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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 94): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
‘‘गायत्री के मंत्रद्रष्टा विश्वामित्र थे। उनने सप्तसरोवर नामक स्थान पर रहकर गायत्री की पारंगतता प्राप्त की थी। वही स्थान तुम्हारे लिए भी नियत है। उपयोगी स्थान तुम्हें सरलतापूर्वक मिल जाएगा। उसका नाम शान्तिकुञ्ज— गायत्री तीर्थ रखना और उन सब कार्यों का बीजारोपण करना, जिन्हें पुरातनकाल के ऋषिगण स्थूलशरीर से करते रहे हैं। अब वे सूक्ष्मशरीर में हैं, इसलिए अभीष्ट प्रयोजनों के लिए किसी शरीरधारी को माध्यम बनाने की आवश्यकता पड़ ही रही है। हमें भी तो ऐसी आवश्यकता पड़ी और तुम्हारे स्थूलशरीर को इसके लिए सत्पात्र देखकर संपर्क बनाया और अभीष्ट कार्यक्रमों में लगाया। यही इच्छा इन सभी ऋषियों की है। तुम उनकी परंपराओं का नए सिरे से बीजारोपण करना। उन कार्यों में अपेक्षाकृत भारीपन रहेगा और कठिनाई भी अधिक रहेगी। कि...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 87): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
 मथुरा का कार्य सुचारु रूप से चल पड़ने के उपरांत हिमालय से तीसरा बुलावा आया, जिसमें अगले चौथे कदम को उठाए जाने का संकेत था। समय भी काफी हो गया था। इस बार कार्य का दबाव अत्यधिक रहा और सफलता के साथ-साथ थकान बढ़ती गई थी। ऐसी परिस्थितियों में बैटरी चार्ज करने का यह निमंत्रण हमारे लिए बहुत ही उत्साहवर्द्धक था। निर्धारित दिन प्रयाण आरंभ हो गया। देखे हुए रास्ते को पार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। फिर मौसम भी ऐसा रखा गया था, जिसमें शीत के कड़े प्रकोप का सामना न करना पड़ता और एकाकीपन की प्रथम बार जैसी कठिनाई न पड़ती। गोमुख पहुँचने पर गुरुदेव के छायापुरुष का मिलना और अत्यंत सरलतापूर्वक नंदनवन पहुँचा देने का क्रम पिछली बार जैसा ही रहा। सच्चे आत्मीयजनों का पारस्परिक मिलन कितना आनंद-उल्लास भरा होता है, इसे भ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 86): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
लोक-साधना का महत्त्व तब घटता है, जब उसके बदले नामवरी लूटने की ललक होती है। यह तो अखबारों में इश्तिहार छपाकर विज्ञापनबाजी करने जैसा व्यवसाय है। एहसान जताने और बदला चाहने से भी पुण्यफल नष्ट होता है। दोस्तों के दबाव से किसी भी काम के लिए चंदा दे बैठने से भी दान की भावना पूर्ण नहीं होती। देखा यह जाना चाहिए कि इस प्रयास के फलस्वरूप सद्भावनाओं का संवर्द्धन होता है या नहीं; सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने का सुयोग बनता है या नहीं। संकटग्रस्तों को विपत्ति से निकालने और सत्प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने में जो कार्य सहायक हों, उन्हीं की सार्थकता है; अन्यथा मुफ्तखोरी बढ़ाने और छल-प्रपंच से भोले-भाले लोगों को लूटते-खाते रहने के लिए इन दिनों अगणित आडंबर चल पड़े हैं। उनमें धन या समय देने से पूर्व हजार बार यह ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 85): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
