
मानव मुक्ति के संदेश वाहक गैरिसन
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बोस्टन नगर की सड़कों पर तब एक अल्पवयस्क और शिक्षित किशोर रोजगार की तलाश में चक्कर काटा करता था। एक दिन इस किशोर ने देखा कि बोस्टन के घने चौराहों पर कुछ धनवान और समृद्ध से दिखने वाले गोरी चमड़ी के लोग काले हब्शियों की नीलामी लगा रहे हैं। नीलामी- जैसे किसी जड़ वस्तु या जमीन-मकान आदि की लगायी जाती है। इन हब्शियों को गुलाम बनाकर रखा जाता था। उस बाजार में जहां उन लोगों की नीलामी लगायी जाती थी, हब्शियों के पांवों में बेड़ियां पड़ी हुई थीं और उनसे पशुवत् व्यवहार किया जाता था। मालिकों के हाथ में बड़े-बड़े हंटर थे जो गुलामों की पीठ पर पड़ते, जब भी वे थोड़ा- बहुत हिलते-डुलते।
उस किशोर ने अपने जैसे ही इन मनुष्यों की यह दुर्दशा देखकर खून का घूंट पी लिया। सुना तो बहुत था कि आदमी को गुलाम बनाकर रखा जाता है। परन्तु इतना निकट से देखने का अवसर आज ही आया था। किशोर ने संकल्प लिया कि मैं इस अमानवीय प्रथा को बंद करके ही रहूंगा। इस संकल्प की पूर्ति से प्रथम उसे अपनी चिंता थी। वह भूला नहीं था कि इस नगर में मैं रोजगार की तलाश करने आया हूं।
यही किशोर आगे चलकर महामानव गैरिसन के नाम से मानवीय मुक्ति के संदेश वाहक बने और सन् 1863 में उनके तथा उन जैसे ही अन्य संकल्पवान राष्ट्रीय नेताओं के प्रयत्नों के फलस्वरूप अमेरिका में गुलामी प्रथा समाप्त हुई। इस प्रथा का अंत करने के लिए मानवता के सच्चे पोषक इन कर्मठ महापुरुषों ने अगणित कठिनाइयां झेलीं तथा बहुत कष्ट सहे। यहां तक कि उन लोगों को मारने के भी प्रयत्न किए गए और कई बार तो वे मरते-मरते भी बचे। इसी संग्राम के सफल योद्धा अब्राहम लिंकन के करुण अंत से तो पाठक भली-भांति परिचित ही हैं।
गैरिसन एक अति साधारण और निर्धन परिवार के सदस्य थे। उनके पिता मछुआरे थे। नाव चलाकर और मछलियां पकड़ कर ही परिवार का भरण-पोषण होता था। जब वे बहुत छोटे थे तभी मछली पकड़ते समय नाव उलट जाने से उनके पिता डूबकर मर गए। मछुआरा होते हुए भी यह घटना इतने आकस्मिक ढंग से घटी कि उनके पिता को कुछ उपाय ही नहीं सूझा अपने आपको बचाने का। मां को जब इस दुर्घटना का पता चला तो बेचारी छाती पीटकर रह गयी। परिवार के भरण-पोषण का एकमात्र आधार ही टूट गया था। पास में कोई सम्पत्ति भी नहीं थी कि उससे आगे चलकर गुजारा किया जा सके।
लेकिन इस आपात स्थिति के बाद दोनों का सामान्य जीवन सहज होता चला गया। मां मेहनत-मजदूरी कर अपने पुत्र का पालन करने लगी। किसी प्रकार गैरिसन को जीवित तो रख लिया परन्तु शिक्षा-दीक्षा कुछ भी न दिला सकी। गैरिसन की माता दांयी का काम जानती थी। पहले पड़ोस-मुहल्ले में प्रसूता स्त्रियों के प्रसव- समय में अपनी समझ और योग्यता के अनुसार जैसा व जितना बन पड़ता उतना काम करती और उससे जो कुछ भी मिलता उसी में अपना गुजारा चलाती। दाई के काम में बड़ी मुश्किल से आधा-पूरा पेट, रूखा-सूखा भोजन जुटा पाने भर को ही आय हो पाती थी।
