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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 90): शान्तिकुञ्ज में गायत्री तीर्थ की स्थापना
मथुरा से प्रयाण के बाद हिमालय से 6 माह बाद ही हम हरिद्वार उस स्थान पर लौट आए, जहाँ निर्धारित स्थान पर शान्तिकुञ्ज के एक छोटे-से भवन में माताजी व उनके साथ रहने वाली कन्याओं के रहने योग्य निर्माण हम पूर्व में करा चुके थे। अब और जमीन लेने के उपरांत पुनः निर्माण कार्य आरंभ किया। इच्छा ऋषि आश्रम बनाने की थी। सर्वप्रथम अपने लिए, सहकर्मियों के लिए, अतिथियों के लिए निवासस्थान और भोजनालय बनाया गया है।
यह आश्रम ऋषियों का— देवात्मा हिमालय का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए उत्तराखंड का— गंगा का प्रतीक देवालय यहाँ बनाया गया। इसके अतिरिक्त सात प्रमुख तथा अन्यान्य वरिष्ठ ऋषियों की प्रतिमाओं की स्थापना का प्रबंध किया गया। आद्यशक्ति गायत्री का मंदिर तथा जलकूपों का निर्माण कराया गया; प्रवचन कक्ष का भी। इस निर्मा...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 89): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
हरिद्वार रहकर हमें क्या करना है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? यह हमें ऊपर बताए निर्देशों के अनुसार हमसे विस्तारपूर्वक बता दिया गया। सभी बातें पहले की ही तरह गाँठ बाँध ली। पिछली बार मात्र गुरुदेव अकेले की ही इच्छाओं की पूर्ति का कार्यभार था। अब की बार इतनों का बोझ लादकर चलना पड़ेगा। गधे को अधिक सावधानी रखनी पड़ेगी और अधिक मेहनत भी करनी पड़ेगी।
साथ ही इतना सब कर लेने पर चौथी बार आने और उससे भी बड़ा उत्तरदायित्व सँभालने तथा सूक्ष्मशरीर अपनाने का कदम बढ़ाना पड़ेगा। यह सब इस बार उनने स्पष्ट नहीं किया, मात्र संकेत ही दिया।
यह भी बताया कि, ‘‘हरिद्वार की कार्यपद्धति मथुरा के कार्यक्रम से बड़ी है। इसलिए उतार-चढ़ाव भी बहुत रहेंगे। असुरता के आक्रमण भी सहने पड़ेंगे”.... आदि-आदि बातें उन...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 88): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
‘‘गायत्री के मंत्रद्रष्टा विश्वामित्र थे। उनने सप्तसरोवर नामक स्थान पर रहकर गायत्री की पारंगतता प्राप्त की थी। वही स्थान तुम्हारे लिए भी नियत है। उपयोगी स्थान तुम्हें सरलतापूर्वक मिल जाएगा। उसका नाम शान्तिकुञ्ज— गायत्री तीर्थ रखना और उन सब कार्यों का बीजारोपण करना, जिन्हें पुरातनकाल के ऋषिगण स्थूलशरीर से करते रहे हैं। अब वे सूक्ष्मशरीर में हैं, इसलिए अभीष्ट प्रयोजनों के लिए किसी शरीरधारी को माध्यम बनाने की आवश्यकता पड़ ही रही है। हमें भी तो ऐसी आवश्यकता पड़ी और तुम्हारे स्थूलशरीर को इसके लिए सत्पात्र देखकर संपर्क बनाया और अभीष्ट कार्यक्रमों में लगाया। यही इच्छा इन सभी ऋषियों की है। तुम उनकी परंपराओं का नए सिरे से बीजारोपण करना। उन कार्यों में अपेक्षाकृत भारीपन रहेगा और कठिनाई भी अधिक रहेगी। कि...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 87): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
मथुरा का कार्य सुचारु रूप से चल पड़ने के उपरांत हिमालय से तीसरा बुलावा आया, जिसमें अगले चौथे कदम को उठाए जाने का संकेत था। समय भी काफी हो गया था। इस बार कार्य का दबाव अत्यधिक रहा और सफलता के साथ-साथ थकान बढ़ती गई थी। ऐसी परिस्थितियों में बैटरी चार्ज करने का यह निमंत्रण हमारे लिए बहुत ही उत्साहवर्द्धक था।