बाजरे का— मक्का का एक दाना सौ दाने होकर पकता है। यह उदाहरण हमने अपनी संचित संपदा के उत्सर्ग करने जैसा दुस्साहस करने में देखा। जो था, वह परिवार के लिए उतनी ही मात्रा में— उतनी ही अवधि तक दिया, जब तक कि वे लोग हाथ-पैरों से कमाने-खाने लायक नहीं बन गए। उत्तराधिकार में समर्थ संतान हेतु संपदा छोड़ मरना— अपना श्रम-मनोयोग उन्हीं के लिए खपाते रहना, हमने सदा अनैतिक माना और विरोध किया है। फिर स्वयं वैसा करते भी कैसे? मुफ्त की कमाई हराम की होती है, भले ही वह पूर्वजों की खड़ी की हुई हो। हराम की कमाई न पचती है, न फलती है। इस आदर्श पर परिपूर्ण विश्वास रखते हुए हमने शारीरिक श्रम, मनोयोग, भाव-संवेदना और संग्रहीत धन की चारों संपदाओं में से किसी को भी कुपात्रों के हाथ नहीं जाने दिया है। उसका एक-एक कण सज्जनता के ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 84): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
गुरुदेव के निर्देशन में अपनी चारों ही संपदाओं को भगवान के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया। (1) शारीरिक श्रम, (2) मानसिक श्रम, (3) भाव-संवेदनाएँ, (4) पूर्वजों का उपार्जित धन। अपना कमाया तो कुछ था ही नहीं। चारों को अनन्य निष्ठा के साथ निर्धारित लक्ष्य के लिए लगाते चले आए हैं। फलतः सचमुच ही वे सौ गुने होकर वापस लौटते रहे हैं। शरीर से बारह घंटा नित्य श्रम किया है। इससे थकान नहीं आई, वरन् कार्यक्षमता बढ़ी ही है। इन दिनों इस बुढ़ापे में भी जवानों जैसी कार्यक्षमता है। मानसिक श्रम भी शारीरिक श्रम के साथ सँजोए रखा। उसकी परिणति यह है कि मनोबल में— मस्तिष्कीय क्षमता में कहीं कोई ऐसे लक्षण प्रकट नहीं हुए जैसे कि आमतौर से बुढ़ापे में प्रकट होते हैं। हमने खुलकर प्यार बाँटा और बिखेरा है। फलस्वरूप दूसरी ओ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 83): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
इतने पर भी वे सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक प्रज्ञा परिवार से प्रायः 24 लाख से भी अधिक व्यक्ति संबंधित हैं। उनमें से जो मात्र सिद्धांतों, आदर्शों से प्रभावित होकर इस ओर आकर्षित हुए हैं, वे कम हैं। संख्या उनकी ज्यादा है, जिनने व्यक्तिगत जीवन में प्रकाश, दुलार, सहयोग, परामर्श एवं अनुदान प्राप्त किया है। ऐसे प्रसंग मनुष्य के अंतराल में स्थान बनाते हैं। विशेषतया तब, जब सहायता करने वाला अपनी प्रामाणिकता एवं नि:स्वार्थता की दृष्टि से हर कसौटी पर खरा उतरता हो। संपर्क परिकर में मुश्किल से आधे-तिहाई ऐसे होंगे, जिन्हें मिशन के आदर्शों और हमारे प्रतिपादनों का गंभीरतापूर्वक बोध है। शेष तो हैरानियों में दौड़ते और जलती परिस्थितियों में शांतिदायक अनुभूतियाँ लेकर वापस लौटते रहे हैं। यही कारण है, जिससे इतना ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 82): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
सर्वव्यापी ईश्वर निराकार ही हो सकता है। उसे परमात्मा कहा गया है। परमात्मा अर्थात आत्माओं का परम समुच्चय। इसे आदर्शों का एकाकार कहने में भी हर्ज नहीं। यही विराट ब्रह्म या विराट विश्व है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को अपने इसी रूप का दर्शन कराया था। राम ने कौशल्या तथा काकभुशुंडि को इसी रूप में, झलक के रूप में दिखाया था और प्राणियों को उनका दृश्य स्वरूप। इस मान्यता के अनुसार यह लोकसेवा ही विराट ब्रह्म की आराधना बन जाती है। विश्व-उद्यान को सुखी-समुन्नत बनाने के लिए ही परमात्मा ने यह बहुमूल्य जीवन देकर अपने युवराज की तरह यहाँ भेजा है। इसकी पूर्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इसी मार्ग का अधिक श्रद्धापूर्वक अवलंबन करने से अध्यात्म उत्कर्ष का वह प्रयोजन सधता है, जिसे आराधना कहा गया है। हम करते रहे हैं...