गैरिसन अब आठ-नौ वर्ष के हुए तो उन्हें अपने परिस्थितियों से विवश होकर इसी उम्र में समाज के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा। मां की अत्यल्प आमदनी में उन लोगों का गुजारा चलना मुश्किल हो गया और घर की परिस्थितियों को तकाजा यह था कि गैरिसन का अबोध बचपन कर्मठ प्रौढ़ता में बदले। वे अपनी मां से अनुमति लेकर परिस्थितियों के इस तकाजे को पूरा करने के लिए निकले। मां ने आधे मन से स्वीकृति दे दी।
गैरिसन जब अपना निवास स्थान छोड़कर काम-काज की तलाश में भटकने लगे तो उनकी उम्र और शरीर की स्थिति देखकर किसी ने भी उन्हें काम पर नहीं रखा। जहां भी वे जाते और निवेदन करते नौकरी पर रखने के लिए तो एक ही उत्तर मिलता—‘‘बेटा! अभी तुम्हारे खाने और खेलने के दिन हैं। अभी से तुम काम पर लगने की बात क्यों सोचते हो? अभी तुम्हें कौन काम पर रखेगा?’’
‘‘जी मुझे इस उमर में भी अपनी बूढ़ी मां और अपने निर्वाह के लिए रोजगार की आवश्यकता है। इसीलिए मैं काम तलाश रहा हूं। जब पेट ही खाली हो तो खेलना-कूदना कहां से होगा।’’
स्पष्ट ही उत्तरदाता का भाव गैरिसन को टालने का होता था। जब वे यह जवाब देकर निवेदन करते तो उत्तरदाता चुप रह जाते और फिर पैंतरा बदलते—‘‘तुम क्या काम जानते हो?’’
‘‘जी, मैं काम तो कुछ नहीं जानता। हां सीखना अवश्य चाहता हूं। जिस काम में भी आप मुझे लगायेंगे उस बहुत थोड़े समय में ही सीख लूंगा।’’
‘‘यहां सीखने की सुविधा नहीं है’’ —और गैरिसन को निराश हो लौट जाना पड़ता। निराशा और असफलता तरह-तरह से उनको मुंह चिढ़ाती। लेकिन पेट की आग ही ऐसी होती है कि कुछ न कुछ तो करना ही था। निरन्तर असफल रहने से वे निराश हो गए। इसलिए उन्होंने कोई भी काम करने के लिए स्वयं को तैयार किया। छोटे-छोटे कामगरों के पास भी वे गए पर उन्हें प्रायः निराशा ही मिली क्योंकि कोई भी व्यक्ति ऐसे नए और सीखने वाले लड़के को क्यों काम देने लगा। एक दिन काम की तलाश में ही उन्होंने किसी जूता गांठने वाले मोची से पूछा। मोची जरा सदय और उदार व्यक्ति था। उसने गैरिसन के परिवार की स्थिति से अवगत होकर उन्हें अपने यहां काम पर रख लिया।
इस साधारण से काम को ही गैरिसन ने महत्वपूर्ण सफलता माना और वे जी लगाकर तन्मयतापूर्वक इस काम में लग गए। भूख और गरीबी व्यक्ति में कैसी लगन और तन्मयता पैदा कर देती है, यह कोई जानना चाहे तो उस स्थिति की कल्पना करे जब बहुत खोज-बीन और जांच-तलाश के बाद कहीं काम की व्यवस्था बने। जिस मोची ने गैरिसन को काम दिया था वह बालक की मेहनत, निष्ठा और श्रमशीलता को देख-देखकर उस पर तरस खाया करता था। क्योंकि वह भी साधारण या श्रमजीवी था और आमदनी कोई खास नहीं थी, फिर भी जो कुछ बनता वह वह सहृदयतापूर्वक देता। यह राशि इतनी अत्यल्प मात्रा में होती थी कि उससे गैरिसन का ही पेट नहीं भरता था। फिर भी वे संतुष्ट थे।