निर्धारित दिन प्रयाण आरंभ हो गया। देखे हुए रास्ते को पार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। फिर मौसम भी ऐसा रखा गया था, जिसमें शीत के कड़े प्रकोप का सामना न करना पड़ता और एकाकीपन की प्रथम बार जैसी कठिनाई न पड़ती। गोमुख पहुँचने पर गुरुदेव के छायापुरुष का मिलना और अत्यंत सरलतापूर्वक नंदनवन पहुँचा देने का क्रम पिछली बार जैसा ही रहा। सच्चे आत्मीयजनों का पारस्परिक मिलन कितना आनंद-उल्लास भरा होता है, इसे भ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 86): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
लोक-साधना का महत्त्व तब घटता है, जब उसके बदले नामवरी लूटने की ललक होती है। यह तो अखबारों में इश्तिहार छपाकर विज्ञापनबाजी करने जैसा व्यवसाय है। एहसान जताने और बदला चाहने से भी पुण्यफल नष्ट होता है। दोस्तों के दबाव से किसी भी काम के लिए चंदा दे बैठने से भी दान की भावना पूर्ण नहीं होती। देखा यह जाना चाहिए कि इस प्रयास के फलस्वरूप सद्भावनाओं का संवर्द्धन होता है या नहीं; सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने का सुयोग बनता है या नहीं। संकटग्रस्तों को विपत्ति से निकालने और सत्प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने में जो कार्य सहायक हों, उन्हीं की सार्थकता है; अन्यथा मुफ्तखोरी बढ़ाने और छल-प्रपंच से भोले-भाले लोगों को लूटते-खाते रहने के लिए इन दिनों अगणित आडंबर चल पड़े हैं। उनमें धन या समय देने से पूर्व हजार बार यह ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 85): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
बाजरे का— मक्का का एक दाना सौ दाने होकर पकता है। यह उदाहरण हमने अपनी संचित संपदा के उत्सर्ग करने जैसा दुस्साहस करने में देखा। जो था, वह परिवार के लिए उतनी ही मात्रा में— उतनी ही अवधि तक दिया, जब तक कि वे लोग हाथ-पैरों से कमाने-खाने लायक नहीं बन गए। उत्तराधिकार में समर्थ संतान हेतु संपदा छोड़ मरना— अपना श्रम-मनोयोग उन्हीं के लिए खपाते रहना, हमने सदा अनैतिक माना और विरोध किया है। फिर स्वयं वैसा करते भी कैसे? मुफ्त की कमाई हराम की होती है, भले ही वह पूर्वजों की खड़ी की हुई हो। हराम की कमाई न पचती है, न फलती है। इस आदर्श पर परिपूर्ण विश्वास रखते हुए हमने शारीरिक श्रम, मनोयोग, भाव-संवेदना और संग्रहीत धन की चारों संपदाओं में से किसी को भी कुपात्रों के हाथ नहीं जाने दिया है। उसका एक-एक कण सज्जनता के ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 84): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
गुरुदेव के निर्देशन में अपनी चारों ही संपदाओं को भगवान के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया। (1) शारीरिक श्रम, (2) मानसिक श्रम, (3) भाव-संवेदनाएँ, (4) पूर्वजों का उपार्जित धन। अपना कमाया तो कुछ था ही नहीं। चारों को अनन्य निष्ठा के साथ निर्धारित लक्ष्य के लिए लगाते चले आए हैं। फलतः सचमुच ही वे सौ गुने होकर वापस लौटते रहे हैं। शरीर से बारह घंटा नित्य श्रम किया है। इससे थकान नहीं आई, वरन् कार्यक्षमता बढ़ी ही है। इन दिनों इस बुढ़ापे में भी जवानों जैसी कार्यक्षमता है। मानसिक श्रम भी शारीरिक श्रम के साथ सँजोए रखा। उसकी परिणति यह है कि मनोबल में— मस्तिष्कीय क्षमता में कहीं कोई ऐसे लक्षण प्रकट नहीं हुए जैसे कि आमतौर से बुढ़ापे में प्रकट होते हैं। हमने खुलकर प्यार बाँटा और बिखेरा है। फलस्वरूप दूसरी ओ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 83): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
