशियन’ (आराम कुर्सी वाले राजनीतिज्ञ) कहते हैं। ऐसे व्यक्ति देखने में चाहे समाज-सेवा और देश-सेवा के बहुत से काम करते रहें, व्यवहार की दृष्टि से भी सज्जन और उदार जान पड़ें, पर उनसे किसी महान युग परिवर्तनकारी कार्य की आशा नहीं की जा सकती।
भारतवर्ष के ‘नरम दल’ के कहलाने वाले और ‘गरम दल’ तथा असहयोग आंदोलन के भी बहुसंख्यक नेता इसी श्रेणी के थे। यद्यपि उनमें से अधिकांश की सच्चाई और देश-भक्ति में किसी प्रकार का सन्देह नहीं था, पर वे समय और प्रचलित विचारधारा के विपरीत अकेले ही किसी संघर्ष में कूद पड़ने वाले व्यक्ति नहीं थे। ऐसे व्यक्ति दुनिया में बहुत कम ही होते हैं जो सार्वजनिक परम्पराओं के विरुद्ध किसी नवीन विचारधारा की स्थापना करते हैं और सब प्रकार की हानि, कष्ट, भय, मान-अपमान का ख्याल छोड़कर उसे सफल बनाकर दिखा देते हैं। ऐसे लोगों को कार्य आरंभ में तो लोगों को निरर्थक अथवा गलत जान पड़ता है, वे उसकी निंदा और विरोध भी करते हैं, पर अंत में जब वे सफल हो जाते हैं तो ‘युग-प्रवर्तक’ ‘मसीहा’ ‘पैगंबर’ ‘अवतार’ आदि के नाम से पूजे जाते हैं। रूस की राज्य क्रांति के जनक लेनिन इसी श्रेणी में थे।
लेनिन (जन्म 1970) ऐसे समय में उत्पन्न हुए थे जब रूस महादेश का वातावरण एक तरफ राजनैतिक भ्रष्टाचार और दमन तथा दूसरी ओर राज-विद्रोही और षड़यंत्र की घटनाओं से बड़ा भयावह हो उठा था। सरकारी अधिकारियों की मनमानी और अत्याचारों से साधारण जनता कराह रही थी और नव-युवकों को एक दल इस स्थिति को बदलने के लिए तथा प्रतिशोध की भावना से पिस्तौल और बम लेकर तत्कालीन शासन व्यवस्था को पलट देने के लिए मार-काट का सहारा ले रहा था।
लेनिन 17 वर्ष के ही थे कि उनके बड़े भाई अलैकजान्द्र को रूस के जार (बादशाह) ही हत्या का षड़यंत्र करने के अभियोग में फांसी दे दी गई। लेनिन पर इस घटना का प्रभाव तो बहुत पड़ा, भाई की मृत्यु के लिए शोक भी हुआ, पर उन्होंने कहा कि यह मार्ग ठीक नहीं है। इस तरह लुक-छिपकर दस-बीस बड़े लोगों को मार दिया जाय तो इससे न तो शासन का अंत हो सकता है और न जनता की व्यवस्था बदल सकती है। इसके लिए तो जनता को ही जगाना और संगठित करना पड़ेगा और तब वही अन्यायी-शासन का तख्ता पलट सकेगी।
इस विचारधारा से प्रेरित होकर लेनिन मजदूर संगठन बनाने की तैयारी करने लगे। उस समय तक रूस के राजनैतिक कार्यकर्ता अगर जनता में कुछ प्रचार भी करते थे तो वे किसानों के बीच ही जाते थे। पर लेनिन ने देखा कि किसान स्वभाव से इतना रूढ़िवादी होता है कि उसे शीघ्र सामाजिक क्रांति के लिए तैयार नहीं किया जा सकता। और बिना सामाजिक क्रांति के असली राजनैतिक क्रांति हो नहीं सकती? यह एक अकाट्य सिद्धान्त है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम अपने देश में देख रहे हैं। यहां बिना सामाजिक क्रांति के जो राजनैतिक परिवर्तन हो गया उसने बजाय उत्थान के देश को और भी पतन की ओर ढकेल दिया। इसी कारण लेनिन ने अपना कार्य क्षेत्र मजदूरों में बनाया और उनमें आन्दोलन की भावना उत्पन्न करे एक नये क्रांतिकारी दल का संगठन आरंभ किया।