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 81): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलने से त्रिवेणी संगम बनने और उसमें स्नान करने वाले का कायाकल्प होने की बात कही गई है। बगुले का हंस और कौए का कोयल आकृति में बदल जाना तो संभव नहीं, पर इस आधार पर विनिर्मित हुई अध्यात्मधारा का अवगाहन करने से मनुष्य का अंतरंग और बहिरंग जीवन असाधारण रूप से बदल सकता है, यह निश्चित है। यह त्रिवेणी उपासना, साधना और आराधना के समन्वय से बनती है। यह तीनों कोई क्रियाकांड नहीं हैं, जिन्हें इतने समय में, इस विधि से, इस प्रकार बैठकर संपन्न करते रहा जा सके। यह चिंतन, चरित्र और व्यवहार में होने वाले उच्चस्तरीय परिवर्तन हैं, जिनके लिए अपनी शारीरिक और मानसिक गतिविधियों पर निरंतर ध्यान देना पड़ता है। दुरितों से संशोधन में प्रखरता का उपयोग करना पड़ता है और नई विचारधारा में अपने गुण, कर्म...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 80): जीवन-साधना, जो कभी असफल नहीं जाती
तीसरा पक्ष अहंता का है। शेखीखोरी, बड़प्पन, ठाठ-बाट, सज-धज, फैशन आदि में लोग ढेरों समय और धन खरच करते हैं। निजी जीवन तथा परिवार में नम्रता और सादगी का ऐसा ब्राह्मणोचित माहौल बनाए रखा गया कि अहंकार के प्रदर्शन की कोई गुंजाइश नहीं थी। हाथ से घरेलू काम करने की आदत अपनाई गई। माताजी ने मुद्दतों हाथ से चक्की पीसी है। घर का तथा अतिथियों का भोजन तो वे मुद्दतों बनाती रही हैं। घरेलू नौकर की आवश्यकता तो तब पड़ी, जब बाहरी कामों का असाधारण विस्तार होने लगा और उनमें व्यस्त रहने के कारण माताजी का उनमें समय दे सकना संभव नहीं रह गया। यह अनुमान गलत निकला कि ठाठ-बाट से रहने वालों को बड़ा आदमी समझा जाता है और गरीबी से गुजारा करने वाले उद्विग्न, अभागे, पिछड़े पाए जाते हैं। हमारे संबंध में यह बात कभी लागू नहीं हुई। आल...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 79): जीवन-साधना, जो कभी असफल नहीं जाती
देखा गया है कि अपराध प्रायः आर्थिक प्रलोभनों या आवश्यकताओं के कारण होते हैं। इसलिए उनकी जड़ें काटने के लिए औसत भारतीय स्तर का जीवनयापन अपनाने का व्रत लिया गया। अपनी निज की कमाई कितनी ही क्यों न हो; भले ही वह ईमानदारी या परिश्रम की क्यों न हो, पर उसमें से अपने लिए— परिवार के लिए खरच देशी हिसाब से किया जाए, जिससे कि औसत भारतीय गुजारा करना संभव हो। यह ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ का व्यावहारिक निर्धारण है। सिद्धांततः कई लोग इसे पसंद करते हैं और उसका समर्थन भी। पर जब अपने निज के जीवन में इसका प्रयोग करने का प्रश्न आता है, तो उसे असंभव कहने लगते हैं। ऐसा निर्वाह व्रतशील होकर ही निबाहा जा सकता है। साथ ही परिवार वालों को इसके लिए सिद्धांततः और व्यवहारतः तैयार करना पड़ता है। इस संदर्भ में सबसे बड़ी कठिनाई ल...
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