इतने पर भी वे सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक प्रज्ञा परिवार से प्रायः 24 लाख से भी अधिक व्यक्ति संबंधित हैं। उनमें से जो मात्र सिद्धांतों, आदर्शों से प्रभावित होकर इस ओर आकर्षित हुए हैं, वे कम हैं। संख्या उनकी ज्यादा है, जिनने व्यक्तिगत जीवन में प्रकाश, दुलार, सहयोग, परामर्श एवं अनुदान प्राप्त किया है। ऐसे प्रसंग मनुष्य के अंतराल में स्थान बनाते हैं। विशेषतया तब, जब सहायता करने वाला अपनी प्रामाणिकता एवं नि:स्वार्थता की दृष्टि से हर कसौटी पर खरा उतरता हो। संपर्क परिकर में मुश्किल से आधे-तिहाई ऐसे होंगे, जिन्हें मिशन के आदर्शों और हमारे प्रतिपादनों का गंभीरतापूर्वक बोध है। शेष तो हैरानियों में दौड़ते और जलती परिस्थितियों में शांतिदायक अनुभूतियाँ लेकर वापस लौटते रहे हैं। यही कारण है, जिससे इतना ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 82): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
सर्वव्यापी ईश्वर निराकार ही हो सकता है। उसे परमात्मा कहा गया है। परमात्मा अर्थात आत्माओं का परम समुच्चय। इसे आदर्शों का एकाकार कहने में भी हर्ज नहीं। यही विराट ब्रह्म या विराट विश्व है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को अपने इसी रूप का दर्शन कराया था। राम ने कौशल्या तथा काकभुशुंडि को इसी रूप में, झलक के रूप में दिखाया था और प्राणियों को उनका दृश्य स्वरूप। इस मान्यता के अनुसार यह लोकसेवा ही विराट ब्रह्म की आराधना बन जाती है। विश्व-उद्यान को सुखी-समुन्नत बनाने के लिए ही परमात्मा ने यह बहुमूल्य जीवन देकर अपने युवराज की तरह यहाँ भेजा है। इसकी पूर्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इसी मार्ग का अधिक श्रद्धापूर्वक अवलंबन करने से अध्यात्म उत्कर्ष का वह प्रयोजन सधता है, जिसे आराधना कहा गया है।
हम करते रहे हैं...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 81): आराधना, जिसे निरंतर अपनाए रहा गया
गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलने से त्रिवेणी संगम बनने और उसमें स्नान करने वाले का कायाकल्प होने की बात कही गई है। बगुले का हंस और कौए का कोयल आकृति में बदल जाना तो संभव नहीं, पर इस आधार पर विनिर्मित हुई अध्यात्मधारा का अवगाहन करने से मनुष्य का अंतरंग और बहिरंग जीवन असाधारण रूप से बदल सकता है, यह निश्चित है। यह त्रिवेणी उपासना, साधना और आराधना के समन्वय से बनती है। यह तीनों कोई क्रियाकांड नहीं हैं, जिन्हें इतने समय में, इस विधि से, इस प्रकार बैठकर संपन्न करते रहा जा सके। यह चिंतन, चरित्र और व्यवहार में होने वाले उच्चस्तरीय परिवर्तन हैं, जिनके लिए अपनी शारीरिक और मानसिक गतिविधियों पर निरंतर ध्यान देना पड़ता है। दुरितों से संशोधन में प्रखरता का उपयोग करना पड़ता है और नई विचारधारा में अपने गुण, कर्म...