
सुख कैसे मिल सकता है?
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(श्री. डी. एस. शर्मा)
संसार में आजकल ऐसे मनुष्यों की संख्या बहुत अधिक है जो प्रायः अपने किसी न किसी दुख का रोना रोया करते हैं। कितने ही लोगों की बातों से तो ऐसा जान पड़ता है कि संसार में उनसे बढ़कर दुखी कोई नहीं हैं। ऐसे लोग वास्तव में अपनी ही अवस्था पर ध्यान दिया करते हैं, दूसरों की हरकत पर कभी विचार नहीं करते। दूसरी बात यह है कि वे भूल तो स्वयं करते हैं पर अपने दुःखों का कारण दूसरों पर डालते हैं। कभी हम दैव को दोष देते हैं कि भगवान ही हम पर अप्रसन्न है और हमीं को तरह-तरह के दुख दे रहे हैं। कभी हम किसी व्यक्ति विशेष को दोषी बतलाते हैं कि वही हमारा विरोध करके हमको हानि पहुँचा रहा है।
पर इस प्रकार के विचार वास्तव में हमारे मन के भ्रम ही होते हैं। यदि हम दरअसल दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हैं तो हमको सब से पहले यह विचार अपने मन से निकाल देना चाहिये कि कोई वस्तु या व्यक्ति हमारे दुःख का कारण है। हमको भली प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि अपने कर्मों के लिये हमारे स्वयं के सिवा कोई और जवाबदार नहीं है, और हम जो कुछ दुख या सुख पाते हैं वह इन कर्मों का ही परिणाम होता है।
प्रत्येक मनुष्य का जीवन सर्वथा उसके अधीन है जो कुछ दुख या सुख हमें प्राप्त होते हैं उनमें कार्य-कारण का एक विशेष नियम रहता है। दुःखों का कारण हम स्वयं होते हैं। अगर मनुष्य जान बूझकर, बहम, अज्ञान, भूल, अंधकार और दुख की कोठरी में समस्त जीवन बैठा रहे और दुख की शिकायत करता रहे तो क्या उसका दुःख दूर हो जायगा? वास्तव में विचार किया जाय तो सुख के लिये अपने चित्त की शाँति और एकाग्रता की ही आवश्यकता है, दूसरी वस्तुओं का सहारा ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं। एक मनुष्य ऐसा होता हैं कि जहाँ जाता हैं वहाँ उसे आनन्द ही मिलता है। प्रत्येक वस्तु उसे सुख देने वाली प्रतीत होती है। प्रत्येक परिस्थिति उसको अनुकूल मालूम होती है। दूसरा मनुष्य ऐसा होता है जिसे प्रत्येक वस्तु में बुराई ही नजर आती है। प्रत्येक वस्तु या मनुष्य के संपर्क में आकर वह खिन्न हो जाता है। प्रत्येक की शिकायत करता है। उसको कहीं किसी वस्तु में आनन्द प्राप्त नहीं होता। वह जगत को न रहने योग्य स्थान मानता है।
आप भी ऐसे भी अनेक मनुष्य पायेंगे, जिनको सुख के सभी साधन प्राप्त हैं, पर जो अपने स्वभाव के कारण या अपने मन से झूँठे सच्चे कारण उत्पन्न करके अपने को दुःखी रखते हैं। हमने बड़े-बड़े वैभवशालियों को भीतर से ऐसा दुःखी और चिन्ताग्रस्त देखा है कि उनकी अपेक्षा एक दो रुपये की मजदूरी करने वाला गरीब आदमी भी सुखी जान पड़ता है। ऐसे लोगों को किसी पर विश्वास ही नहीं होता। वे अपनी खास स्त्री, पुत्र, सम्बन्धी आदि पर भी विश्वास नहीं कर पाते और इस प्रकार सब कुछ होते हुये भी संसार में एक निस्सहाय व्यक्ति की भाँति जीवन बिताते हैं।
अब विचार कीजिये कि ऐसी अवस्था क्या है? इसका कारण कोई अन्य नहीं वरन् हमारी ही योग्यता या अयोग्यता होती है। संसार में रहकर तरह-तरह के अभाव, विघ्न-बाधा, आधि-व्याधि के आक्रमण से बचना संभव नहीं है पर उस परिस्थिति में भी शाँत और धैर्ययुक्त रहना हमारे हाथ में है। बाहरी वस्तुओं के आधार पर सुख की आशा रखने वाला अवश्य धोखा खाता है। इसलिये सुखी रहना चाहते हो तो अपने आप पर अपने मन पर अधिकार रखना सीखो।