लेनिन के कार्य के फलस्वरूप ज्यों ही मजदूरों में हलचल मची और कारखानों में हड़तालें होने लगीं कि वहां के अधिकारियों ने उनको गिरफ्तार करके साइबेरिया, जो कि रूस का काला पानी था, भेज दिया। इस घोर निर्जन और कष्टपूर्ण स्थान में लेनिन छः वर्ष तक रहे। यहीं क्रुप्सकाया से उनका विवाह हुआ, जो पहले से ही उनकी मंगेतर थी और लेनिन को दंड होने पर स्वयं भी स्वेच्छापूर्वक साइबेरिया चली आई थी। वह भी एक क्रांतिकारी विचारों की वीर रमणी थी, और आजन्म लेनिन के राजनैतिक कार्यों में सक्रिय सहयोग देती रही।
सन् 1900 में जब लेनिन सजा काटकर साइबेरिया से वापस आये तो फिर क्रांतिकारी मजदूर संगठन के कार्य में लग गए। पर शीघ्र ही उन्होंने अनुभव किया कि अब सरकारी दमन चक्र और भी भयंकर रूप से चल रहा है और किसी भी दिन बिना मुकदमा चलाये यों ही उनकी हत्या कर दी जायेगी, तब वे गुप्त रूप से जर्मनी चले गए और वहां रहकर ‘इस्क्रा’ नाम का पत्र निकालने लगे जिसे तरह-तरह की चालाकियों से रूस भेजा जाता था और उससे क्रांति की आग भड़काई जाती थी। यह देखकर रूस की सरकार ने जर्मनी वालों को लेनिन के विरुद्ध कार्यवाही करने को लिखा। तब वे लंदन चले गए और कई वर्ष तक बहुत आर्थिक कष्ट सहकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते रहे। फिर जब समय अनुकूल देखा तो स्विट्जरलैंड चले आए ताकि रूस के निकट रहकर आन्दोलन को सुविधापूर्वक चलाया जा सके। इस प्रकार 17 वर्ष तक लेनिन अपने देश से निर्वासित रहकर क्रांति की भावना को फैलाते रहे और संगठन को सुदृढ़ बनाते रहे।
जब द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी की सैनिक शक्ति से दब जाने के कारण रूस की आंतरिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई, तो लेनिन ने अपनी योजना को अमल में लाने का उचित अवसर समझा और वे रूस वापस जाकर जोर-शोर से काम करने लगे। इस समय भी दूसरे सुधारवादी नेता शासन क्षेत्र में आगे बढ़े हुए थे और उन्होंने लेनिन के कार्य में बाधा डाली, पर लेनिन के प्रचार और संगठन की नींव बहुत मजबूत थी, जिसके लिए इतने वर्षों से लगातार चुपचाप परिश्रम किया गया था, उससे अंतिम सफलता उनको ही मिली।
लेनिन ने रूस में जिस कम्युनिस्ट शासन पद्धति की स्थापना की है। वह इस समय लगभग आधे संसार में फैल गई है और समस्त देशों में उसके समर्थकों के जबर्दस्त संगठन मौजूद हैं। यह प्राचीन सामाजिक प्रणाली से भिन्न एक नये ढंग का समाज संगठन है। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि संसार में यही अंतिम सामाजिक प्रणाली है, अब तक भी उसमें बहुत से परिवर्तन हो चुके हैं और आगे भी नई-नई योजनाओं के आने की पूरी सम्भावना है, तो भी इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि लेनिन ने एक नये युग की नींव रखी है, जिसमें संसार की काया-पलट करने की शक्ति है।
(यु. नि. यो. मार्च 1970 से संकलित)
टिप्पणी:— यह लेख उस समय लिखा गया था जब सम्पूर्ण विश्व में साम्यवाद की तूती बोल रही थी परन्तु पूज्य गुरुदेव ने उसी समय साम्यवादी आंदोलन में परिवर्तन का संकेत दे दिया था जिसे आज प्रत्यक्ष देखा जा रहा है। गुणों की प्रशंसा करना और निंदा-आलोचना से दूर रहना पूज्य गुरुदेव की लेखनी की प्रमुख विशेषता रही है।
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