एक दिन मोची मालिक ने उनसे कहा—‘‘गैरिसन, यहां तुम्हारी क्या आमदनी होती है। इससे तो तुम्हारा पेट भी मुश्किल से भरता होगा। तुम कहो तो मैं अपने एक बढ़ई मित्र से बात करूं, वह तुम्हारे लिए अच्छी आमदनी का काम दे देगा।’’
‘‘जैसी आपकी मर्जी’’ —गैरिसन ने स्वीकृति दे दी। और मोची ने बात-चीत चलाकर उन्हें बढ़ई के पास रखने में सफलता प्राप्त कर ली। इन्हीं दिनों आरंभ में वर्णित घटना घटी। यद्यपि उनके जीवन में अभी स्थायित्व भी आया नहीं था, वे चाहते थे कि कोई ऐसी जीविका तलाश की जाये जिससे जीवन निर्विघ्न चल सके, लेकिन उक्त घटना ने उनकी विचारणा का बदल दिया और वे सोचने लगे जैसे भी बने इस कुप्रथा का अंत ही करना है।
बढ़ई के पास से काम छोड़कर उन्होंने एक प्रेस में नौकरी कर ली। छापा खाने में उन्हें झाड़ू लगाने और कागज ठीक करने का काम मिला। न जाने क्यों गैरिसन को इस साधारण सी उपलब्धि में संतोष मिला। उन्होंने निश्चित कर लिया कि अपने व्यवहार और उद्योगशीलता से इस क्षेत्र में अच्छी प्रगति कर लेंगे जो आगे चलकर उनके उद्देश्य की पूर्ति में सहायक सिद्ध होगी। नियत कार्यों से निवृत्त हो जाने के बाद जो भी समय मिलता उसे कंपोजिंग सीखने में लगाने की सोची। लेकिन गैरिसन शिक्षित तो थे नहीं। कंपोजिंग सीखें तो कैसे? जहां चाह वहां राह के हिसाब से उन्होंने अन्य लोगों से पूछ-पूछकर अक्षर जोड़ना सीखा। अक्षरों को पहचानना भी उन्हें इसी प्रकार आया। लगनपूर्वक यह काम करते-करते वे एक अच्छे कंपोजीटर बन गए और आमदनी भी पहले की अपेक्षा बढ़िया होने लगी।
अब उनकी जिन्दगी की गाड़ी ठीक गति से चलने लगी और वे अपनी शैक्षणिक योग्यता भी बढ़ाने लगे। उन्होंने आठ-दस वर्ष तक यह काम किया और थोड़ा-बहुत पैसा भी इकट्ठा किया। शिक्षा की दृष्टि से भी उन्होंने संतोषजनक प्रगति कर ली। उस समय उनकी आयु लगभग सोलह-सत्रह वर्ष की रही होगी। प्रेस में पुस्तकें छपवाने के लिए व्यवसायी एजेंट, लेखक और साहित्यकार लोग आया करते थे। गैरिसन ने जो निश्चय किया था—दास प्रथा का अंत करने का उस संकल्प को पूरा करने के लिए उन्हें एक उपयुक्त मार्ग दिखा—लेखनी द्वारा लोगों की विचारणाओं में परिवर्तन लाने का। उनके हृदय में दासप्रथा के प्रति बड़ी घृणा थी और गुलामों के प्रति गहरी संवेदना।
इसी घृणा और संवेदना को जीवन का लक्ष्य बनाकर उन्होंने प्रेस में आने वाली लेखकों से संपर्क किया और उसके सहयोग से लेख लिखना सीखा। गैरिसन के हृदय में इस अत्याचार के विरुद्ध क्रांति की जो ज्वाला धधक रही थी वह इस प्रकार सन्तुलित ढंग से व्यक्त होने लगी। बड़े परिश्रम, अभ्यास, अध्ययन और मनन से उन्होंने लेख लिखना आरंभ किया और अखबारों में भेजने लगे। आरंभ में तो उनके लेख वापस आने लगे परन्तु वे निराश नहीं हुए। उन्होंने प्रयत्न जारी रखे और इस अनवरत साधना से उनके लेख अखबारों में छपने लगे।
कुछ दिनों में ही उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपने लेख छपवाने में अच्छी सफलता प्राप्त कर ली। बाद में थोड़ा पैसा इकट्ठा हुआ तो ‘‘फ्री-प्रैस’’ नाम से एक अखबार भी निकाला जिसका उद्देश्य था इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध जनमत जागृत करना। किन्तु आर्थिक कठिनाइयों के कारण यह अखबार चल न सका। गैरिसन हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने बेंजामिन लुंडी नामक अपना एक सहयोगी ढूंढ़ निकाला और ‘‘फ्री-प्रैस’’ बंद होने के बाद दूसरा पत्र प्रकाशित करना शुरू किया।
इस अखबार का भी यही उद्देश्य था कि दास प्रथा के विरुद्ध जनमत तैयार करना। उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा इस कुप्रथा पर घातक प्रहार किए। लोगों के विचार बदलने और दिमाग उलटने लगे। विचार क्रांति का यह अभियान इतना अधिक सफल रहा कि उसमें गुलामों का व्यवहार करने वाले और उस प्रथा का लाभ उठाने वाले लोगों के अस्तित्व में भूकंप सा आ गया। समाज द्रोही स्वार्थियों ने इसे अपने हित के लिए हानिकारक समझा और इन सुधारकों का अन्त कर देने के लिए प्रयत्न करने लगे।
इधर गैरिसन के विचारों को मानने वाले व्यक्तियों का एक बड़ा समूह तैयार हो गया। उनका अखबार भी निरंतर प्रगति करता रहा। यह आशा थी कि उत्तरी अमेरिका के अधिकांश नागरिक उनके पक्ष में हैं किन्तु वहां उनके विरोधी भी कम नहीं थे। दक्षिण अमेरिका के दास व्यापारियों के लिए भी गैरिसन घातक शत्रु थे। इसलिए दोनों ओर से गैरिसन को पकड़ने और उन्हें बरबाद कर देने को षड़यंत्र रचा गया। उनके प्राण खतरे में पड़ गए। दास प्रथा से गहरा संबंध रखने वाले कुछ प्रभावशाली स्वार्थी व्यक्तियों ने गैरिसन को पकड़ने के लिए छः हजार रुपये का इनाम घोषित किया, फिर उत्तर जार्जिया ने 20 हजार का इनाम निकाला।
उनके विरोधियों ने गैरिसन को पकड़ने के लिए बड़ा गहरा जाल बुना और वे उस जाल में उस समय फंस गए जब बोस्टन में उनके शत्रुओं ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। विप्लव की सी स्थिति आ गयी। उनके समर्थकों तथा विरोधियों में दंगा फसाद होने का डर पैदा हो गया। सरकारी अधिकारियों ने इस अवसर पर हस्तक्षेप कर स्थिति को काबू में लिया तब जाकर कहीं हालात में सुधार आया। गैरिसन को पुलिस ने अपनी देख-देख में रखा। बाद में दुष्ट स्वार्थियों के प्रभाव में आकर उन पर मुकदमा चलाया गया।
संयोग से इस घटना क्रम की जानकारी तात्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को मिली। वे स्वयं भी इस प्रथा को समाप्त कर देने की मंशा में थे। इसलिए और मानवीय दृष्टिकोण से भी विचार कर उन्होंने गैरिसन को निर्दोष और निरपराध घोषित कर मुक्त कर दिया। गैरिसन अब और अधिक उत्साहपूर्वक अन्याय से लड़ने लगे और अंततः सफल हुए। गैरिसन ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के माध्यम से जन साधारण के सम्मुख एक ऐसा दीप जलाया जो सदा उसके पथ के आलोकित करता रहेगा।
(यु. नि. यो. नवंबर 1975 से संकलित)
उस किशोर ने अपने जैसे ही इन मनुष्यों की यह दुर्दशा देखकर खून का घूंट पी लिया। सुना तो बहुत था कि आदमी को गुलाम बनाकर रखा जाता है। परन्तु इतना निकट से देखने का अवसर आज ही आया था। किशोर ने संकल्प लिया कि मैं इस अमानवीय प्रथा को बंद करके ही रहूंगा। इस संकल्प की पूर्ति से प्रथम उसे अपनी चिंता थी। वह भूला नहीं था कि इस नगर में मैं रोजगार की तलाश करने आया हूं।
यही किशोर आगे चलकर महामानव गैरिसन के नाम से मानवीय मुक्ति के संदेश वाहक बने और सन् 1863 में उनके तथा उन जैसे ही अन्य संकल्पवान राष्ट्रीय नेताओं के प्रयत्नों के फलस्वरूप अमेरिका में गुलामी प्रथा समाप्त हुई। इस प्रथा का अंत करने के लिए मानवता के सच्चे पोषक इन कर्मठ महापुरुषों ने अगणित कठिनाइयां झेलीं तथा बहुत कष्ट सहे। यहां तक कि उन लोगों को मारने के भी प्रयत्न किए गए और कई बार तो वे मरते-मरते भी बचे। इसी संग्राम के सफल योद्धा अब्राहम लिंकन के करुण अंत से तो पाठक भली-भांति परिचित ही हैं।
गैरिसन एक अति साधारण और निर्धन परिवार के सदस्य थे। उनके पिता मछुआरे थे। नाव चलाकर और मछलियां पकड़ कर ही परिवार का भरण-पोषण होता था। जब वे बहुत छोटे थे तभी मछली पकड़ते समय नाव उलट जाने से उनके पिता डूबकर मर गए। मछुआरा होते हुए भी यह घटना इतने आकस्मिक ढंग से घटी कि उनके पिता को कुछ उपाय ही नहीं सूझा अपने आपको बचाने का। मां को जब इस दुर्घटना का पता चला तो बेचारी छाती पीटकर रह गयी। परिवार के भरण-पोषण का एकमात्र आधार ही टूट गया था। पास में कोई सम्पत्ति भी नहीं थी कि उससे आगे चलकर गुजारा किया जा सके।
लेकिन इस आपात स्थिति के बाद दोनों का सामान्य जीवन सहज होता चला गया। मां मेहनत-मजदूरी कर अपने पुत्र का पालन करने लगी। किसी प्रकार गैरिसन को जीवित तो रख लिया परन्तु शिक्षा-दीक्षा कुछ भी न दिला सकी। गैरिसन की माता दांयी का काम जानती थी। पहले पड़ोस-मुहल्ले में प्रसूता स्त्रियों के प्रसव- समय में अपनी समझ और योग्यता के अनुसार जैसा व जितना बन पड़ता उतना काम करती और उससे जो कुछ भी मिलता उसी में अपना गुजारा चलाती। दाई के काम में बड़ी मुश्किल से आधा-पूरा पेट, रूखा-सूखा भोजन जुटा पाने भर को ही आय हो पाती थी।
गैरिसन अब आठ-नौ वर्ष के हुए तो उन्हें अपने परिस्थितियों से विवश होकर इसी उम्र में समाज के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा। मां की अत्यल्प आमदनी में उन लोगों का गुजारा चलना मुश्किल हो गया और घर की परिस्थितियों को तकाजा यह था कि गैरिसन का अबोध बचपन कर्मठ प्रौढ़ता में बदले। वे अपनी मां से अनुमति लेकर परिस्थितियों के इस तकाजे को पूरा करने के लिए निकले। मां ने आधे मन से स्वीकृति दे दी।
गैरिसन जब अपना निवास स्थान छोड़कर काम-काज की तलाश में भटकने लगे तो उनकी उम्र और शरीर की स्थिति देखकर किसी ने भी उन्हें काम पर नहीं रखा। जहां भी वे जाते और निवेदन करते नौकरी पर रखने के लिए तो एक ही उत्तर मिलता—‘‘बेटा! अभी तुम्हारे खाने और खेलने के दिन हैं। अभी से तुम काम पर लगने की बात क्यों सोचते हो? अभी तुम्हें कौन काम पर रखेगा?’’
‘‘जी मुझे इस उमर में भी अपनी बूढ़ी मां और अपने निर्वाह के लिए रोजगार की आवश्यकता है। इसीलिए मैं काम तलाश रहा हूं। जब पेट ही खाली हो तो खेलना-कूदना कहां से होगा।’’
स्पष्ट ही उत्तरदाता का भाव गैरिसन को टालने का होता था। जब वे यह जवाब देकर निवेदन करते तो उत्तरदाता चुप रह जाते और फिर पैंतरा बदलते—‘‘तुम क्या काम जानते हो?’’
‘‘जी, मैं काम तो कुछ नहीं जानता। हां सीखना अवश्य चाहता हूं। जिस काम में भी आप मुझे लगायेंगे उस बहुत थोड़े समय में ही सीख लूंगा।’’
‘‘यहां सीखने की सुविधा नहीं है’’ —और गैरिसन को निराश हो लौट जाना पड़ता। निराशा और असफलता तरह-तरह से उनको मुंह चिढ़ाती। लेकिन पेट की आग ही ऐसी होती है कि कुछ न कुछ तो करना ही था। निरन्तर असफल रहने से वे निराश हो गए। इसलिए उन्होंने कोई भी काम करने के लिए स्वयं को तैयार किया। छोटे-छोटे कामगरों के पास भी वे गए पर उन्हें प्रायः निराशा ही मिली क्योंकि कोई भी व्यक्ति ऐसे नए और सीखने वाले लड़के को क्यों काम देने लगा। एक दिन काम की तलाश में ही उन्होंने किसी जूता गांठने वाले मोची से पूछा। मोची जरा सदय और उदार व्यक्ति था। उसने गैरिसन के परिवार की स्थिति से अवगत होकर उन्हें अपने यहां काम पर रख लिया।
इस साधारण से काम को ही गैरिसन ने महत्वपूर्ण सफलता माना और वे जी लगाकर तन्मयतापूर्वक इस काम में लग गए। भूख और गरीबी व्यक्ति में कैसी लगन और तन्मयता पैदा कर देती है, यह कोई जानना चाहे तो उस स्थिति की कल्पना करे जब बहुत खोज-बीन और जांच-तलाश के बाद कहीं काम की व्यवस्था बने। जिस मोची ने गैरिसन को काम दिया था वह बालक की मेहनत, निष्ठा और श्रमशीलता को देख-देखकर उस पर तरस खाया करता था। क्योंकि वह भी साधारण या श्रमजीवी था और आमदनी कोई खास नहीं थी, फिर भी जो कुछ बनता वह वह सहृदयतापूर्वक देता। यह राशि इतनी अत्यल्प मात्रा में होती थी कि उससे गैरिसन का ही पेट नहीं भरता था। फिर भी वे संतुष्ट थे।
एक दिन मोची मालिक ने उनसे कहा—‘‘गैरिसन, यहां तुम्हारी क्या आमदनी होती है। इससे तो तुम्हारा पेट भी मुश्किल से भरता होगा। तुम कहो तो मैं अपने एक बढ़ई मित्र से बात करूं, वह तुम्हारे लिए अच्छी आमदनी का काम दे देगा।’’
‘‘जैसी आपकी मर्जी’’ —गैरिसन ने स्वीकृति दे दी। और मोची ने बात-चीत चलाकर उन्हें बढ़ई के पास रखने में सफलता प्राप्त कर ली। इन्हीं दिनों आरंभ में वर्णित घटना घटी। यद्यपि उनके जीवन में अभी स्थायित्व भी आया नहीं था, वे चाहते थे कि कोई ऐसी जीविका तलाश की जाये जिससे जीवन निर्विघ्न चल सके, लेकिन उक्त घटना ने उनकी विचारणा का बदल दिया और वे सोचने लगे जैसे भी बने इस कुप्रथा का अंत ही करना है।
बढ़ई के पास से काम छोड़कर उन्होंने एक प्रेस में नौकरी कर ली। छापा खाने में उन्हें झाड़ू लगाने और कागज ठीक करने का काम मिला। न जाने क्यों गैरिसन को इस साधारण सी उपलब्धि में संतोष मिला। उन्होंने निश्चित कर लिया कि अपने व्यवहार और उद्योगशीलता से इस क्षेत्र में अच्छी प्रगति कर लेंगे जो आगे चलकर उनके उद्देश्य की पूर्ति में सहायक सिद्ध होगी। नियत कार्यों से निवृत्त हो जाने के बाद जो भी समय मिलता उसे कंपोजिंग सीखने में लगाने की सोची। लेकिन गैरिसन शिक्षित तो थे नहीं। कंपोजिंग सीखें तो कैसे? जहां चाह वहां राह के हिसाब से उन्होंने अन्य लोगों से पूछ-पूछकर अक्षर जोड़ना सीखा। अक्षरों को पहचानना भी उन्हें इसी प्रकार आया। लगनपूर्वक यह काम करते-करते वे एक अच्छे कंपोजीटर बन गए और आमदनी भी पहले की अपेक्षा बढ़िया होने लगी।
अब उनकी जिन्दगी की गाड़ी ठीक गति से चलने लगी और वे अपनी शैक्षणिक योग्यता भी बढ़ाने लगे। उन्होंने आठ-दस वर्ष तक यह काम किया और थोड़ा-बहुत पैसा भी इकट्ठा किया। शिक्षा की दृष्टि से भी उन्होंने संतोषजनक प्रगति कर ली। उस समय उनकी आयु लगभग सोलह-सत्रह वर्ष की रही होगी। प्रेस में पुस्तकें छपवाने के लिए व्यवसायी एजेंट, लेखक और साहित्यकार लोग आया करते थे। गैरिसन ने जो निश्चय किया था—दास प्रथा का अंत करने का उस संकल्प को पूरा करने के लिए उन्हें एक उपयुक्त मार्ग दिखा—लेखनी द्वारा लोगों की विचारणाओं में परिवर्तन लाने का। उनके हृदय में दासप्रथा के प्रति बड़ी घृणा थी और गुलामों के प्रति गहरी संवेदना।
इसी घृणा और संवेदना को जीवन का लक्ष्य बनाकर उन्होंने प्रेस में आने वाली लेखकों से संपर्क किया और उसके सहयोग से लेख लिखना सीखा। गैरिसन के हृदय में इस अत्याचार के विरुद्ध क्रांति की जो ज्वाला धधक रही थी वह इस प्रकार सन्तुलित ढंग से व्यक्त होने लगी। बड़े परिश्रम, अभ्यास, अध्ययन और मनन से उन्होंने लेख लिखना आरंभ किया और अखबारों में भेजने लगे। आरंभ में तो उनके लेख वापस आने लगे परन्तु वे निराश नहीं हुए। उन्होंने प्रयत्न जारी रखे और इस अनवरत साधना से उनके लेख अखबारों में छपने लगे।
कुछ दिनों में ही उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपने लेख छपवाने में अच्छी सफलता प्राप्त कर ली। बाद में थोड़ा पैसा इकट्ठा हुआ तो ‘‘फ्री-प्रैस’’ नाम से एक अखबार भी निकाला जिसका उद्देश्य था इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध जनमत जागृत करना। किन्तु आर्थिक कठिनाइयों के कारण यह अखबार चल न सका। गैरिसन हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने बेंजामिन लुंडी नामक अपना एक सहयोगी ढूंढ़ निकाला और ‘‘फ्री-प्रैस’’ बंद होने के बाद दूसरा पत्र प्रकाशित करना शुरू किया।
इस अखबार का भी यही उद्देश्य था कि दास प्रथा के विरुद्ध जनमत तैयार करना। उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा इस कुप्रथा पर घातक प्रहार किए। लोगों के विचार बदलने और दिमाग उलटने लगे। विचार क्रांति का यह अभियान इतना अधिक सफल रहा कि उसमें गुलामों का व्यवहार करने वाले और उस प्रथा का लाभ उठाने वाले लोगों के अस्तित्व में भूकंप सा आ गया। समाज द्रोही स्वार्थियों ने इसे अपने हित के लिए हानिकारक समझा और इन सुधारकों का अन्त कर देने के लिए प्रयत्न करने लगे।
इधर गैरिसन के विचारों को मानने वाले व्यक्तियों का एक बड़ा समूह तैयार हो गया। उनका अखबार भी निरंतर प्रगति करता रहा। यह आशा थी कि उत्तरी अमेरिका के अधिकांश नागरिक उनके पक्ष में हैं किन्तु वहां उनके विरोधी भी कम नहीं थे। दक्षिण अमेरिका के दास व्यापारियों के लिए भी गैरिसन घातक शत्रु थे। इसलिए दोनों ओर से गैरिसन को पकड़ने और उन्हें बरबाद कर देने को षड़यंत्र रचा गया। उनके प्राण खतरे में पड़ गए। दास प्रथा से गहरा संबंध रखने वाले कुछ प्रभावशाली स्वार्थी व्यक्तियों ने गैरिसन को पकड़ने के लिए छः हजार रुपये का इनाम घोषित किया, फिर उत्तर जार्जिया ने 20 हजार का इनाम निकाला।
उनके विरोधियों ने गैरिसन को पकड़ने के लिए बड़ा गहरा जाल बुना और वे उस जाल में उस समय फंस गए जब बोस्टन में उनके शत्रुओं ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। विप्लव की सी स्थिति आ गयी। उनके समर्थकों तथा विरोधियों में दंगा फसाद होने का डर पैदा हो गया। सरकारी अधिकारियों ने इस अवसर पर हस्तक्षेप कर स्थिति को काबू में लिया तब जाकर कहीं हालात में सुधार आया। गैरिसन को पुलिस ने अपनी देख-देख में रखा। बाद में दुष्ट स्वार्थियों के प्रभाव में आकर उन पर मुकदमा चलाया गया।
संयोग से इस घटना क्रम की जानकारी तात्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को मिली। वे स्वयं भी इस प्रथा को समाप्त कर देने की मंशा में थे। इसलिए और मानवीय दृष्टिकोण से भी विचार कर उन्होंने गैरिसन को निर्दोष और निरपराध घोषित कर मुक्त कर दिया। गैरिसन अब और अधिक उत्साहपूर्वक अन्याय से लड़ने लगे और अंततः सफल हुए। गैरिसन ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के माध्यम से जन साधारण के सम्मुख एक ऐसा दीप जलाया जो सदा उसके पथ के आलोकित करता रहेगा।
(यु. नि. यो. नवंबर 1975 से संकलित)